जैव विविधता यानी दुनिया के जीव के समस्त रुपों का खजाना। शायद इस अति जटिल तंत्र की यह सरलतम परिभाषा है। इस जैव विविधता को समझने के लिए वैज्ञानिक कई अवधारणाओं का उपयोग करते हैं। इनमें इकोसिस्टम की विविधता, प्रजातियों के बीच वैविध्य तथा जिनेटिक विविधता आदि प्रमुख हैं।
जीवों के आवास स्थलों का जान बूझकर विनाश करना अथवा उनमें फेरबदल करना मात्र मानव जाति का ही लक्षण है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता में जो गिरावट आयी है वह हैरतअंगेज है। वैज्ञानिकों का मत है कि दुनिया में कुल जीव प्रजातियों की संख्या 1 से 8 करोड़ के बीच है। इनमें से मात्र 14 लाख प्रजातियों की शिनाख्त की गई है। उपलब्ध रिपोर्टों से पता चलता है कि रोजाना करीब 100 रीढ़विहीन प्रजातियां जंगल कटने और आवास नष्ट होने की वजह से लुप्त हो जाती हैं। स्तनधारियों तथा मांसाहारी प्राणियों की सारी प्रजातियों में सदस्यों की तादाद कम होती जा रही है। दुनिया में प्राइमेट्स (बंदर, लगूंर, मानवादि) की 150 प्रजातियां है। इनमें से दो तिहाई यानी 100 विलुप्त होने की कगार पर है। दुनिया में पक्षियों की तीन चौथाई प्रजातियों के सदस्यों की संख्या घटती जा रही है। उभयचर जंतुओं व मछलियों की संख्या में भी कमी आई है। महाविनाश अपरिहार्य नजर आ रहा है।
भारत में भी स्थिति कम चिंताजनक नहीं है। भारत में जंतुओं की 65,000 और वनस्पतियों की 45,000 प्रजातियां पाई जाती है। भारत में कुल 32.9 करोड़ हैक्टर भूभाग में से 17.5 करोड़ हैक्टयर भूक्षरण, लवणयता तथा अन्य वजहों सेे बर्बाद भूमि की श्रेणी में है। इससे जैव विविधता पर खतरे का संकेत मिलता है। हमारे चारागाह व घास के मैदान कुल भूभाग के मात्र 3.5 प्रतिशत है। इन पर देश के 50 करोड़ पालतू पशुओं का बोझ है जिसके चलते इन चारागाहों व घास मैदानों की हालत खस्ता है। भारत में वन भूमि का रकबा 7.5 करोड़ हेक्टर है जिसमें से 40 प्रतिशत खस्ता हाल है। इसके चलते जैव विविधता का क्षरण हो रहा है। नमभूमि तथा समुद्री इकोसिस्टम जलीय जीवन व पक्षी जीवन पर प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है।
इन सबसे जाहिर है कि जैव विविधता की हिफाजत हेतु तत्काल एक कार्यवाही योजना की जरूरत है। इस कार्यवाही योजना को पर्याप्त कानूनी सहारा मिलना चाहिए। यह कानूनी सहारा वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिवेश के अनुरूप हो। इसके अलावा ऐसी किसी भी योजना में विकास के दूरगामी परिपे्रक्ष्य का भी ख्याल रखना होगा। जाहिर है कि यह काम आसान नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन (आई.यू.सी.एन.) राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) तथा डब्लू.डब्लू.एफ. का मत है कि समस्त राष्ट्रों में पर्यावरण कानूनों की ऐसी समग्र प्रणाली बनाई जानी चाहिए कि भावी पीढिय़ों के हितों पर भी आंच न आए। इस प्रणाली के अंतर्गत स्थानीय तौर तरीकों को मान्यता देकर धरती की उत्पादकता व विविधता की भी सुरक्षा की जानी चाहिए।
वर्तमान में जैव विविधता संरक्षण के भारत सरकार की चिंता विभिन्न पर्यावरण कानूनों के रूप में प्रकट हुई है। इनमें प्रमुख हैं भारतीय वन अधिनियम 1927, वन्य जीवन (सुरक्षा) अधिनियम 1972 (1991 में संशोधित) पर्यावरण (सुरक्षा ) अधिनियम 1986 वन (संरक्षण) अधिनियम 1974 (1988 में संशोधित) वायु (प्रदूषण रोकथाम नियंत्रण) अधिनियम 1981 (1988 में संशोधित) तटीय नियमन क्षेत्र वन नीति तथा 1992 में प्रकाशित संरक्षण रणनीति व नीति का राष्ट्रीय वक्तव्य भी संरक्षण के प्रति सरकार की चिंता की झलक देते हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पर्यावरण संबंधी कानूनी ढांचे को बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरुप बनाने के ज्यादातर प्रयास 1986 के बाद ही हुए हैं। इनके अलावा पिछले वर्षों में पर्यावरण आदि मुद्दों पर अदालत के जो फैसले आए हैं उनसे भी प्रतीत होता है कि न्यायालयों का सोच भी भी पर्यावरण के पक्ष में झुक रहा है।
