आज की शिक्षा प्रणाली और उसमें व्यापक सुधार की गुंजाइश पर विगत दिवस एक कार्यशाला में जाने का अवसर मिला। इस कार्यशाला में भागीदारी करने वाले जितने भी सज्जन थे किसी ना किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़े हुए थे।
उनके द्वारा जो भी बातचीत निकलकर आई उसमें व्यापक सुधार की गुंजाइश की कम, अपनी पार्टी के विचारों को सम्बल देना अधिक था जो कि अत्यधिक खतरनाक था।
जब उस कार्यशाला में मेरी भागीदारी का अवसर आया, उस कार्यशाला में छात्र भी मौजूद थे, तब मैंने कहा- आज की शिक्षा तेजी से भागने वाली है। प्रतियोगिता से भरी हुई है। कोई प्रथम आने के लिए भाग रहा है और कोई प्रथम में भी विशेष योग्यता लाना चाह रहा है। इस दौड़ को छात्र के परिवार वाले प्रोत्साहित कर रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे घुड़ दौड़ में दर्शक घोड़े को दौडऩे के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
कोई प्रथम आता है और कोई द्वितीय और कोई तृतीय। दुर्भाग्यशाली असफल भी हो जाते हैं। विशेष योग्यता वाले से प्रथम आने वाला अपने को हीन समझता है। प्रथम आने वाले से द्वितीय आने वाला स्वयम्ï को हीन समझता है और तृतीय आने वाला तो बेचारा शर्मसार होकर बैठा रहता है।
जो असफल हो जाते हैं उन पर परिवार और परिचितों की मार पड़ती है और शाला के शिक्षकों की प्रताडऩा और ताने सुनना उनकी नियति होती है। पूरे वर्ष भर वह छात्र नए छात्रों के मध्य स्वयम्ï को अपरिचित-सा अनुभव करता है। परिणामस्वरूप उसमें उपजती है कुंठा, तनाव और अपनी पहचान बनाने की लालसा। शार्टकट से पहचान बनाने की लालसा उन्हें धकेल देतीे है अपराध जगत के दलदल में।Ó
तब एक छात्र ने प्रश्न किया- तो क्या परीक्षाओं में प्रतियोगिता नहीं होना चाहिए?
कोई भी प्रतियोगिता किसी ना किसी को पीछे धकेलने का कार्य करती है। प्रतियोगिता हो तो वह विषय ज्ञान के अतिरिक्त जीवन ज्ञान को समझने की भी होना चाहिए।
जो प्रथम आया या जिसने विशेष योग्यता अर्जित कर ली उसके पास क्या है? केवल पुस्तक ज्ञान जो अत्यधिक खतरनाक बात है। जिसके पास केवल पुस्तक ज्ञान है वह सबसे खतरनाक है क्योंकि उसमें और कोई सम्भावनाएं नहीं हैं, कोई भी गुंजाइश नहीं है, लेकिन जो द्वितीय आया या तृतीय आया उनमें सम्भावनाएं हैं, जो असफल हो गया उसमें काफी सम्भावनाएं हैं, उसमें जीवन को समझने की, जीवन रहस्यों को समझने की अपार संभावनाएं हैं क्योंकि वह पुस्तकों से असफल हो गया। जीवन पुस्तक नहीं है। पुस्तक को जीवन बनाना सबसे बड़ी मूर्खता है। जो प्रथम श्रेणी में सफल हुआ है उसके पास केवल पुस्तक है और पुस्तक का अध्ययन मनुष्य को कहीं नहीं पहुंचाता सिर्फ अपने अनुभव से दूर ले जाता है। पुस्तक का अनुभव पुस्तक के पास ले जाता है। इसलिए जीवन का अनुभव प्रथम श्रेणी में आए छात्र के जीवन में उतारना भारी कठिन है क्योंकि वह पहले से ही भरा बैठा है।
असफल हो चुका छात्र जीवन में, मन में, मस्तिष्क में पुस्तकीय ज्ञान को भर नहीं पाया। वह कहीं न कहीं से मौलिक है। उसमें अपार संभावनाएं हैं, स्वयं भी प्रगट करने की, उसमें संभावनाएं हैं स्वयं की पहचान स्वयं बनने की। उसकी पहचान कोई माध्यम विशेष रूप से पुस्तक तो है ही नहीं। ऐसे छात्रों के साथ जीवन का अनुभव शेयर करके उसे अध्ययनशील बनाने की अपार संभावनाएं हैं।
मेरा अर्थ यह कदापि नहीं है कि पुस्तकें नहीं पढऩा चाहिए लेकिन पुस्तक के अनुभव को कभी अपना मानकर वहीं ठहर मत जाना।
इसलिए असफल छात्र कई गुना सफल छात्र हैं जो प्रथम श्रेणी में पास हुए उनके मुकाबले। क्योंकि प्रथम श्रेणी में आए छात्र केवल पुस्तकों की परिभाषाएं बोलते हैं, अपने मौलिक स्वरूप को खो चुके होते हैं।
इसलिए असफल हो चुके छात्र को आप निष्कृत ना मानें, असफल छात्र को कभी हीन न समझें उसे कुंठा से बाहर निकालें और अन्य संभावनाओं की ओर भी मोडऩे का प्रयास करें।
प्रसन्न हों कि वह रट्ïटू तोता नहीं है। वह पुस्तक के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देखना व सोचना चाहता है। उसके सोच को विस्तार दें, उसके चिन्तन को मान्यता दें।
हमारे देश में असफल छात्र से कोई भी बात ही नहीं की जाती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि छात्र भी अपनी संभावनाओं को नहीं जानता। असफलता की कुंठा के नीचे वह अपने मौलिक स्वरूप को दबा देता है जिसके कारण एक अच्छी प्रतिभा भी उभरने के पूर्व मुरझा जाती है। असफल छात्र का भी स्वागत और सम्मान करने की हममें शक्ति होना चाहिए, क्योंकि उनकी असफलता के कारण ही तो आप सफल कहलाए। असफल छात्र को भी मुख्य धारा से जोडऩे का प्रयास करना चाहिए। उसके मौलिक स्वरूप को कायम रखने का पूरे समाज का दायित्व है।