विनायक दामोदर सावरकर (जन्म: 28 मई 1883 – मृत्यु: 26 फरवरी 1966) भारत के क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक थे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा ‘हिन्दुत्व’ को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है।भारतीय इतिहास में वीर सावरकर का नाम हमेशा गर्व से लिया जाता है लेकिन वर्तमान में उनके नाम पर काफी विवाद छिड़ा हुआ है। कोई सावरकर को हीरो मानता है तो कोई विलेन। इतिहास को पढ़ने के दौरान समझ में आता है कि जिस लिए सावरकर को माफीवीर कहा जाता है, असल में वो खत उन्होंने अपने साथी कैदियों की रिहाई के लिए दिया था। उन्होंने अंग्रेजों के आगे सिर कभी नहीं झुकाया और ना ही खुद के लिए माफी मांगी। उन्होंने अंग्रेजों को लिखे खत में एक सिफारिश करते हुए कहा था कि मेरे बजाय मेरे साथी कैदियों की रिहाई को मंजूर किया जाए। अब जब मंगलवार को वीर सावरकर की जयंती है तो उनके जीवन के बारे में कुछ प्रमुख बातें जानना जरुरी हैं।
वीर सावरकर का जन्म 28 मई के ही दिन साल 1883 में हुआ था । उनका जन्म भागपुर के नासिक गांव में हुआ था। उनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है। स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, वकील, समाज सुधारक और हिंदुत्व दर्शन के सूत्रधार सावरकर के पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर और माता का नाम यशोदा सावरकर है। सावरकर ने अपने माता-पिता को छोटी उम्र में ही खो दिया था। उनका जन्म एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके भाइयों का नाम गणेश, नारायण और बहन का नाम मैनाबाई था। सावरकर अपने बहादुरी के कारण ही लोगों के बीच वीर सावरकर के नाम से जाने जाते थे। सावरकर के बड़े भाई गणेश से विनायक काफी प्रभावित थे।
वीर सावरकर ने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेस से बीए की पढ़ाई की। लंदन से उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई की। इंग्लैड से ही उन्होंने लॉ की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिली और उन्होंने इंग्लैंड के ग्रेज इन लॉ कॉलेज में एडमिशन लिया। यहां उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ में शरण ली। बता दें कि यह उत्तरी लंदन का छात्र निवास था। लंदन में ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए एक संगठन फ्री इंडिया सोसाइटी का गठन किया था।
विनायक सावरकर ने पढ़ाई के दिनों से ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने का मन बना लिया था। इसके बाद वो स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेजों की नाक में उन्होंने इतना दम कर दिया था कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के कारण वीर सावरकर की ग्रेजुएशन की डिग्री वापस ले ली थी। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सावरकर हथियारों के इंस्तेमाल से भी पीछे नहीं हटे। 13 मार्च 1910 को उन्होंने लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाने के लिए भारत भेज दिया गया लेकिन सावरकर जहाज से निकल भागे हालांकि फ्रांस में उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद उन्हें 24 दिसंबर 1910 को अंडमान जेल भेजने की सजा सुनाई गई। उन्होंने जेल में बंद अनपढ़ कैदियों को शिक्षा देने की भी कोशिश की। मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या मामले में भारत सरकार द्वारा उन पर आरोप लगाया गया ।
वीर सावरकर ने ‘1857 के विद्रोह’ की तर्ज पर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध के बारे में सोचा। उन्होंने “द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस” नामक पुस्तक लिखी जिसने कई भारतीयों को आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया।
हालांकि इस किताब पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन इसने कई देशों में लोकप्रियता हासिल की। इतना ही नहीं, उन्होंने हाथ से बनाए जाने वाले बम और गुरिल्ला युद्ध भी बनाए और दोस्तों में बांटे। उन्होंने अपने मित्र मदन लाल ढींगरा को भी कानूनी सुरक्षा प्रदान की जो सर विलियम हट कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश भारतीय सेना अधिकारी की हत्या के मामले में आरोपी थे।
