आगामी आमचुनाव, 2024 के लिए अधिसूचना जारी होने में अब महज हफ्ते-दो हफ्ते का समय बचा गया है। प्रशासन और राजनीतिक दल ही नहीं, आम मतदाता,बुद्धिजीवी भी चुनावी मोड में आ चले हैं. मीडिया से लेकर हर चौक चौराहों पर चुनावी चर्चा का बाजार गर्म है। भारत का संसदीय इतिहास बताता है कि भारतीय मतदाता किसी राजनीतिक दल और नेता को दस वर्ष से ज्यादा झेल पाने का धैर्य नहीं रख पाता। इंदिराजी 1967में प्रधानमंत्री बनीं थीं। अपने प्रगतिशील कदमों से ही नहीं, पाकिस्तान के दो टुकड़े करवा कर 1971 में बांग्लादेश के अभ्युदय से एक लौहमहिला(आयरन लेडी) की उनकी छवि बनी थी लेकिन 1977 आते-आते वह खासी अलोकप्रिय हो गईं थीं और 1977 के आमचुनाव ने वोट क्रांति का एहसास कराया था।1996-98के बीच देवगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल के छोटे-छोटे कार्यकालों की अनदेखी की जाए तो 1996-2004के बीच हुए तीन आमचुनावों के बाद अटलजी प्रधानमंत्री रहे।
2004 के आमचुनाव के समय अटलजी देश के सबसे बुजुर्ग,अनुभवी और तपे-तपाए नेता में थे। राष्ट्रीय प्रगति के संदर्भ में उनकी नीति में चाहे जितनी खामी निकाल ली जाए,उनके नीयत पर किसी को भी कोई संदेह न था लेकिन 2004 के आमचुनाव में आम मतदाता ने फील गुड और इंडिया शाइनिंग के उनके जुमलों को अस्वीकार कर दिया। डॉ मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री थे जो विश्व अर्थव्यवस्था की गहरी समझ रखते थे,उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी संदेह से परे थी। उन्होंने राइट टू एजुकेशन,राइट टू इन्फॉरमेशन,राइट टू वर्क,नरेगा जैसे कानूनों से शोषित वंचित समुदाय में आशा की किरण भी जगाई थी लेकिन, 2014 के आमचुनाव में आम भारतीय मतदाता ने उनको अस्वीकार कर दिया था।1984 में राजीव गांधी और 1991में पीवी नरसिंह राव दो ऐसे प्रधानमंत्री हुए जो प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ घंटों , कुछ दिनों पहले तक प्रधानमंत्री होने की सोचें भी नहीं थे। 1984में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इंदिराजी की हत्या के बाद अपने विवेक से राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनवा दिया। उसके तुरंत बाद 1984में हुए आमचुनाव में कांग्रेस ने लोकसभा में 400से ज्यादा सीटें जीतीं। राजीव गांधी ने तकनीकी उन्नयन को आमजन तक सहज,सुलभ बनाया।उसी प्रकार,1991के आमचुनाव के बीच ही राजीव गांधी की हत्या हो जाने के बाद एक कठिन दौर में पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री चुने गए।वह सच्चे अर्थों में डेमोक्रैट साबित हुए।अपने वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह को उन्होंने आर्थिक सुधार करने की खुली छूट दी।उनके दौर में हुए आर्थिक सुधारों का श्रेय डॉ मनमोहन सिंह को मिला, लेकिन उन्होंने इसका तनिक भी अन्यथा न लिया।उनके ही दौर में ज्युडीशियल एक्टिविज्म का वातावरण बना।लेकिन, राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव को भारतीय मतदाताओं ने दूसरा अवसर भी नहीं दिया।
(इस पृष्ठभूमि में युगपुरुष जवाहरलाल नेहरू एक अपवाद भी हैं।ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के दौरान ही नेहरू अंतरिम प्रधानमंत्री बने थे। उनके प्रधानमंत्रित्व में ही भारतीयों ने अपना संविधान स्वीकार, अंगीकार और आत्मसात किया।उनके कार्यकाल और जीवनकाल में 1952,1957 और 1962 में तीन आमचुनाव हुए और हर बार नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस विजयी हुई।)
..इस पृष्ठभूमि में आइए,आगामी आम चुनाव में उत्तरप्रदेश में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के चुनावी भविष्य का आकलन करें। आमचुनाव,2014 के लिए भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना भारतीय संविधान की मर्यादाओं के अनुरूप नहीं था। भारतीय संविधान की मर्यादा यह है कि चुनाव पश्चात विभिन्न राजनैतिक दलों के सांसद अपने-अपने संसदीय दल का नेता चुनते हैं। सबसे बड़े संसदीय दल का नेता अगर उसके दल के पास स्पष्ट बहुमत नहीं भी हुआ,तो अन्य दलों के नेताओं के साथ मिलकर बहुमत की व्यवस्था करता है,तत्पश्चात राष्ट्रपति के सामने सरकार बनाने का दावा पेश करता है।किसी दल या नेता द्वारा सरकार बनाने का दावा नहीं पेश किए जाने की स्थिति में राष्ट्रपति सबसे बड़े संसदीय दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है और उसे एक निश्चित समय सीमा के भीतर लोकसभा के फ्लोर पर बहुमत साबित करने का निदेश देता है लेकिन,भाजपा ने आमचुनाव,2014 के पहले ही नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन कर भारतीय लोकतंत्र को अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली में तब्दील करने की अवांछित कोशिश की।