वन अधिनियम (1927)
भारतीय वन अधिनियम 1927 में पहली बार बंदोबस्त की रणनीति शामिल की गई है। इस कानून में विभिन्न किस्म की भूमियों पर अनुमतिशुदा और प्रतिबंधित कार्यों की सूची भी थी। इसके अंतर्गत वनोपज के नाम से जैव विविधता के विभिन्न घटकों का नियमन भी किया गया। अधिनियम में वनोपज भी शामिल किया गया। अधिनियम में वनोपज की परिभाषा देखें तो पता चलता है कि इसकी धारा 2 (4) में वनोपज की दो स्पष्ट श्रेणियां है। पहली श्रेणी को वनोपज धारा 2 (4) (क) में दी गई है। इसमें इमारती लकड़ी, कोयला, कत्था, महुआ के फूल आदि शामिल हैं। ये चाहे जंगल से लाएं जाएं या कहीं और से, इन्हें वनोपज ही माना जाता है। धारा 2 (4) (ख) में जिन चीजों की सूची है उन्हें वनोपज की हैसियत उनके उत्पत्ति के स्थान के आधार पर मिलती है। याने इन चीजों को वनोपज तभी कहा जाता है जब वे वन से लाई जाएं। इस सूची में पौधों या पेड़ों के हिस्सों से बनी सामान्य चीजें, वन्य जीव आदि शामिल हैं।
आरक्षित वनों (रिजर्व फोरस्ट) में तो वहां की भूमि तथा वनोपज दोनों के संदर्भ में मानव कामकाज पर प्रतिबंध लग जाता है। इन वनों में स्थानीय आबादी के अधिकारों को अनुमति देने हेतु कभी-कभी आरक्षित वन की सीमा नए सिरे से तय कर दी जाती है। या ऐसे अधिकार आरक्षित वन के किसी एक हिस्से मेें दे दिए जाते हैं, अथवा इन अधिकारों को वन बंदोबस्त अधिकारी के मार्फत लागू किया जाता है। वन बंदोबस्त अधिकारी अन्य बातों के अलावा वनोपज ले जाने के अधिकार की निगरानी करता है तथा इस बात पर ध्यान देता है कि अधिकारशुदा लोग वनोपज की बिक्री या अदला-बदली करने केभी अधिकारी है या नहीं।
1986 में पर्यावरण सुरक्षा कानून बना। इसका मकसद है कि पर्यावरण मेें प्रदूषक पदार्थों के छोड़े जाने का नियवन करना तथा खतरनाक पदार्थों पर प्रतिबंध लगाना। वन्य जीवन संरक्षण कानून की तरह ही पर्यावरण सुरक्षा कानून का भी एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया है कि वह कानून के उल्लंघन करने वाले पर सीधे खुद कोर्ट में मुकदमा चला सकता है इससे पूर्व उसे मात्र उचित अधिकारी को सूचित करना होगा। जल (प्रदूषण रोकथाम व नियंत्रण) कानून 1974 तथा वायु (प्रदूषण रोकथाम व नियंत्रण) कानून 1981 भी इस लिहाज से उपयोगी है कि इकोसिस्टम व जैव विविधता के संरक्षण हेतु अनुकुल हालात निर्मित हों। कई अदालतों ने उक्त कानूनों के तहत इस तरह के फैसले भी दिए हैं। अदालतों ने यह रुख अपनाया है कि स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार जीवन के अधिकार का ही अंग है।
मसलन केरल हाईकोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि जब प्रदूषण सहनशीलता की हद से ज्यादा हो जाता है तो यह संविधान की धारा 21 का उल्लंघन माना जाएगा। इन कानूनों के तहत दिए गए फैसलों का असर मानव जीवन के अलावा जैव विविधता पर ही पड़ता है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने नमभूमि (वेटलैण्ड्स) के संरक्षण के मामले में अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे नवभूमि पर बसाहट करने से बाज आएं और इसकी प्रकृति को बनाए रखें।
