अमेठी ने लोकतांत्रिक व्यवहार में बड़े बदलाव का संदेश दिया है

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 जब अंग्रेज इस देश को छोड़कर गए थे तो यूरोपीय राजनीतिक चिंतकों का कहना था कि भारत जल्दी ही टूटकर बिखर जायेगा क्योंकि ये एक राष्ट्र है ही नहीं । इसकी वजह यह थी कि उन्होंने यूरोप में एक नस्ल, एक भाषा और एक धर्म वाले राष्ट्रों को ही बनते देखा था इसलिए उनका मानना था कि भारत के लोगों की भाषा, धर्म और संस्कृति में इतनी विभिन्नताएं हैं कि ये एक देश के रूप में रह ही नहीं सकता लेकिन आजादी के 77 वर्षों बाद भी भारत मजबूती से खड़ा हुआ है । इसी प्रकार उनका कहना था कि भारत में लोकतंत्र स्थापित करना बन्दर के हाथ में बंदूक देना है लेकिन भारत की जनता ने लोकतंत्र की ताकत को पूरी दुनिया के सामने रख दिया है । इस देश का अनपढ़ मतदाता भी राजनीति की बेहतर समझ प्रदर्शित करता रहता है ।

 

 भारत की जनता की लोकतान्त्रिक समझ को इससे समझा जा सकता है कि वो लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय चुनावों में अलग-अलग मुद्दों के आधार पर वोट देती है ।  दिल्ली के 2014 और 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा सभी सात सीटें जीत जाती है लेकिन विधानसभा चुनावों में वो बुरी तरह से हार जाती है । केजरीवाल की आम आदमी पार्टी लोकसभा में खाली हाथ रह जाती है लेकिन विधानसभा में उसे जनता का भरपूर समर्थन मिलता है ।  पिछले दस सालों से दिल्ली की जनता यह संदेश दे रही है कि वो मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करती है लेकिन वहीं दूसरी तरफ कि वो मोदी के कट्टर विरोधी केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में पसंद करती है । इसी तरह 2018 में भाजपा को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बड़ी हार का सामना करना पड़ा लेकिन कुछ ही महीनों बाद हुए लोकसभा चुनावों में इन राज्यों की जनता ने लगभग सभी सीटें भाजपा की झोली में डाल दी । जनता ने दिखा दिया कि वो किसी की गुलाम नहीं है और वो अपनी समझ से वोट करती है । जनता ने दिखा दिया कि भारत में लोकतांत्रिक जड़ें बहुत मजबूत हैं ।

 

                   राहुल गांधी 2019 में दो जगह से लोकसभा चुनाव लड़े थे ।  जहां उन्हें केरल की वायनाड लोकसभा सीट पर जीत मिली लेकिन अपनी पुश्तैनी लोकसभा सीट अमेठी में उन्हें निराशा हाथ लगी। इसका अहसास उन्हें था कि अमेठी में उनकी हार हो सकती है इसलिए उन्होंने केरल की मुस्लिम बाहुल्य लोकसभा सीट  वायनाड से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया। इस बार भी वो दो लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन उन्होंने अपनी पिछली सीट अमेठी को जगह रायबरेली से चुनाव लड़ने का फैसला किया है। देखा जाए तो दो सीटों से चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं है लेकिन यह कांग्रेस की रणनीति हो सकती है कि गांधी परिवार का एक सदस्य यूपी से चुनाव जरूर लड़े । इसकी दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि इस बार वायनाड की जीत पर पूरा भरोसा नहीं है क्योंकि उनके सामने सीपीएम ने एक मजबूत उम्मीदवार खड़ा किया है । देखा जाये तो सीट बदलना कोई बड़ी बात नहीं है और ये कांग्रेस की रणनीति भी हो सकती है ।

 

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ अलग किस्म की है । यहां संसद और विधानसभा की कुछ सीटों ही पहचान किसी व्यक्ति या परिवार के प्रतिनिधित्व से लंबे समय तक की जाती रही है । ऐसी सीटों को पार्टी या नेता विशेष का गढ़ कहा जाता है । ऐसी सीटों में अमेठी और रायबरेली का भी नाम आता है और दोनों सीटों से गांधी परिवार की पहचान जुड़ी हुई है । इन दोनों सीटों पर ज्यादातर समय गांधी परिवार या इनके नजदीकी नेताओं का कब्जा रहा है । अमेठी से गांधी परिवार का रिश्ता मोतीलाल नेहरू से शुरू हो गया था क्योंकि उन्होंने इसे अपनी राजनीतिक गतिविधियों का  केंद्र बनाया था । 1999 में सोनिया गांधी ने यहां से चुनाव जीता लेकिन 2004 में उन्होंने राहुल गांधी को अपनी यह सीट दे दी और वो स्वयं रायबरेली से चुनाव लड़ने चली गईं । अमेठी से राहुल गांधी लगातार पन्द्रह साल तक सांसद रहे लेकिन 2019 में वो भाजपा नेत्री स्मृति ईरानी से चुनाव हार गए । रायबरेली से सोनिया गांधी  लगातार बीस साल तक सांसद रहीं लेकिन इस बार वो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रही हैं । कांग्रेस नेताओं और सोनिया गांधी को लगता है कि राहुल के लिए अमेठी की अपेक्षा रायबरेली ज्यादा सुरक्षित सीट है ।

 

