आजकल कच्छ तीवु द्वीप आम चर्चा में है। वस्तुतः कच्छ तीवु एक बहुत छोटा सा, भारत और श्रीलंका के मध्य स्थित टापू है जिसका जिक्र पचास वर्ष बाद आजकल दक्षिण, विशेषरूप से तमिलनाडु के चुनावों में आम चर्चा का विषय बन चुका है। हमें पढाया जाता है कि भारत एक विशाल देश था। कभी कभी हमारे सामने किसी प्रकाशन का अखण्ड भारत मानचित्र भी आ जाता है जिसे देख कर आँख में आंसू आ जाते हैं कि हमारा देश किस तरह लगातार सिकुड़ता जा रहा है। बचे खुचे देश को भी स्वतन्त्रता के समय पाकिस्तान जिसमें से पूर्वी पाकिस्तान को जो बाद में टूटकर बंगलादेश भी बना, पीओके के साथ दे दिया गया, किस तरह म्यांमार को अंडमान नीकोबार द्वीप समूह का उत्तरी द्वीप कोको उसके नजदीक होने के कारण दे दिया गया जिसे बाद में म्यांमार द्वारा चीन को सौंप कर हमारे लिए एक स्थायी सिरदर्द पैदा कर दिया गया, तिब्बत जो कश्मीर राज्य का अधीन राज्य था, को चीन को कब्जाने दिया गया फिर उसे मान्यता भी दे दी गयी तथा अक्षय चिन पर लद्दाख में कब्जा करने दिया गया और इसी क्रम में श्रीलंका को कच्छ तीवु द्वीप को भी दे दिया गया। स्पष्ट करता है कि किस तरह हमारे शासकों ने देश को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझकर लुटाया है। तभी भारत आज इतना सिकुड़ा सिमटा नजर आ रहा है।
शायद कच्छ तीवु जैसे छोटे से द्वीप की बात चुनाव तक ही सीमित नहीं रहने वाली है। शायद आगे बढ़ेगी लेकिन पीओके तो हमें चाहिए ही। जिस लेह लद्दाख और अरुणाचल पर चीन नजरें गड़ाए बैठा है, ये हमारे अभिन्न अंग हैं। बड़े अंग भंग हुए अतीत में, आगे एक इंच भूमि भी न जाए, यह दायित्व आने वाले कर्णधारों को उठाना ही पड़ेगा। भारतवर्ष के सम्मान और स्वाभिमान पर तो राजनीति किसी भी दशा में नहीं होनी चाहिए। राजनीति को राष्ट्रीय प्रश्नों पर साथ खड़े होने की आदत जब तक नहीं डाली जायगी, देश सिकुड़ता ही जाएगा।
कच्छतीवु भारत के रामेश्वरम और श्रीलंका की मुख्य भूमि के बीच एक छोटा सा द्वीप है। इस द्वीप को वापस लेने के लिए लगातार मांगें उठती रहती है। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि भारत ने इस द्वीप को सरेंडर कर दिया था। आइए अब विस्तार से समझते हैं कि कच्छतीवु द्वीप का पूरा प्रकरण आखिर है क्या?।
श्रीलंका के उत्तरी तट और भारत के दक्षिण-पूर्वी तट के बीच एक जलडमरूमध्य क्षेत्र है। इस जलडमरूमध्य का नाम रॉबर्ट पाल्क के नाम पर रखा गया था जो 1755 से 1763 तक मद्रास प्रांत का गवर्नर था। पाक जल डमरूमध्य को समुद्र नहीं कहा जा सकता। मूंगे की चट्टानों और रेतीली चट्टानों की प्रचुरता के कारण बड़े जहाज़ इस क्षेत्र से नहीं जा सकते।
कच्छतीवु बंगाल की खाड़ी को अरब सागर से जोड़ता है। कच्छतीवु द्वीप इसी पाक जलडमरूमध्य में स्थित है। ये भारत के रामेश्वरम से 12 मील और जाफना के नेदुंडी से 10.5 मील दूर है। इसका क्षेत्रफल लगभग 285 एकड़ है। इसकी अधिकतम चौड़ाई 300 मीटर है। सेंट एंटनी चर्च भी इसी निर्जन द्वीप पर स्थित है। हर साल फरवरी-मार्च के महीने में यहां एक हफ़्ते तक पूजा-अर्चना होती है। 1983 में श्रीलंका के गृह युद्ध के दौरान ये पूजा-अर्चना बाधित हो गई थी। ‘द गज़ेटियर’ के अनुसार, 20वीं सदी की शुरुआत में रामनाथपुरम के सीनिकुप्पन पदयाची ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया था और थंगाची मठ के एक पुजारी इस मंदिर में पूजा करते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने इस द्वीप पर कब्ज़ा कर लिया। भारत और श्रीलंका के बीच इसे लेकर विवाद है। साल 1976 तक भारत इस पर दावा करता था और उस वक़्त ये श्रीलंका के अधीन था।