…..अस्तु!आमचुनाव,2014के पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के पूर्व मोदी एक प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय नेता भर थे । उनके संज्ञान में वह राजनीतिक कहावत आई कि दिल्ली की सत्ता तक उत्तर प्रदेश होकर ही पहुंचा जा सकता है । इस कहावत का आधार यह था कि प्रधानमंत्रियों की सूची में जवाहरलाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री,इंदिरा गांधी,राजीव गांधी,वीपी सिंह,चन्द्रशेखर की राजनीतिक पृष्ठभूमि पूर्वी उत्तरप्रदेश से रही है । इसमें अगर चौधरी चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को भी जोड़ लिया जाए तो उत्तर प्रदेश ने देश को आठ प्रधानमंत्री दिए हैं। सो,नरेन्द्र मोदी ने अपने गृहप्रदेश गुजरात से बाहर निकलकर उत्तरप्रदेश के वाराणसी से भी चुनाव लड़ा। मोदी ने न सिर्फ ‘अच्छे दिन’का वादा किया,भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का आश्वासन दिया,उनके पास लोकलुभावन वादों की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त थी।चुनाव प्रचार में तकनीकी कौशल के साथ-साथ आक्रामक मीडिया मैनेजमेंट का तड़का भी था।न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार भाजपा को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ बल्कि उत्तरप्रदेश में तो भाजपा को अनपेक्षित सफलता मिली।80सीटों वाले उत्तरप्रदेश में भाजपा की सीटें एकबारगी 71 पहुंच गई,21 सीटों वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस 2 सीटों पर सिमट गई,2012 तक उत्तर प्रदेश की बागडोर संभाल रही मायावती की पार्टी-बहुजन समाज पार्टी-अपना खाता भी नहीं खोल सकी। उत्तरप्रदेश के जमीनी नेता मुलायम सिंह यादव की पार्टी-समाजवादी पार्टी-5 सीटों पर सिमट गई।
2014-24-10 वर्षों के कार्यकाल में मोदी के हाथ सफलताएं कम असफलताएं ज्यादा आईं हैं। यहां तक कि वर्तमान लोकसभा के अंतिम सत्र में जब उन्होंने श्वेतपत्र प्रस्तुत किया तो 2014-24 कालखंड की अपनी उपलब्धियां नहीं बता पाए,2004-14 कालखंड की डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल की अनुपलब्धियां बताईं जबकि उनके 10वर्ष के कार्यकाल की अनुपलब्धियों की सूची बड़ी लम्बी है। प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरी देने के वादा का सच यह है आठ साल में 12.5करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं। नोटबंदी की घोषणा के साथ जिन संभावित उपलब्धियों की उम्मीद जगाई गई थी, उनमें से कोई भी पूरी नहीं हुई है। विदेशों से कालाधन वापस नहीं आया,किसी के खाते में 15 लाख की राशि नहीं मिली,एक भी स्मार्ट सिटी नहीं बन पाया,रूपया निरन्तर कमजोर होता गया है, गंगा मैली ही रह गई,किसानों को एम एस पी का वादा पूरा नहीं हुआ,किसानों की आय दोगुनी करने का वादा पूरा नहीं हुआ,हर किसी को पक्का मकान नहीं मिला….. मोदी, भाजपा या राजग सरकार की असफलताओं की यह सूची बड़ी लम्बी है।
दूसरी तरफ,मोदी देश को कांग्रेस मुक्त करने का अभियान चाहे जितना चलाएं, संसद और संसद के बाहर नेहरू-गांधी परिवार को चाहे जितना कोसें,राजनैतिक सच्चाई यह है कि उनके तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस पूरे दमखम से राजनीतिक परिदृश्य में मौजूद है। एक तरफ,मोदी 10 वर्षों में भी 10 राज्यों(तमिलनाडु,आंध्रप्रदेश,