             यह एक सच है कि राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं, चाहे वो किसी पद हों या न हों । कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है और उसने 55 साल देश पर राज किया है । मोदी को चुनौती देने का काम विपक्ष कांग्रेस के नेतृत्व में ही कर रहा है और कांग्रेस का नेतृत्व राहुल गांधी कर रहे हैं । ये एक बड़ा सवाल है कि जिस नेता पर मोदी को चुनौती देने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, उसी नेता के लिए सुरक्षित सीट की तलाश की जा रही है । सवाल यह भी है कि जिस नेता को अपनी एक सीट जीतने का पूरा भरोसा नहीं है, उस पर विपक्ष कैसे भरोसा कर सकता है । राहुल गांधी का अमेठी छोड़ना कोई सामान्य घटना नहीं है क्योंकि इस सीट ने ज्यादातर समय गांधी परिवार का साथ दिया है । अमेठी कांग्रेस के लिए कोई सामान्य सीट नहीं है बल्कि ये सीट गांधी परिवार की सत्ता का प्रतीक है । अमेठी छोड़ने का संदेश बहुत दूर तक जाने वाला है ।  सबसे बड़ा संदेश तो यह है कि राहुल गांधी ने बिना लड़े ही मोदी के एक सहयोगी नेता ने हार मान ली है । इसका दूसरा पहलू यह भी है कि अगर राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ कर जीत भी जाते तब भी यूपी  की राजनीति पर इसका कोई असर नहीं पड़ता । यूपी से कांग्रेस का तंबू उखड़ चुका है और दोबारा अपना तंबू गाड़ना राहुल गांधी जैसे नेता के बस का नहीं है । वास्तव में अमेठी छोड़कर राहुल गांधी ने पूरे देश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हताश और निराश कर दिया है । सेनापति के बिना लड़े मैदान छोड़ने का संदेश जा रहा है और ये संदेश सिर्फ कांग्रेस के लिए नहीं बल्कि पूरे इंडिया गठबंधन के लिए हताश करने वाला है । इससे यह संदेश जा रहा है कि विपक्ष का सबसे बड़ा नेता ही अपनी पारंपरिक सीट पर मोदी के एक नेता को मुकाबला नहीं कर पा रहा है तो फिर वो मोदी को कैसे चुनौती दे सकता है । मुझे लगता है कि राहुल गांधी ने अमेठी छोड़कर भाजपा के लिए यूपी की राह आसान कर दी है ।

 

              राहुल गांधी क्या संदेश दे रहे हैं और कांग्रेस क्या संदेश दे रही है, इससे भी अलग एक बड़ा मुद्दा है जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है । सबसे बड़ा संदेश तो अमेठी दे रही है और ये संदेश सिर्फ अमेठी नहीं बल्कि कई ऐसी सीटें दे रही हैं, जिन्हें किसी दल या नेता की पहचान बना दिया गया था । वास्तव में भारतीय मतदाता गुलाम मानसिकता से बाहर आ रहा है । हमारा देश लम्बे समय तक गुलाम रहा है और जनता में एक गुलाम मानसिकता पैदा हो गई है । अमेठी कह रही है कि अब जनता किसी की गुलाम नहीं रही है और वो किसी को मालिक नहीं समझती बल्कि वो ही असली मालिक है । जो नेता सच्चे मन से उसकी सेवा करेगा वो उसे ही सिंहासन पर बिठायेगी और जो उसकी उम्मीदें पूरी नहीं करेगा वो उसे रास्ते पर खड़ा कर देगी । राजतन्त्र में वंशवाद चलता है, लोकतंत्र में इसके लिए कोई जगह नहीं है । जनता विपक्षी दलों को लगातार यह संदेश दे रही है कि वंशवादी नेता संभल जायें अन्यथा जनता उन्हें उनकी औकात दिखा देगी । देश को आजादी दिलाने का दावा करने और 55 साल तक राज करने वाली कांग्रेस को एक चाय वाले ने विपक्ष में बैठने लायक भी नहीं छोड़ा है ।

 

मोदी कहते हैं कि वो कामदार हैं और कांग्रेस नेता नामदार हैं । जनता यह संदेश दे रही है कि वो सिर्फ कामदार के साथ खड़ी होगी । 2014 में हार के बावजूद स्मृति ईरानी ने अमेठी की जनता को नहीं छोड़ा और वो उनके बीच काम करती रही और जनता ने उन्हें 2019 में अपना नेता चुन लिया । इन दस सालों में स्मृति ईरानी को अमेठी की जनता दीदी के नाम से जानने लगी है और राहुल गांधी को भूल गई है । राहुल गांधी इतनी हिम्मत नहीं जुटा सके कि वो दोबारा अमेठी की जनता से वोट मांग सकें । वास्तव में अमेठी ने पूरे देश को यह संदेश दे दिया है कि लोकतंत्र में सिर्फ काम पर वोट मिलेगा, नाम पर वोट नहीं मिलेगा । कई दशकों तक अमेठी का प्रतिनिधित्व करने वाला गांधी परिवार अमेठी का विकास नहीं कर पाया और न ही जनता के दुख दर्द को समझ पाया । उसने अमेठी को पूरे देश में पहचान तो दिलाई लेकिन जनता को उससे कुछ हासिल  नहीं हुआ । उन्हें एक ऐसी नेता मिली जो उनके बीच रहकर उनके दुख दर्द दूर करने की कोशिश कर रही है और जनता को लोकतंत्र का मतलब समझा रही है । यही कारण है कि गांधी परिवार का वारिस वहां जाने से डर गया है । इस डर का नाम ही लोकतंत्र है क्योंकि लोकतंत्र में शासक को जनता से डरना चाहिए ।