इस बीच भारत में वीर सावरकर के बड़े भाई ने ‘इंडियन काउंसिल एक्ट 1909’ जिसे मिंटो-मॉर्ले रिफॉर्म के नाम से भी जाना जाता है, के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया। इसके अलावा विरोध के साथ ब्रिटिश पुलिस ने दावा किया कि वीर सावरकर ने अपराध की साजिश रची थी और उनके खिलाफ वारंट जारी किया था।
गिरफ्तारी से बचने के लिए वीर सावरकर पेरिस भाग गए और वहां उन्होंने भीकाजी कामा के आवास पर शरण ली। 13 मार्च, 1910 को उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन फ्रांसीसी सरकार तब बुरा मान गयी जब ब्रिटिश अधिकारियों ने पेरिस में वीर सावरकर को गिरफ्तार करने के लिए उचित कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का स्थायी न्यायालय ब्रिटिश अधिकारियों और फ्रांसीसी सरकार के बीच विवाद को संभाल रहा था और 1911 में फैसला सुनाया। आपको बता दें कि वीर सावरकर के खिलाफ फैसला आया और उन्हें 50 साल की कैद की सजा सुनाई गई और वापस बंबई भेज दिया गया। बाद में उन्हें 4 जुलाई 1911 को अंडमान और निकोबार द्वीप ले जाया गया।
वहां उन्हें काला पानी के नाम से मशहूर ‘सेल्यूलर जेल’ में बंद कर दिया गया। जेल में उन्हें बहुत यातनाएं दी गईं लेकिन, उनकी राष्ट्रीय स्वतंत्रता की भावना जारी रही और उन्होंने वहां अपने साथी कैदियों को पढ़ाना-लिखाना सिखाना शुरू कर दिया। उन्होंने जेल में एक बुनियादी पुस्तकालय शुरू करने के लिए सरकार से अनुमति भी ली।
अपने जेल समय के दौरान उन्होंने एक वैचारिक पुस्तिका लिखी जिसे हिंदुत्व के नाम से जाना जाता है: हिंदू कौन है?’ और इसे सावरकर के समर्थकों ने प्रकाशित किया। पैम्फलेट में उन्होंने हिंदू को ‘भारतवर्ष’ (भारत) का देशभक्त और गौरवान्वित निवासी बताया और इससे कई हिंदू प्रभावित हुए। उन्होंने जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और हिंदू धर्म जैसे कई धर्मों को एक ही बताया। उनके अनुसार, ये सभी धर्म ‘अखंड भारत’ (संयुक्त भारत या बृहत् भारत) के निर्माण का समर्थन कर सकते हैं।
वह स्वयंभू नास्तिक थे. उन्हें हमेशा हिंदू होने पर गर्व था और उन्होंने इसे एक राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान बताया। 6 जनवरी, 1924 को सावरकर को जेल से रिहा कर दिया गया और उन्होंने ‘रत्नागिरी हिंदू सभा’ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संगठन का उद्देश्य हिंदुओं की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना था।
1937 में वीर सावरकर ‘हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष बने। दूसरी ओर उसी समय मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस शासन को ‘हिंदू राज’ घोषित कर दिया जिससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहले से ही बढ़ रहा तनाव और भी बदतर हो गया।
दूसरी ओर, हम इस बात को नज़रअंदाज नहीं कर सकते कि वीर सावरकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) और महात्मा गांधी के कट्टर आलोचक थे। उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का विरोध किया और बाद में कांग्रेस द्वारा भारतीय विभाजन को स्वीकार करने पर आपत्ति जताई। उन्होंने एक देश में दो राष्ट्रों के सह-अस्तित्व का प्रस्ताव रखा।
सावरकर के हिंदुत्व का मतलब हिंदू जीवन पद्धति और हिंदु सभ्यता में गर्व करने वाले लोग हैं। सावरकर के हिंदू राष्ट्र की अवरधारणा सप्त सिंधु में निवास करने वाले लोगों से है। सावरकर के हिंदुत्व में हिंदू वे हैं जिनकी पितृभूमि और पुण्य भूमि दोनों सप्त सिंधु यानी हिंदुस्तान में हो। जिनकी पितृभूमि सप्त सिंधु में है लेकिन पुण्य भूमि कहीं और उन्हें ये साबित करना होगा कि वे दोनों से किसे चुनेंगे, पितृभूमि या पुण्य भूमि। अगर पितृभूमि को चुनते हैं तो वे हिंदू राष्ट्र में है, अगर पुण्य भूमि को चुनते हैं तो फिर हिंदू नहीं।
सरल शब्दों में मुसलमानों की पितृभूमि यानी जन्मस्थल भले ही हिंदुस्तान हो लेकिन पुण्य भूमि हिन्दुस्तान के बाहर मक्का में है। वे हिंदुत्व की इस अवधाराणा से सवाल खड़ा कर रहे थे कि मुसलमान के सामने अगर चुनने का हक होगा तो क्या वे पितृभूमि को चुनेंगे या फिर पुण्य भूमि को। जबकि हिंदुओं, सिखों और बौद्धों की पितृभूमि और पुण्य भूमि दोनों हिदुस्तान है।
