सुनो अधिक और बोलो कम

ईश्वर ने मनुष्य को कान दो दिए हैं पर मुँह एक दिया है। इससे यही अर्थ लगाया जा सकता है कि प्रभु का यह स्पष्ट सन्देश है कि सुनो अधिक और बोलो कम। सभी जानते हैं कि कानों का काम है सुनना और मुँह का काम है बोलना।


अब विचार इस विषय पर करना है कि मनुष्य को क्या सुनना चाहिए और क्या नहीं? इसी प्रकार क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं?


मनुष्य को सदा ही अच्छा सुनना चाहिए और अच्छा बोलना चाहिए। अच्छा सुनने का तात्पर्य है अपने देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के हितकर शब्द सुनने चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों एवं महापुरुषों के उपदेशों तथा आदर्शों के विषय में सुनना चाहिए।


महाजनों की सुसंगति में रहते हुए, उनके सुवचनों का लाभ उठाते हुए अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। समष्टि का भला करने वाले या लाभ पहुँचाने वाले सद् वाक्यों को सुनना सदा ही सबको आनन्दित करता रहता है।


दुर्जनों से और उनके कठोर वचनों को सुनने से बचना चाहिए। उनके अपशब्द व गाली-गलौज सुनने से दूर रहना मनुष्य के लिए आवश्यक है। इनके अतिरिक्त ऐसे वचन भी नहीं सुनने चाहिए जिनमें किसी की निन्दा-चुगली की गई हो या तोड़फोड़ करने की बात हो।
देश, धर्म, समाज तथा घर-परिवार को तोड़ने वाले दुर्वचनों को सुनने से बचना चाहिए। दूसरों को हानि पहुँचाने वाले जिन वचनों में षडयन्त्रा की बू आ रही हो उन्हें सुनने से परहेज करना चाहिए।


एवंविध बोलते समय वाणी पर नियंत्राण रखना चाहिए। इसीलिए कहते हैं-
श्पहले तोलो फिर बोलो।


ऐसे बोलने से हमेशा बचने का यत्न करना चाहिए जिससे किसी के मन को कष्ट हो या किसी का हृदय छलनी हो जाए। अपनी तरफ से प्रयास यही होना चाहिए कि दूसरे के मन को हरणे वाले बोल बोले जाएँ।


वाणी की सरलता और सहजता का पुट उसमें होना चाहिए, छल-फरेब वाली भाषा का प्रयोग मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिए। दूसरों के जख्मों पर मलहम लगाने वाले वचन सबको पसन्द आते हैं।


किसी मनुष्य के साथ यदि कोई भी व्यक्ति अपने रहस्यों को साझा करता है तो उसे इस बात का पूर्ण विश्वास होता है कि जिसके पास जाकर वह अपना मन हल्का कर रहा है, वह उन्हें अपने अंतस में ही समाकर रख लेगा तथा उन्हें किसी के सामने कभी, किसी भी परिस्थिति में प्रकट नहीं करेगा।


उसे यह भी विश्वास होता है कि वह स्वयं लोगों के सामने न तो उसका उपहास करेगा और किसी दूसरे को भी उसकी छिछालेदार नहीं करने देगा। जिस व्यक्ति पर लोग इतना विश्वास करते हैं, उससे महान कोई और हो ही नहीं सकता।


इस प्रकार बोलने और सुनने में यदि अनुशासन का पालन किया जाए तो होने वाले बहुत से झगड़ों से छुटकारा पाया जा सकता है। वाणी से किया गया प्रहार बहुत गहरा घाव करता है। इस प्रकार के तीक्ष्ण वारों को करने से मनुष्य को यथासम्भव बचना चाहिए।


मन में दूसरों के गूढ़ रहस्यों को सदा छुपाकर रखने वाला और वाणी का संयम रखने वाला मनुष्य वास्तव में महान होता है। ऐसे महापुरुषों को समाज अपना नेता मानकर उसके बताए मार्ग पर चलने लगते हैं।


इन सबसे भी बढ़कर प्रत्येक मनुष्य को उस परमपिता का यशोगान भी अपनी वाणी से सदैव करना चाहिए और उसी की प्रार्थनाओं को अपने इन कानों से सुनना भी चाहिए। तभी इन दो कानों और इस मुँह की सार्थकता है। अपने अंतस में ईश्वरोचित गुणों का समावेश करने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए।