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मां अर्थात ममता की बहती गंगा समान पवित्र धारा। मां… मां न जाने कितने रूपों में बुलाई- कहलाई जाती है। माता जी, महतारी, माई, मैया, ममा, माम, मम्मी, मदर, अम्मा, अम्मी… न जाने कितने नामों से वह पुकारी जाती है, मगर हर नाम में एक ही ममता है, एक सा प्रेम है, एक ही भावना है, माखन – मिश्री की तरह एक जैसी मिली हुई धारणा है, अपनापन है।
आखिर मां है क्या? क्यों दुनिया भर में मां का इतना डंका बजता है। मां या मातृ रूप में तो माताएं पूजी जाती हैं। माता दुर्गा, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, माता काली, माता शीतला, माता शारदा, माता संतोषी, माता खेरमाई, माता त्रिपुर सुंदरी… ना जाने कितने रूपों में मां पूजी जाती है। माता नाम से मन आनंदविभोर हो जाता है।
माता यानी जगतजननी, माता यानी  जन्मदायिनी। माता अपने आप में ब्रह्माण्ड की सृष्टि कर्ता है। माता न होती तो जगत नहीं होता। माता जगत की वाहिका है। नौ  महीने तक गर्भ में रखकर असह्य पीड़ा झेलकर बच्चे को जन्म देना मात्र मातृ शक्ति से ही संभव है। अपना हर दुख – सुख बगल में रखकर मात्र बच्चे को तरजीह देकर माता अपनी समर्पण भावना का परिचय देती है। मां बच्चे की सेविका है, दिन रात सुबह-शाम बच्चे की सेवा करती है। उसे रसपान कराती है।
उसकी साफ – सफाई करती है। उसे सुलाती है। जैसे – जैसे बच्चा बड़ा होता चला जाता है, वैसे – वैसे मां भी अपनी जिम्मेदारियों को बदलती चली जाती है। सेविका मां अब बच्चे की सखा भी बन जाती है। उसके साथ खेलती है, उसे घुमाती फिराती है। उसे अच्छा – बुरा समझाती है। उसे एक रास्ता दिखलाती है।
मगर थोड़े से होश सम्हालकर बच्चा जब अपनी उम्र के चार बच्चों से मिलता जुलता है तो मां अब उसे मां नजर नहीं आती है। सध गया सो सध गया, मगर जो सध नहीं  पाया, मां के प्राणों पर खतरा बनकर मंडराने लगता है। शराब पीता है, तरह – तरह के नशे करता है, पर स्त्री गमन करता है। मां के जगह बदल – बदलकर रखें हुए पैसों को चुराकर ले जाता है। मां घुट – घुटकर जिंदगी जीती है।
यही नहीं आजकल बहुत आम बात है कि पत्नी आने के बाद मां नौकरानी बन जाती है। मां बहू की  सेवा करती है। गिरती – उठती हुई घर के काम सम्हालती है। पोते – पोतियों की सेवा करती है। भर पेट भोजन भी उसे नहीं मिलता। वृद्धाश्रम चली जाती है, बेटे से छुटकारा पा लेती है, तो भी मन को सुकून नहीं मिलता।
भजन – कीर्तन में उसका मन नहीं लगता। वह जिंदगी को मन ही मन कोसती है, बस मौत का इंतजार करती हुई जिंदगी काटती है। हर मां हर परिस्थिति के अनुकूल ढल नहीं सकती। उसकी भावनाएं किसी के नियंत्रण में नहीं रहतीं। बच्चे जितने पढ़ रहे हैं, जितने आगे बढ़ रहे हैं, उतने ज्यादा फैशन के शौकीन बनते चले जा रहे हैं। बस स्टाइलिश जिंदगी जीना, न्यूक्लियर फैमिली में रहना पसंद करने लगे हैं। ओल्ड फैशन उनको पसंद नहीं आता।
और स्थिति दिन पर दिन भयंकर रूप लेती चली जा रही है। बेटों का आतंक बढ़ता चला जा रहा है। आज की तारीख में यह भारतीय समाज की सबसे बड़ी सच्चाई है कि मां लगभग रास्ते पर आ गई है। आज मां के साथ होने वाला अत्याचार सबसे बड़ा अत्याचार बनता चला जा रहा है। यह विषम स्थिति अत्यंत विषम न हो जाए, इससे पहले ही महात्माओं, सज्जनों, माता – पिताओं और सबसे ज्यादा युवाओं के बीच शांतिपूर्ण बहस छेड़े जाने की जरूरत है, ताकि हमारे देश में फिर से सभ्यता – संस्कृति की स्थापना हो।