आज का संकट संस्कृति एवं सभ्यता का संकट है। भारत अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का उद्देश्य भूलकर पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता में बह रहा है। यह भारत के लिए आत्म विश्वास खोने का संकट है। भारतीय सभ्यता की धारा सत्य, प्रेम, करुणा, परस्पर, सुख-दु:ख का बंटवारा एवं संयम पर जोर देती है। इसे संत संस्कृति कहा गया है। दूसरी है पाश्चात्य संस्कृति, जिसे भद्र संस्कृति कहा जाता है। वह आवश्यकताओं को असीम बढ़ाने एवं उनकी पूर्ति एवं भोगवाद पर जोर देती है। गांधी ने संत संस्कृति को भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का हृदय माना था, लेकिन दुर्भाग्यवश देश ने गांधी को भुला दिया। भारत में अधिकतर संकट इसी कारण आए। आज भारत में चारों ओर पूजा-पाठ, धार्मिक कर्मकाण्डों के बढ़ जाने पर भी मानव जीवन में धर्म का सद्भाव बहुत कम दिखलाई पड़ रहा है। मठाधीशों ने भी स्वयं त्याग-तपस्या छोड़कर संपत्ति के संग्रह एवं भोग को अपना लिया है। इन आडम्बरों से कर्ता की आचरण शुद्धि होती नहीं दिखती वरन् धर्म के नाम पर धन, समय और शक्ति का अपव्यय जरूर होता है।
सरल भाषा में कहा जाए तो ईमान, भाईचारा और मेहनत धर्म के मूल तत्व हैं और इनका आचरण ही धर्माचरण है। सनातन मानवीय मूल्यों का क्षरण समाज के नैतिक और सांस्कृतिक पतन का द्योतक है। सांस्कृतिक एवं नैतिक परिस्थिति देर से बनती है। उसके बदलाव में भी बहुत समय लगता है, इसीलिये सज्जनों को अपनी चुप्पी छोड़कर सक्रिय और संगठित होना चाहिए। इस विषय पर मार्टिन लूथर किंग ने ठीक ही लिखा है- आज के इस संक्रमणकाल का सबसे दु:खद तथ्य यह नहीं है कि दुर्जन कर्कश ध्वनि में चिल्ला रहे हैं, बल्कि यह है कि सज्जन भयानक चुप्पी साधे हुए हैं।
लोग आज की स्थिति से त्रस्त हैं, दुर्भाग्यवश वे फिर भी यही सोचते हैं कि हमें इस स्थिति से उबारने का कार्य भी सरकार करेगी। यह सरकार नहीं, तो वह सरकार। जनता का खुद पर से विश्वास उठ गया है। यह सबसे बड़ी शोकान्तिका है। आज का संकट विश्वास का संकट है, इसलिये आमजन को समझना होगा कि यह काम उन्हें ही करना है। सत्ता का सरकार में केन्द्रीयकरण, यही तो संकट का मूल है। इसे बदलने के लिए फिर उसी केन्द्रित सत्ता की शरण लेना उसी के जाल को मजबूत बनाना है।
विनोबा कहते थे- मन्दिर में प्रवेश करते हुए हमारे पैरों के जूते, चप्पल, पदत्राण हम बाहर रखते हैं, फिर हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। वैसे ही राजनैतिक दलों को पदत्राण की भांति हम गांव के बाहर रखें और ग्रामसभा के मंदिर में, राजनैतिक दलों को भूलकर एकमत से काम करें। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाही’ यह तुलसीदास का वचन अनुभवों का निचोड़ है। आज भारतीयों को पर्यावरण रक्षा के लिए औद्योगीकरण, महानगरीकरण, विलासिता को घटाकर सबकी आवश्यकताएं पूरी हों, ऐसी नीति बनानी चाहिए। आज सादगी की ओर मानव को लौटना होगा, अन्यथा पर्यावरण बिगड़ता ही जायेगा और उत्पादन घटता जाएगा। अब भारतीयों को बाजारू संस्कृति के कारण एक बार वस्तु का उपयोग कर उसे फैंक देने की संस्कृति का त्याग करना होगा।
उपयोग कर फैंक दो, के चलते आज सब तरफ प्लास्टिक के कचरे की भरमार है। झाड़ू, टोकरी और रस्सी इत्यादि के उद्योग गांवों से समाप्त हो गए और उनका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है। प्लास्टिक की थैलियों का शहर और देहात के बाजारों में और सड़कों के किनारे, हर जगह कहर हो गया है। फलस्वरूप प्रदूषण बढ़ा है, इसलिये वस्तु का एक बार उपयोग कर फैंक देने के बजाय वह कैसे टिकी रहे, इसकी वृत्ति एवं उद्योग खोजना होगा और नयी वस्तु बनाने का तंत्र निर्माण करना होगा, इसलिये यह आवश्यक है कि उपभोग करो और फैंक दो की घातक नीति को देश के नागरिक समझें और उपरोक्त सुझावों को ध्यान में रखकर तद्नुसार अपनी जीवनशैली बनाएं। अगर भारतीयों ने समय रहते यह सब नहीं किया तो परिस्थिति आज से अधिक बिगड़ेगी, फिर क्या किया जाएगा। जो कल विवशतापूर्वक करना पड़ेगा, वह आज ही समझदारीपूर्वक करने में मनुष्य का सयानापन है।