पर्यावरण विनाश तथा जैव विविधता का हृास विशेष किस्म की सामाजिक समस्याएं हैं। कोई भी समाज इकालाजी के लिहाज से तभी टिकाऊ हो सकता है जब जैव विविधता की हिफाजत करे और साथ में जीवन आधार तंत्र की सुरक्षा भी करे। इसके लिए जुड़वा प्रयास करने होते हैं। इकालाजी के स्तर पर क्षरण को रोकना और जैव संपदा का निर्माण करना। सुरक्षित क्षेत्रों का विकास इस संदर्भ में पहला कदम है। सुरक्षित क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 1.3 लाख वर्ग कि.मी. यानी भारत के कुल भूभाग का 4 प्रतिशत है। सुरक्षित वन क्षेत्र नेटवर्क रिपोर्ट की सिफारिश है कि यह क्षेत्र 1.8 लाख वर्ग कि.मी. अधिक यानी कुल भूभाग का 5.6 प्रतिशत होना चाहिए। परंतु इस लक्ष्य की पूर्ति हो जाने के बाद जैव विविधता के संरक्षण का प्रमुख मोर्चा तो गैर सुरक्षित क्षेत्रों में होगा।
1988 की राष्ट्रीय वन नीति के मुख्य घोषित मकसद इस बात में निहित है कि वनोपज का पहला अधिकार आदिवासियों तथा वनों के आसपास रहने वाले समुदायों का है ताकि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें। वर्तमान सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में संसाधनों के हालात के मद्देनजर यह जरुरी है कि कुछ नियमन किया जाए तथा गैर सुरक्षित क्षेत्रों में संसाधनों के पुनर्जनन हेतु प्रोत्साहन देने की व्यवस्था की जाए इसके लिए इकोसिस्टम में जन की भागीदारी सुनिश्चित करना एक मात्र विकल्प है। इसे हासिल करने के लिए उपयुक्त कानूनी सहारे की जरूरत होगी। निर्धनीकरण के चलते लोग इकोसिस्टम विनाश के एजेंट बनकर खुद अपने ही हितों के विरुद्ध काम करने पर मजबूर हो जाते हैं।
बंबई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में शीला बार्से द्वारा दायर याचिका में यह स्पष्ट कर दिया था कि भूमि के विनाश के चलते लोगों की मौत भी होती है।
भूमि के विनाश के परिणाम स्वरूप भोजन में कमी के अलावा जड़ी बूटियों का अभाव आदिवासियों के लिए भयानक संकट बन गया है। आदिवासियों और जैव विविधता के बीच एक परस्पर निर्भरता का रिश्ता है। इस रिश्ते को वैधानिक सहारे की जरूरत है। जैव विविधता पर असर डालने वाला मसला अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का है। वन्य वनस्पति व प्राणियों की जोखिमग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संबंधी संधि तथा आयात निर्यात नीति के तहत भारत में जैव विविधता जन्य वस्तुओं के व्यापार को संचालित किया जाता है। भारत ने जैव विविधता संधि पर भी हस्ताक्षर किए हैं तथा इनके अनुसार भारत वचनबद्ध है कि अपनी जैव विविधता की हिफाजत करेगा तथा उसका टिकाऊ ढंग से उपयोग करेगा।
इस संदर्भ में उपयुक्त टेक्नालॉजी का मिलना तथा जिनेटिक संसाधनों की साझेदारी परस्पर जुड़ी हुई बातें हैं। कई ऐसी प्रजातियां हैं जिन्हें बाहरी दुनिया जानती तक नहीं मगर देशी लोग इनका बखूबी इस्तेमाल करते हैं। यदि इन प्रजातियों को दुनिया के लिए खोल दिया जाए तो इसका टिकाऊपन खतरे में पड़ जाएगा। इसके अलावा भारत में कई जैव-उर्वरक व जैव कीटनाशक बनाकर विदेश भेजे जाते हैं। उदारीकरण के नाम पर ये सारे काम बेरोकटोक चल रहे हैं। कई बार तो इनमें बौद्धिक सम्पदा अधिकार संबंधी मुद्दों की भी उपेक्षा की जाती है। आज जैव संसाधनों के बढ़ते व्यापार के चलते किसानों व पौध संवर्धकों के अधिकारों की रक्षा करना महत्वपूर्ण हो चला है। 1994-95 आयात निर्यात नीति में इकालाजी संबंधी मामलों को जोड़ा गया है।
इसे जैव विविधता संरक्षण के सिलसिले में और पैना बनाने की जरूरत है। उपरोक्त सारी बातों पर गौर करने से और वर्तमान कानूनों की सीमाओं को देखते हुए स्पष्ट है कि बदली हुई परिस्थितियों में एक नवीन वैधानिक ढांचे की जरूरत है।