सावरकर इंग्लैंड में पढ़े थे। वे सोच से आधुनिक थे। अंडमान की सेलुलर जेल भेजे जाने तक वे सेकुलर थे। 1857 की क्रांति के मुस्लिम नायकों के भी मुरीद थे लेकिन अंडमान की सेलुलर जेल ने सावरकर की सोच और विचारों को बदल कर रख दिया। सावरकर दा ट्रू स्टोरी ऑफ दा फादर ऑफ हिंदुत्व में लिखा है कि सेलुलर जेल में अधिकतर कैदी हिंदू थे लेकिन उन पर निगरानी के लिए वार्डर से लेकर जेल गार्ड और ओहदेदार सिंधी बलूची तथा पठान मुस्लिम थे। हिंदुओं को ये जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। ये अंग्रेजो की रणनीति थी जेल में हिंदू बंदियों और क्रांतिकारियों को परेशान करने की।
सावरकर की बायोग्राफी समेत उनके जाीवन पर लिखी दूसरी पुस्तकों में लिखा कि कैसे जेल में धर्म के आधार पर भेदभाव और धार्मिक उत्पीड़न होने लगा। उत्पीड़न से बचने के लिए कैदी दबाव में धर्म परिवर्तन करने लगे। सावरकर ने इस भेदभाव और धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ जेल में आवाज उठाई और फिर सावरकर के विचार बदलने लगे। सावरकर को जब रत्नागिरी जेल मे शिफ्ट किया गया, तब वहां पर भी वैसी ही परिस्थितियां मिली। अंग्रेजों ने देश की अधिकतर जेल में हिदू मुस्लिम के बीच दरार के लिए ये रणनीति अपना रखी थी लेकिन जेल के सिर्फ ये अनुभव ही उनकी हिंदुत्व की इस अवधारणा के पीछे वजह नहीं थी। इसकी वजह और भी थी। आजादी के आंदोलन के वक्त मुस्लिमों की धर्म के आधार प्रतिनिधित्व की मांग और बढ़ता कट्टरवाद भी इसमें एक प्रमुख वजह थी। कुछ घटनाएं ऐसी थी जिनकी वजह से सावरकर को अपने ही देश में हिंदुओं की असुरक्षा की चिंता सताने लगी।
19वीं सदी की शुरुआत में हुआ था वहाबी आंदोलन। सर सैयद अहमद खान बरलेवी ने इसे शुरू किया था। इसका मकसद था भारत में दारुल उल इस्लाम यानी मुस्लिम शासन लागू करवाना। दारुल उल हर्ब यानी दुश्मन की टैरिटरी में मुस्लिम शासन व्यवस्था लागू करने की इस मुहिम को हैदराबाद के निजाम समेत कुछ मुस्लिम शासकों का समर्थन था। इससे हिंदू मुस्लिम के बीच खाई बढ़ने लगी। बिजनौर में कोर्ट ऑफिसर सैयद अहमद ने 1888 में पहली दफा टू नेशन थ्योरी की मांग रखी और कहा कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते है। अंग्रेजों के जाने के बाद मुस्लिमों के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट की मांग की गई।
1883 में आमिर अली ने मुस्लिमों के लिए अलग से प्रतिनिधित्व की मांग की। आमिर अली ग्लोबल इस्लामिक मूवमेंट का हिस्सा थे। उसका मकसद पैन इस्लामिज्म था। मुस्लिम खलीफा यानी टर्की के सुल्तान का हिंदुस्तान के मुस्लिमों से सबंध स्थापित करना यानी हिंदुस्तान के मुसलमानों की आस्था सुल्तान में व्यक्त करवाना।
1906 में आगा खान की अगुवाई में कुछ मुस्लिम धर्मगुओं ने वायसरॉय मिंटो से शिमला में भेंट की। इस मुलाकात में धर्म के आधार पर सिविल बॉडीज से लेकर लेजिस्लेटिव काउंसिंल में मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने की मांग रखी गई। लार्ड कर्जन ने इसी मांग को आधार पर बनाकर बंगाल का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया था।
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और उसने मुस्लिमों की इकलौती प्रतिनिधि होने का दावा कर दिया। फिर शौकत अली की अगुवाई में हुए खिलाफत आंदोलन ने भी सावरकर की हिंदु राष्ट्र की सोच को और बल दिया। इस आंदोलन का मकसद था खलीफा की बहाली और अरब जगत से हिंदुस्तान के मुसलमानों का संबध जोड़ना।
1921 में मालाबार तट के नजदीक रहने वाले मोपला मुस्लिम समुदाय के जिहाद के ऐलान ने सावरकर की हिंदू राष्ट्र की सोच को और मजबूत किया। मोपला विद्रोहियों ने 600 हिंदुओं की हत्या की और 2500 का धर्म परिवर्तन कराया। सावरकर खुद प्रेक्टिसिंग हिंदू नहीं थे, यानी वे न तो पूजा पाठ करते थे, न ही वर्णाश्रम धर्म की कठोरता से पालन के पक्षधर थे, न वे गौ पूजा के पक्ष में थे लेकिन एक राष्ट्र की उनकी परिकल्पना हिंदू राष्ट्र की थी यानी सप्त सिंधु हिंदुओं की भूमि है तो उस पर अधिकार और फैसलों का हक भी हिदुओं का हो।