साल 1974 से 1976 की अवधि के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने श्रीलंका की तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमाव भंडारनायके के साथ चार सामुद्रिक सीमा समझौते पर दस्तखत किए थे। इन्हीं समझौतों के फलस्वरूप कच्छतीवु श्रीलंका के अधीन चला गया लेकिन तमिलनाडु की सरकार ने इस समझौते को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और ये मांग की थी कि कच्छतीवु को श्रीलंका से वापस लिया जाए।
वर्ष 1991 में तमिलनाडु विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया और कच्छतीवु को वापस भारत में शामिल किए जाने की मांग दोहराई गई। कच्छतीवु को लेकर तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच का विवाद केवल विधानसभा प्रस्तावों तक ही सीमित नहीं रहा। वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने कच्छतीवु को लेकर केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट तक घसीटा। उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कच्छतीवु समझौते को निरस्त किए जाने की मांग की। जयललिता सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से श्रीलंका और भारत के बीच हुए उन दो समझौतों को असंवैधानिक ठहराए जाने की मांग की जिसके तहत कच्छतीवु को तोहफे में दे दिया गया है।
ये दलील दी जाती रही है कि कच्छतीवु साल 1974 तक भारत का हिस्सा था और ये रामनाथपुरम के राजा की जमींदारी के तहत आता था. रामनाथपुरम के राजा को कच्छतीवु का नियंत्रण 1902 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार से मिला था। मालगुजारी के रूप में रामनाथपुरम के राजा जो पेशकश (किराया) भरते थे, उसके हिसाब-किताब में कच्छतीवु द्वीप भी शामिल था। रामनाथपुरम के राजा ने द्वीप के चारों ओर मछली पकड़ने का अधिकार, द्वीप पर पशु चराने का अधिकार और अन्य उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग करने का अधिकार पट्टे पर दिया था।
इससे पहले जुलाई, 1880 में, मोहम्मद अब्दुलकादिर मराइकेयर और मुथुचामी पिल्लई और रामनाथपुरम के जिला डिप्टी कलेक्टर एडवर्ड टर्नर के बीच एक पट्टे पर दस्तखत हुए। पट्टे के तहत डाई के निर्माण के लिए 70 गांवों और 11 द्वीपों से जड़ें इकट्ठा करने का अधिकार दिया गया। उन 11 द्वीपों में से कच्छतीवु द्वीप भी एक था। इसी तरह का एक और पट्टा 1885 में भी बना। साल 1913 में रामनाथपुरम के राजा और भारत सरकार के राज्य सचिव के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस पट्टे में कच्छतीवु का नाम भी शामिल था। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत और श्रीलंका दोनों पर शासन करने वाली ब्रितानी हुकूमत ने कच्छतीवु को भारत के हिस्से के रूप में मान्यता दी लेकिन इसे श्रीलंका का हिस्सा नहीं माना।
चुनावी सभाओं में पीएम मोदी ने कच्छ तीवु को बार बार उठाकर कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया है। मजेदार बात यह है कि उपहार में दिए गए भारतीय द्वीप के बारे में दोनों सरकारों के बीच कभी कोई चर्चा तक नहीं हुई है। श्रीलंका सरकार भी द्वीप के चुनाव में उछलने को लेकर हैरान है जबकि तमिलनाडु में राज्य बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई ने कच्छ तीवु को चुनावी मुद्दा बनाकर डीएमके को परेशानी में डाल दिया है जो कांग्रेस के साथ इंडी गठबंधन में सम्मिलित है।
स्मरणीय है कि कांग्रेस पार्टी पर पहले ही तिब्बत गंवाने का बड़ा आरोप चला आ रहा है। 1947 में पाकिस्तान के साथ पीओके, म्यांमार को कोको द्वीप देने, 1962 में चीन के साथ युद्ध के दौरान भारत की एक लाख चवालीस हजार हैक्टेयर भूमि गंवा चुके हैं। जाहिर है कच्छ तीवु पर विवाद के समय पुराना इतिहास फिर दोहराया जाएगा। समय चुनाव का है इसलिए यह मुद्दा कम से कम चुनाव भर तो बार बार उठाया जाता रहेगा।