जहां पक्षी आत्महत्या करते हैं

असम में एक गांव है जाटिंगा। यह गांव खासी जयंतिया पहाडि़यों में स्थित हाफलौंग से मात्रा तीन कि.मी. दूरी पर है। जाटिंगा, जो बीहड़ वनों में 3400 फीट की ऊंचाई पर बसा हुआ है, आज भी इस रहस्य के कारण अनुसंधानकर्ताओं और पर्यटकों के लिए कौतुहल का विषय बना हुआ है। यह मुख्य रूप से ‘जयन्तिया’ आदिवासियों का गांव है और रहस्यमय है आत्मोत्सर्ग करते पक्षियों के कारण से।

जाटिंगा में एक रहस्यमय घटना, चमत्कारिक रूप से एक निश्चित समयान्तराल (15 अगस्त से 31 अक्टूबर के बीच) से घटित होती है। वह चमत्कारिक घटना यह है कि जाटिंगा व इसके आसपास के लगभग अढ़ाई वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रा में उक्त निश्चित समयावधि के दरम्यान पक्षी रात के वक्त रोशनी पर आकर गिरते हैं जिन्हें गांव वालों द्वारा छडि़यों से मार कर खाया जाता है।

इस रहस्यमय पक्षी आत्मोत्सर्ग के लिए कुछ विशेष परिस्थितियां भी आवश्यक होती हैं यथा -रात अंधेरी हो एवं हल्की बूंदाबांदी, कोहरा या धुंध हो। रोशनी बिल्कुल सीधी न गिरकर गोलाकार व तेज होनी चाहिए। सबसे मुख्य व अहम परिस्थिति यह होती है कि हवा दक्षिण से उत्तर दिशा की तरफ चलनी चाहिए। यह उक्त शर्ते पूरी हो तो पक्षी मकानों के अंदर भी घुस आते हैं।

ऐसे मौसम में गांव वालों द्वारा सामूहिक शिकार किया जाता है। शाम को सात आठ बजे के दौरान गैस की लालटेनंे खुले मैदान में रखकर हरेक के पीछे एक आदमी पर्दा लगाकर एक छड़ी हाथ में लिए हुए बैठ जाता है। ज्यों ही पक्षी रोशनी के पास आकर पड़ते हैं त्यों ही छड़ी के वार से उनकी इहलीला समाप्त कर दी जाती है। एक रात में ही तीन चार सौ एवं सारे मौसम में हजारों पक्षी इस प्रकार गांव वालों का भोजन बनते हैं।

इस रहस्यमय चमत्कारिक पक्षी आत्मोत्सर्ग का रहस्योघाटन सर्वप्रथम ई.पी. जी ने सन् 1964 में ‘भारत के जंगली जीव’ नामक किताब में किया। सन् 1961 में प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ डाक्टर सलीम अली (अब महरूम) ने भी इस क्षेत्रा का दौरात्मक अध्ययन किया और पाया कि वहां आने वाले अधिकांश पक्षी सर्दियों में उत्तर से दक्षिण की ओर आने वाले प्रवासी पक्षी न होकर देशी पक्षी ही थे।

गांव वालों को इस घटना का पता 1905 के सितंबर माह में तब लगा, जब वे एक अंधेरी धुंध भरी रात में मशाले जलाये उस भैंस को ढूंढने निकले थे जिसे बाघ ने मार दिया था। तभी उनकी आश्चर्य से आंखें फटी रह गयी जब पक्षी रोशनी को देखकर उनके आसपास मंडराने लगे और कंधों पर बैठ गये। धीरे-धीरे उन्हें मालूम चला कि विशिष्ट मौसमी शर्तो को पूरा होने पर पक्षी रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं। 1940 के बाद जब पैट्रोमेक्स (गैसबत्ती) का प्रयोग शुरू हुआ, तो पक्षियों की संख्या भी बढ़ गयी है।

यह रहस्यजनक घटना यहीं क्यों होती है इस बात का किसी के पास कोई उत्तर नहीं है। कई दंत कथायें एवं किवदंतियां हालांकि इसके बारे में अवश्य प्रचलित हैं परंतु यथार्थ की कसौटी पर वे खरी नहीं उतरती। पक्षियों के शिकार का क्रम बदस्तूर जारी है। यदि इन मूक पक्षियों की भाषा हम समझ पाते तो अवश्य ही इस रहस्य पर से पर्दा उठता।