किसी भी देश की उन्नति वहां के समाज पर निर्भर है। पुरूष और स्त्री समाज के आवश्यक अंग हैं। एक के अभाव में दूसरे का विकास सम्भव नहीं है। वर्तमान विकासशील भारत में महिलाओं की जनसंख्या भी करीब-करीब पुरूषों के बराबर है। अत: हमारे देश का सामाजिक विकास महिलाओं के मानसिक परिवर्तन से ही हो सकता है। क्योंकि देश के विकास में महिलाओं को भी मानसिक रूप से विकसित होकर विकास में भागीदार बनना उतना ही आवश्यक है जितना पुरूषों का। यदि समाज उनको लेकर आगे नहीं चला तो देश की चौमुखी उन्नति नहीं हो सकेगी। अत: महिलाओं में शिक्षा के प्रचार व प्रसार द्वारा उनकी प्राचीन रूढ़ियों व अन्धविश्वासों के प्रति आस्था को उखाड़ना होगा।
महिलाओं के लिए अधिकांश विचारकों ने बताया है कि नारी पुरूष की शिक्षिका है। पत्नी और माता अपना जो आदर्श निश्चित करती है उसी से परिवार तथा समाज के भाग्य का निर्माण होता है। विशेषताओं के होते हुए हमारे देश में महिलाओं में कुछ सामाजिक बुराईयां घर कर चुकी हैं।
भारत माता ग्रामवासिनी भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है। ग्रामीण महिलाएं सही रूप में शिक्षा की कमी के कारण भयंकर रूप से परम्परागत रूढ़ियों में जकड़ी हुई हैं। उन्हें छोड़ने में वे सामाजिक भय महसूस करती हैं। इस प्रकार के संकुचित दायरे में पिछड़ी महिलाओं को आगे लाना हम सभी का ही कर्तव्य है। इस कार्य के लिए सरकारी संस्थाएं, सामाजिक संस्थान व जन सहयोग का होना अति आवश्यक है। सर्वप्रथम महिलाएं छुआछूत एवं जातिवाद के विचारों में परिवर्तन लायें तो देश में सामाजिक एकता व अखण्डता आ सकती है। जातिवाद की संकीर्ण दीवारों में देश विभक्त हो रहा है। ऐसी संकीर्ण मनोवृत्ति देश की उन्नति में बाधक सिद्घ हो रही है। महिलाओं के मानसिक बदलाव से छुआछूत एवं जातिवाद का अन्त हो सकता है। यह तभी होगा जब उनका शिक्षा के द्वारा मानसिक विकास किया जाय। प्राचीन परम्पराएं तथा अन्धविश्वास हमें कई गलत परम्पराएं अपनाने को विवश करते हैं। गांधीजी ने इसको अनुभव किया व उन्हें दूर करने के लिए भरसक प्रयत्न किये।
इसके अतिरिक्त बाल विवाह भी एक रूढ़ि है। समाज में ऋतुधर्म से पहिले लड़कियों की शादी शुभ मानते हैं। इससे छोटी लड़कियां पारिवारिक उत्तरदायित्व को सम्भालने में असमर्थ रहती है। स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे भी दुर्बल होते हैं इससे उनके व्यक्तित्व का पूर्णरूपेण विकास नहीं हो पाता। छोटी आयु में सन्तानोत्पत्ति से महिलाओं की मृत्यु दर भी अधिक होती है अत: महिलाओं को आगे आकर बाल विवाह का विरोध करना होगा। बाल विवाह से महिलाओं की शिक्षा में बाधा पड़ती है। इससे शिक्षा का अवसर भी कम मिल पाता है।
जाति व्यवस्था के कठोर नियम व नियंत्रणों के कारण विधवा विवाह पर भी बंधन है। कन्यादान के आदर्शों एवं अन्धविश्वासों में जकड़ा समाज इसे भाग्यवादिता का कारण समझता हैं।
इससे उन महिलाओं का जीवन बड़ा ही दूभर हो जाता है जो छोटी उम्र में विधवा हो जाती हैं। उन्हें पराश्रित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। युवा पीढ़ी इस अन्धविश्वास के प्रति विद्रोह करना चाहती है परन्तु सामाजिक बंधन एवं भय उन्हें इसके लिए रोकता है। अत: सम्पूर्ण समाज में इस कुप्रथा के प्रति मानस बनाना चाहिए। उनका मस्तिष्क विकसित करना चाहिए। बढ़ते हुए इस युग में महिलाओं का मानसिक विकास का होना अति आवश्यक है। जब पुरूषों को पुर्नविवाह का अधिकार है तो महिलाओं को क्यों नहीं। सामाजिक बदलाव व रूढ़ियों के प्रति मानसिक बदलाव खासकर उन महिलाओं के लिए जो पिछड़े वर्ग की है करना बहुत आवश्यक हो गया है। सभी महिलाओं को एकजुट होकर अर्न्तजातीय विवाह, विधवा विवाह, स्वतंत्र चुनाव का समर्थन करना चाहिए एवं बाल विवाह व दहेज प्रथा पर कड़ा प्रतिबंध कानून के साथ-साथ सामाजिक बदलाव द्वारा भावनात्मक परिवर्तनों द्वारा किया जाना चाहिए। सरकार ने संविधान द्वारा पारित कर दिया है कि दहेज लेना व देना अपराध है फिर भी लोग दहेज ले रहे हैं। समाज में जब तक इस प्रथा के विरोध हेतु आन्तरिक चेतना पैदा नहीं होगी तब तक हम इस घोर अपराध से मुक्त नहीं हो सकेंगे।
यह काम महिलाओं के मानसिक बदलाव द्वारा ही सम्भव हो सकता है। जागरण, चेतना और विकास के इस युग में महिलाओं के भाग्य को करवट लेना है। नारी का पुरूष के साथ बराबरी का नाता तभी सार्थक हो सकता है जब दोनों का समान विकास, शान्ति व सुख जुटाने में सहयोग दें। भारतीय संस्कृति में महिलाओं का उच्च स्थान है। अत: भारतीय महिलाओं को उच्च आदर्श सामने रखकर अपने स्वरूप की प्रतिष्ठा बनाये रखनी चाहिए।