भगवान श्रीराम पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हैं, यह विश्वास सदा से ही चला आ रहा है। यह युक्ति युक्त और उचित ही है। निर्गुण-निराकार रूप सच्चिदानंद परमात्मा ही सगुण-साकार रूप में प्रकट होते हैं।
उस निराकार रूप परमात्मा के सूक्ष्म शरीर से ही सारी स्थूल आकृतियां उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वह परमात्मा स्वयं ही निराकार रूप से साकार रूप को धारण करता है। इसी का नाम अवतार लेना है। तुलसीकृत रामायण में श्री शिवजी पार्वती से कहते हैं :
जब-जब होई धरम कै हानी।
बढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।
सिदहिं विप्र धेनु सुर धरनी॥
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
असुर मारि पापहिं सुरह॥
राखहिं निजुश्रुति सेतु॥
जब बिस्तारहिं बिसद जस।
राम जन्मकर हेतु॥
जब देवता और ऋषियों ने रावण के उपद्रवों से दुखित हो ब्रह्मा जी से प्रार्थना की, तब ब्रह्मा जी उन्हें सांत्वना देने लगे।
उसी समय भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार हो वहां जा पहुंचे। भगवान ने देवताओं की प्रार्थना पर दशरथजी के घर में मनुष्य रूप में अवतार लेना स्वीकार कर लिया।
श्री रामचन्द्र जी की सारी चेष्टाएं धर्म, ज्ञान, नीति, शिक्षा, गुण, प्रभाव, तत्व एवं रहस्य से भरी हुई हैं। उनका व्यवहार देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी के साथ बहुत ही प्रशंसनीय है। भगवान श्रीराम की कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं, जो कल्याणकारिणी न हो। उनके प्रत्येक व्यवहार से हम लोगों को शिक्षा लेनी चाहिए।
श्री रामचन्द्र जी के राज्य का तो कहना ही क्या है, उसकी तो संसार में एक कहावत हो गई है। जहां कहीं सबसे बढ़कर सुंदर शासन होता है, वहां ‘रामराज्य’ की उपमा दी जाती है। महात्मा गांधी भी अपने देश में रामराज्य लाना चाहते थे, लेकिन उनका स्वप्न साकार नहीं हुआ। सत्ता के लोलुप नेता स्वार्थ के वशीभूत होकर रह गए।
यह मनुष्य जीवन हमें किस लिए मिला है? यह आहार, निद्रा और मैथुन के लिए नहीं मिला है। भोजन, मैथुन और शयन तो पशुओं में भी है। फिर हममें क्या विशेषता हुई? मनुष्य का शरीर भोगों के लिए नहीं मिला है। यह मिला है- आत्मा के कल्याण के लिए। किन्तु जो मनुष्य शरीर पाकर अपने जीवन को भोगों में लगाता है, वह अमृत के बदले विष का सेवन करता है। मनुष्य जन्म बार-बार मिलने वाला नहीं है, इसलिए मनुष्य जीवन से विशेष लाभ उठाना चाहिए। मनुष्य शरीर को पाकर जो अपनी आत्मा का कल्याण नहीं करेंगे, उनको आगे चलकर घोर पश्चाताप करना पड़ेगा।
सो परत्र दुख पावई सिर धुनि-धुनि पछताइ
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥
वे आगे जाकर सिर धुन-धुनकर पश्चाताप करेंगे। काल, कर्म और ईश्वर को झूठा दोष लगाएंगे।
भगवान ने स्वयं कहा है-
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई।
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि परमप्रिय सोइ॥