नारायणपुर (असम), अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटे असम के लखीमपुर जिले में कई सालों से छोटे चाय उत्पादकों की एक ही मांग रही है। ये लोग जमीन पर अपना अधिकार चाहते हैं। हर सरकार के समक्ष यही मुद्दा उठाने वाले इन चाय उत्पादकों की इस बार भी यही मांग है।
यहां सरकारें आईं-गईं, लेकिन इन चाय उत्पादकों की मांग अधूरी ही रही। जब भी चुनाव होते हैं, चाय उत्पादकों को उम्मीद रहती है कि शायद इस बार नयी सरकार उनकी यह मांग पूरी कर दे।
लखीमपुर जिला लघु चाय उत्पादक संघ के सलाहकार जतिन चंद्र बोरा ने कहा, ”यहां चाय की खेती वाले अधिकतर क्षेत्र आदिवासी पट्टी में आते हैं इसलिये हमें जमीन का आवंटन नहीं किया गया। हम सरकार से हर बार अनुरोध करते हैं कि या तो क्षेत्र को गैर-अधिसूचित किया जाए या फिर हमें भूमि आवंटित करने का प्रावधान किया जाए क्योंकि इस हिस्से में आदिवासी आबादी 10 प्रतिशत भी नहीं है।”
उन्होंने लखीमपुर के पश्चिमी भाग में भोलाबाड़ी, ढालपुर, राजगढ़, रंगोती और सिमोज्लुगुरी पंचायतों का विशेष रूप से जिक्र करते हुए कहा कि अर्थशास्त्र और सांख्यिकी के उप निदेशक के कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार इन पंचायतों की कुल आबादी 48,006 है, जिनमें से 8,096 आदिवासी हैं जो 8 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं।
उन्होंने कहा कि चूंकि यह पूरा इलाका संरक्षित आदिवासी पट्टी के अंतर्गत आता है, इसलिये जो आदिवासी नहीं हैं, उन्हें भूमि का आवंटन करना संभव नहीं है।
लघु चाय उत्पादकों के संगठन की स्थानीय इकाई के अध्यक्ष ज्योति प्रसाद हजारिका ने दावा किया कि यह क्षेत्र आदिवासी पट्टी के अंतर्गत आता है अत: पहले सरकार ने उन्हें अस्थायी आवंटन और कुछ सीमित लाभ प्रदान किए थे।
उन्होंने बताया कि साल 2008 में भूमि सलाहकार बोर्ड ने अस्थायी आधार पर कई छोटे उत्पादकों को 20 बीघा जमीन आवंटित की थी। हमने ‘खजाना’ (भूमि राजस्व) का भुगतान तब तक किया जब तक प्रशासन ने कुछ साल पहले इसे लेना बंद नहीं कर दिया।
हजारिका ने दावा किया ‘‘आदिवासी पट्टी के तहत सुरक्षा पहले भी थी लेकिन 2019 के बाद से सख्ती अधिक हो गई है और हमारे पास खेती की जमीन पर या अब तक इस्तेमाल किए जाने वाले दस्तावेजों के आधार पर भी किसी तरह का अधिकार नहीं रहा।’’
एक अन्य स्थानीय छोटे चाय उत्पादक भाबेन बोरा ने कहा, “चूंकि इस क्षेत्र में आदिवासी आबादी बहुत कम है इसलिए सरकार जमीन को गैर-अधिसूचित करने का निर्णय ले सकती है ताकि मूल निवासियों और गैर-आदिवासी लोगों को इसका लाभ मिल सके।”
उन्होंने कहा कि छोटे उत्पादकों के नाम पर जमीन का पट्टा तक नहीं है ऐसे में वे ‘टी बोर्ड ऑफ इंडिया’ और यहां तक कि राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ भी नहीं ले पा रहे हैं।
उन्होंने जिला अधिकारियों के साथ कई बार इस विषय पर चर्चा की है और मुख्यमंत्रियों को ज्ञापन सौंपा गया है, लेकिन फिर भी कोई कदम नहीं उठाए गये।
जतिन बोरा ने कहा, “इस जनवरी में भी हमने राजस्व मंत्री के समक्ष अपनी मांग रखी है और हमें उम्मीद है कि इस बार हमें कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल सकती है। ’’
उन्होंने कहा कि लखीमपुर जिले के अलावा सोनितपुर और धेमाजी जिलों के सीमावर्ती हिस्सों में कई छोटे चाय उत्पादकों को भी भूमि आवंटन की ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ता है क्योंकि अधिकतर भूमि क्षेत्र आदिवासी पट्टी के अंतर्गत आता है।
मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने फरवरी में कहा था कि सरकार को पता है कि अधिकांश भूमि क्षेत्र आदिवासी पट्टी के अतंर्गत आने के कारण मूल निवासियों और गैर-आदिवासी समुदायों को जमीन का अधिकार नहीं मिल पाता है।
उन्होंने कहा कि वर्तमान सरकार इस समस्या को कम करने की कोशिश कर रही है।
राज्य में लखीमपुर सहित 48 आदिवासी पट्टी और प्रखंड हैं।
‘‘टी बोर्ड ऑफ इंडिया’’ के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 1,25,484 छोटे चाय उत्पादक हैं जिनके पास 1,17,304 हेक्टेयर भूमि है। राज्य में सालाना कुल चाय उत्पादन में उनका योगदान करीब 48 फीसदी है।