बिहार में जातीय-सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण की सफलता के बाद कांग्रेस ने यह घोषणा कर रखी है कि अगर उसका गठबंधन सत्ता में आया तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय-सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण होगा।इसने पिछड़े,अतिपिछड़े,दलितों, महादलितों के बीच नई अपेक्षाएं जगाईं हैं,आशा और विश्वास पैदा किया है।कांग्रेस ने स्पष्ट घोषणा की है कि अगर वह सत्ता में आई तो किसानों को एमएसपी की मांग मान लेगी। कांग्रेस ने यह भी घोषणा की है कि अगर वह सत्ता में आई,तो अग्निवीर योजना समाप्त कर सेना में स्थाई बहाली की व्यवस्था करेगी-कांग्रेस की इस घोषणा ने विशेषकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा को अलोकप्रिय और इंडिया गठबंधन को लोकप्रिय किया है।
मोदी और भाजपा ने उत्तर प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित किया है, तो कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन के लिए सीटों के तालमेल की घोषणा सबसे पहले उत्तरप्रदेश के लिए करके यह संकेत दिए हैं कि उत्तरप्रदेश उसकी प्राथमिकताओं में है।भाजपा वर्षों से नारा लगा रही है-अयोध्या तो झांकी है,काशी मथुरा बाकी है।भाजपा लगातार देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए प्रयासरत दिखती है,इसने अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों में असुरक्षा का भाव पैदा किया है।मोदी और भाजपा की अल्पसंख्यक विरोधी कार्यशैली के कारण 2014के आमचुनाव में उत्तरप्रदेश से कोई मुस्लिम सांसद नहीं बन पाया।2019के आमचुनाव में गिनती के मुस्लिम सांसद तो जरूर बने,लेकिन वह अल्पसंख्यकों में सुरक्षा भाव पैदा करने में विफल रहे हैं। मुस्लिम एकमुश्त भाजपा विरोधी मजबूत उम्मीदवार को वोट करते हैं लेकिन कहीं न कहीं उनकी सहानुभूति कांग्रेस के साथ रहती है।उत्तरप्रदेश में भाजपा विरोधी दलों के अलग-अलग उम्मीदवार रहने से मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो जाता है और भाजपा के जीतने की संभावना बढ़ जाती है लेकिन, इंडिया गठबंधन में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में सीटों के तालमेल होने और बसपा की मायावती के राजनैतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाने के बाद मुस्लिम वोटों के बिखरने की कोई संभावना नहीं है,इसलिए यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सहारनपुर,कैराना,मुजफ्फरनगर,बि
बहराइच,श्रावस्ती,सिद्धार्थनगर की 14सीटें,जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 25%से ज्यादा है और जिनमें से 10सीटें भाजपा के पास है,वह सीटें भाजपा हार जाए।उपरोक्त 14 सीटों में तीन सीटें मुजफ्फरनगर,मेरठ,बागपत ऐसी हैं जिनमें भाजपा क्रमशः महज 6526,4729,23502वोटों से जीत पाई थी।यही नहीं,2019के आमचुनाव में मुजफ्फरनगर,मेरठ और बागपत के अतिरिक्त भी 11 सीटें(फिरोजाबाद,बदायूं, सुल्तानपुर,कन्नौज,कौशाम्बी,बस्
अब,यह बात स्पष्ट हो चली है कि पीलीभीत के सांसद वरूण गांधी और सुल्तानपुर की सांसद मेनका गांधी भाजपा के टिकट पर चुनाव नहीं लड़ेंगी।इसलिए,यह दोनों चाहे जिस गैर-भाजपा पार्टी के टिकट पर जिस संसदीय क्षेत्र से लड़ें, वह जीतेंगे ही।रायबरेली और अमेठी कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार की पारम्परिक सीट रही है और यह सीटें कांग्रेस के पास ही रहने की संभावना है।समाजवादी पार्टी ने मैनपुरी (डिंपल यादव),अम्बेडकर नगर(लालजी वर्मा),प्रतापगढ़(डॉ एसपी सिंह चन्देल),गोंडा(श्रेया वर्मा),गाजीपुर(अफजल अंसारी),सीतापुर(उर्वी वर्मा) और झांसी(प्रदीप जैन)से मजबूत उम्मीदवार देकर भाजपा के लिए कड़ी चुनौती पेश की है।
बसपा पिछले तीन दशकों से उत्तरप्रदेश के दलित मतदाताओं को अपनी जागीर समझती रही है लेकिन आम चुनाव, 2019 में अनुसूचित जाति के आरक्षित 17 सीटों में से 15 सीटों पर भाजपा जीत गई थी लेकिन,आगामी आमचुनाव में बसपा हाशिए पर दिख रही है और दलित मतदाता विकल्प की तलाश में हैं।भाजपा उसकी पहली पसंद नहीं है।दलित मतदाताओं की पहली पसंद कांग्रेस रही है।उत्तरप्रदेश के 21% दलित मतदाता 19%मुस्लिम और 40%पिछड़े मतदाता(जिन पर सपा के अखिलेश यादव की मजबूत पकड़ है)के साथ मिलकर उत्तरप्रदेश में कोई भी गुल खिला सकते ।जाहिर सी बात है कि उत्तरप्रदेश की लगभग तीन दर्जन सीटों पर दिलचस्प मुकाबला देखने को मिल सकता है।
पंकज कुमार श्रीवास्तव