‘आंख मूंदना’ जबरदस्त मुहावरा है देखने से गहरा जुड़ा और गहरे अर्थ से भरा लबालब। देखने में दो शब्दों का और अर्थ में दो पन्नों का। देखने में छोटा और घाव करे गंभीर-नाविक के तीर की तरह, द्रौपदी के तीखे वचन की तरह, लक्ष्मण लला के तेवर की तरह। अपने ही क्रोध की आग में तप रहे परशुराम जी के तेवर पर पानी छिड़कते हुए लखन लाल ने कहा ‘महाराज यदि छोटा खोटा नृप ढोटा को नहीं देखना चाहते हैं तो आंख मूंद लीजिए कोई दिखाई नहीं पड़ेगा।‘
बेगि करहु किन आंखिन्ह ओटा। देखन छोटे खोट नृप ढोटा।
बिंहसे लखन कहा मन माही। मूंदें आंख कतहुं कोउ नाहीं। (बालकांड)
वस्तुत: लखन लाल की मंशा चाहे जो रही हो, परंतु परशुराम जी का भला तो आंख मूंद लेने में ही था वे उपहास के पात्र बनने से बच जाते। भगवत्ता बची रहती। इतना प्रख्यात शिव धनुष तोडऩे वाला कोई मामूली ढोटा नहीं हो सकता। आंख मिला कर बात करने वाला निडर बालक कोई साधारण बालक नहीं हो सकता, परंतु क्रोध ने उन्हें सोचने का अवसर नहीं दिया। क्रोध सोचने का अवसर बहुत कम देता है और अपने आश्रय को कभी-कभी मजाक का पात्र बना देता है। इसलिए संत कहते हैं-जब क्रोध वेग से उठे तो आंख मूंद लेना चाहिए, गुस्सा ठंडा हो जाता है। आदमी अप्रिय से बच जाता है।
वैसे भी छोटी-मोटी अप्रिय बातों के लिए आंख मूंद लेना मुनासिब माना जाता है। जीने के लिए भी और व्यवहार के लिए भी। अस्वस्थ विपक्ष की तरह हर बात में दोष देखना ठीक नहीं। जिंदगी में बहुत सारी ऐसी प्रतिकूल बातें होती है, जिन्हें नजरअंदाज कर देने में ही हित निहित होता है। घर के गणपति ऊंच नीच को पचाते ही रहते हैं।
पर हां, वह छोटा छेद, जो कभी जहाज को डुबो सकता है, उसे अनदेखा करना, खतरे को दावत देना है। राज-समाज में घट रही वे घटनाएं, जो जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद के भले ही छोटे से इजहार हो, उनको अनदेखा करना देशहित की उपेक्षा होगा, आत्मघात होगा।
छोटी-सी भी दूर प्रभावी, दूर लक्षी घटनाओं को अदना समझकर टाल देना, दुर्योधन को मनमानी करने का मौका देने जैसा है। मोहान्ध धृतराष्ट्र के लिए तो विदुर के भी विचार बेकार है। वह संजय-दृष्टि का भी लाभ नहीं उठा सकता। एक-एक करके कौरव नष्ट हो रहे थे पर धृतराष्ट्र की आंखे खुल नहीं रही थी। ऐसी भी आंखें क्या मूंदना कि नाते, नेह, गेह कुछ भी न दिखाई पड़े। नीति-धरम को शरम आये, सत्यानाश हो जाये। ऐसी भी आंख क्या मूंदना कि उषा की मुस्कान, खिले-खिले उद्यान, रस घोलती कोयल की बोली, बगरे बसंत, गाते फागुन को ताकने सुनने की ललक न हो, कोई सरोकार न हो – उस सेठ जैसा, जिसके आगे-पीछे सुख-समृद्घि कवायद कर रही हो, भोग की नहर बह रही हो परंतु उसे भोगने की फुर्सत न हो, मन न हो। धत्त तेरे की? क्या जिंदगी महज रोटी, कपड़ा, मकान का लफड़ा है। ऐसी जिंदगी तो बैल भी नहीं जीना चाहता है। वह भी हरी घास देखकर लपक पड़ता है। बैसाख नंदन भी बैसाख के मौसम का तकाजा समझकर जीने का तौर तरीका बदल लेता है।
आंख मूंदने से ज्यादा मुनासिब आंख खोले रखना समझा जाता है। वैसे महादेव हमेशा अपने तीसरे नयन को मूंदे रखते हैं दुनिया के ऊंच-नीच को पचाते रहते हैं परंतु शांतिभंजक नंगा नाच जब कामदेव करने लगा तो उनकी तीसरी आंख उधर गई और उसके उधर होते ही काम के अतिरेक पर, बसंत की मदमत्तता पर और पार्वती की चारूता के गुमान पर, मानो अद्र्घविराम लग गया। वह तो लोक-हित से प्रेरित काम का काम था, इसलिये वह समूल नष्टï होने से बच गया… अनंग होकर जीने के लिये कामायनी सृष्टिï की समानता के लिए, तीसरे पुरूषार्थ की साधना के लिए।
शिव के नयन खुलते ही पार्वती की भी आंखें खुल गई। आगे वाले को ठेस लगती है तो पीछे वाले सावधान हो जाते हैं । वह समझ गई कि ऐसी सुंदरता बेकार है जिस पर पिया रीझ न पाये। पिया जिसे चाहे वही सुहागिन। महादेव-जैसे पति और उनके जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति तप:पूत सौंदर्य से ही संभव थी अत: उन्होंने तपश्चर्या के लिए मन बनाया..
इयेष सा कर्तुमबन्ध्यरूपताम्
समाधिमास्थाय तपोभिरात्मन:।
अवाप्ये वा कथमन्यथा द्वयम्
तथा विद्यां प्रेम पतिश्चातहश: (कुमारसंभवम्)
जाहिर है कि मौका-मुनासिब देख सुनकर आंख मूंदना और खोलना श्रेय-प्रेय में सहायक होते हैं। घटित और फलित को नजर अंदाज कर यह सोचकर बैठे रहना कि मूंदहुं आंख कतहुं कोउ नाहीं, ठीक नहीं। बुढ़ापे को ज्यादातर नयन मूंदे रहना, उसके स्वास्थ्य के लिये ज्यादा बेहतर माना जाता है तो यौवन के लिए आंख खोले रखना। आंखे मिली हैं देखने के लिए। भीतर-बाहर पसरे-अपार सौंदर्य को झांकने के लिए। श्याम श्वेत रतनार नयनों से निहार-निहारकर जीने-मरने के लिये…
अमिय हलाहल मदभरे श्याम श्वेत रतनार।
जियत-मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत एक बार।