पौराणिक मान्यतानुसार देवी भगवती के षष्टम स्वरूप देवी कात्यायनी महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इनकी पूजा-अर्चना की थी। इसलिए यह कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। अमोध फलदायिनी माता कात्यायनी स्वरूप की पूजा -उपासना नवरात्र के छठे दिन किए जाने की पौराणिक परिपाटी है, जिन्होंने अपनी कठिन तपस्या से भगवान विष्णु को प्राप्त किया था। इस वर्ष 2024 में वासन्तीय नवरात्रि का छठा दिन 14 अप्रैल दिन रविवार को पड़ने के कारण इस दिन भगवती दुर्गा के छठे स्वरूप कात्यायनी की पूजा- अर्चना की जाएगी।
इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक भक्त माता कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। पूर्ण आत्मदान करने वाले भक्त को सहजभाव से माता कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। और इस लोक में रहते हुए भी वह अलौकिक तेज से युक्त होता है। कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। भक्तों के रोग, शोक, संताप, भय और जन्म -जन्मांतर के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि आज्ञा चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का छठा चक्र है। चक्रों में आज्ञाचक्र का स्थान सर्वोपरि है। अन्तः अथवा बाह्य किसी भी केंद्रविंदु पर एकाग्रचित होकर ध्यान किया जाए, वह तल्लीनता के स्तर के अनुसार कम अथवा ज्यादा अवश्य ही प्रभावित होता है। इसलिए साधना, योग अभ्यासों में चक्र जागरण के क्रम में सबसे पहले उसे जागृत करने का विधान हैं। अंतर्ज्ञान, कल्पना और ज्ञान से जुड़ा यह चक्र चीजों को स्पष्ट रूप से देखने और अंतर्ज्ञान के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता का केंद्र है। ज्योतिष मान्यतानुसार आज्ञाचक्र बृहस्पति का केंद्र है। इसे गुरु का प्रतीक प्रतिनिधि माना गया है। बृहस्पति देवताओं के गुरु है। इसलिए इसे गुरुचक्र के नाम से भी जाना जाता है। इसका आज्ञाचक्र नाम क्रियामूलक है। ध्यान करने से आज्ञा चक्र होने का आभाष होता है। आज्ञा का अर्थ आदेश होता है। आदेश सदैव ही स्वामी अथवा नियन्ता की ओर से आता है। इस दृष्टि से यह सम्पूर्ण चक्र संस्थान का नियंत्रणकर्ता हो जाता है। आज्ञा चक्र मस्तिष्क के मध्य में भौंहों के बीच स्थित है। इसलिए इसे तीसरा नेत्र भी कहा जाता है। तीसरी आंख चक्र (अजन) भौतिक शरीर का हिस्सा नहीं है लेकिन इसे प्राणिक प्रणाली का हिस्सा माना जाता है। यह वह पवित्र स्थान है, जहां लोग तिलक, चन्दन या कुमकुम लगाते तथा स्त्रियां जहां बिन्दी अथवा सिन्दूर का टीका प्रयोग करती है।
अजना चक्र पीनियल ग्रंथि के अनुरूप है। आज्ञा चक्र स्पष्टता और बुद्धि का केन्द्र है। यह तीन प्रमुख नाडिय़ों, इडा अर्थात चंद्र नाड़ी, पिंगला अर्थात सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना अर्थात केन्द्रीय, मध्य नाड़ी के मिलने का स्थान है। जब इन तीनों नाडिय़ों की ऊर्जा का मिलन यहां होता है और आगे उठती है, तब साधक को समाधि अवस्था की सर्वोच्च चेतना प्राप्त होती है। आज्ञा चक्र दो पंखुडिय़ों वाला एक कमल है, जो इस बात का परिचायक है कि चेतना के इस स्तर पर केवल दो- आत्मा और परमात्मा ही हैं, अन्य कोई नहीं। जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय होती है, वह व्यक्ति बौद्धिक रूप से अधिक संपन्न, संवेदनशील और तेज मस्तिष्क का बन जाता है लेकिन सब कुछ जानने के बाद भी वह मौन रहता है। इसे ही बौद्धिक सिद्धि कहा जाता हैं। इसका एक नाम ज्ञान अथवा दिव्य चक्षु है। गोचर ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण आधार स्थूल नेत्र हैं। इनसे ही भौतिक जगत की आकृति, प्रकृति और स्वरूप का दिग्दर्शन किया जा सकता है लेकिन सूक्ष्म जगत अथवा नतः प्रकृति को जान पाना इनकी सामर्थ्य से परे है। इस गहराई में उतर पाने की क्षमता सिर्फ दिव्य चक्षु में ही है। इसके माध्यम से ही व्यक्ति के चेतना के सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय आयाम में पहुंचने के कारण इसको अलौकिक या अतीन्द्रिय नेत्र भी कहा जाता है।
