श्रीराम के हाथ में बाण था। वह चित्रकूट में अपनी कुटिया के बाहर बैठे थे। बाण को बार-बार जमीन में लगा रहे थे। मिट्टी कुरेद रहे थे। शायद किसी विचार में गुम बैठे थे वह, और हाथ निरंतर चल ही रहा था। चलता रहा। बाण मिट्टी में थोड़ा गहरा जाता, फिर इसे ऊपर खींच लेते। इस बार जब बाण को बाहर निकाला तो उस पर रक्त लगा था। बाण पर लगा रक्त देखकर श्रीराम चकित हो गए। उन्होंने जल्दी से जमीन कुरेदी। मिट्टी हटाई। देखा कि वहां एक घायल मेंढक पड़ा है। वहीं पड़ा-पड़ा टर्र-टर्र करने लगा। श्रीराम ने मेंढक को उठाया। अपनी हथेली में संभाला। बहते खून पर अंगुली रख दी। खून बहना बंद हो गया। तब श्रीराम पूछ बैठे-अरे मेंढक तूने बाण लगते ही शोर क्यों नहीं मचाया, मुझे क्यों नहीं कहा। मैं तुरंत तीर खींच लेता। मेंढक का उत्तर था-प्रभु! कोई दूसरा दु:ख देता तो आपसे शिकायत करता, सहायता के लिए कहता… मगर जब बचाने वाला ही कष्ट दे रहा हो तो ऐसे में किसे पुकारूं? किससे सहायता मांगूं। मेंढक की बात सुनकर श्रीराम ने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर उसे जमीन पर रख दिया। अब तक उसका खून बहना बंद हो गया। वह पूरी तरह स्वस्थ व शांत हो गया। उसके इस जीवन के सारे कष्ट कट गए और अगला जन्म भी सुधर गया श्रीराम के हाथों। मेंढक ने अपनी सूझबूझ से अपना अगला जन्म भी सुधार लिया।