व्यक्ति की ऊर्जा आज्ञा में सक्रिय होने अर्थात आज्ञा चक्र तक पहुंच जाने का अर्थ है- बौद्धिक स्तर पर सिद्धि पा लेना। बौद्धिक सिद्धि शांति और स्थिरता प्रदान करती है। आस- पास होने वाली घटनाओं और विभिन्न परिस्थितियों का व्यक्ति पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। इस चक्र का मंत्र होता है-ॐ। आज्ञा-चक्र के स्थान दोनों भौहों के मध्य अर्थात भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। गोलाकार आकृति दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दिखलाई देने लगते हैं, और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। साथ ही मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है, जिससे असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेने की क्षमता आ जाती है। मनुष्य के अन्दर आज्ञा चक्र के जागृत हो जाने से मनुष्य के अंदर निवास करने वाली अपार शक्तियां और सिद्धियां जाग पड़ती हैं और वह मनुष्य एक सिद्धपुरुष बन जाता है। इसलिए आज्ञा चक्र का ध्यान लगाने से शरीर में एक विशेष चुम्बकीय उर्जा का निर्माण होने लगता है और उस उर्जा से हमारे अन्दर के दुर्गुण ख़त्म होकर, आपार एकाग्रता की प्राप्ति होने लगती है। विचारों में दृढ़ता और दृष्टि में चमक पैदा होने लगती है। आज्ञाचक्र केन्द्रविन्दु में सिमटकर अवस्थित होने पर अन्तर्ज्योति दिखाई पड़ने के साथ -साथ अन्तर्ध्वनि भी सुनाई पड़ने लग जाती है। वह अन्तर्ध्वनि मानो साधक के लिए ब्रह्मांड में आ जाने की प्रभु – आज्ञा का शब्द हो, क्योंकि अन्तर्ज्योति – सह अन्तर्ध्वनि प्रत्यक्ष हो जाने पर साधक को ब्रह्मांड में प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । छठवें चक्र को हठयोगियों – द्वारा आज्ञाचक्र कहने का यही कारण है।
इस चक्र के देवता रुद्र और गणेश हैं। शंकर को त्र्यम्बकं कहा गया है। उन्हें तृतीय नेत्र प्राप्त कहा गया है। शिव और दुर्गा की प्रतिमाओं में इस तीसरे नेत्र का चित्रण किए जाने के पीछे एक उच्चस्तरीय तत्त्वदर्शन है। तीसरी आंख अर्थात दूरदर्शिता। अधिकांश लोग अदूरदर्शी होते है। अत्यल्प लाभ के लिए अवांछनीय कार्य करने और मर्यादाएं तोड़ने के लिए उद्यत रहते हैं। और परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले दुष्परिणाम चीर काल तक भुगतते रहते हैं। दूरदर्शिता मनुष्य को कृषक, विद्यार्थी, माली, पहलवान, व्यापारी आदि के समान बुद्धिमान बनाती है, जो आरंभ में तो कष्ट सहते हैं, परंतु पीछे महत्वपूर्ण लाभ उठाते है। यह दूरदर्शिता किसी को उपलब्ध हो जाने पर वह जीवन सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की योजना बना सकता है, और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाकर धन्य हो सकता है।
पौराणिक मान्यताओं में माता कात्यायनी दिव्यता के अति गुप्त रहस्यों की प्रतीक मानी गई हैं। इंद्रियों से अनुभव नहीं किए जा सकने योग्य कल्पना से परे व विशाल अदृश्य, अव्यक्त सूक्ष्म जगत की सत्ता माता कात्यायनी चलाती हैं। वह अपने इस रूप में उन सब की सूचक हैं जो अदृश्य अथवा समझ के परे है। कात्यायनी दिव्यता के अति गुप्त रहस्यों की प्रतीक हैं। अज्ञान, अन्याय के प्रति सकारात्मक क्रोध माता कात्यायनी का प्रतीक है। ऐसी मान्यता है कि भीषण बाढ़, भयंकर भूकंप, भयानक तूफान आदि प्रकृति के प्रकोप अर्थात प्राकृतिक आपदाएं माता कात्यायनी से सम्बन्धित हैं। सभी प्राकृतिक विपदाओं का सम्बन्ध माता के दिव्य कात्यायनी रूप से है। वह सृष्टि में सृजनता, सत्य और धर्म की स्थापना करने वाली क्रोध के रूप का प्रतीक है। माता का दिव्य कात्यायनी रूप अव्यक्त के सूक्ष्म जगत में नकारात्मकता का विनाश कर धर्म की स्थापना करता है। माता कात्यायनी क्रोध का रूप सब प्रकार की नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। कणों के निर्माण के बाद उनके आकर्षण से संकोचन प्रारंभ होता है। इसलिए कात्यायिनी का विकार संकोचन का विकार होता है। वह जब काल और समय में प्रवेश करेगी तो आण्विक ऊर्जा बनती है। अन्य मान्यतानुसार देवी का छठा स्वरुप कात्यायनी के रूप में वही भगवती माता-पिता की कन्या हैं। देवी कात्यायनी को आयुर्वेद में अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका आदि कई नामों से जाना जाता है। कात्यायनी को मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है। माता कात्यायनी का गुण शोधकार्य है।