सत्य बोलना एक बड़ी पूजा है। आराधना है। तपस्या है किन्तु सत्य बोलते समय यह परख लिया जाना चाहिए।
ऋषि कौशिक एक महान तपस्वी हुए हैं। उन्होंने जीवन भर सत्य बोलने का प्रण कर रखा था। वह गंगा-यमुना के संगम पर प्रयागराज को अपनी तपस्थली बनाकर रह रहे थे। एक दिन उन्होंने एक स्त्री तथा पुरुष को भागते हुए देखा। उनकी सांस फूल चुकी थी। वे ऋषि से कुछ दूर झाडिय़ों में जा छिपे। ऋषि जान गए कि वे अवश्य किसी संकट में हैं। इतनी देर में कुछ लोग हाथों में नंगी तलवारें लिए ऋषि के सामने आ खड़े हुए।
एक ने कहा- ‘आप धर्मात्मा हैं। गंगा यमुना के संगम पर बैठे हैं। सदा सच बोलते हैं।‘ दूसरा बोला- ‘आप आज भी अवश्य सच बोलेंगे ऐसी आशा है। अभी-अभी जो नर-नारी इधर से निकले वे किधर होंगे?’
महर्षि कौशिक ने अंगुली का संकेत किया। वे समझ गए। भागे हुए उन झाडिय़ों की ओर गए। कुछ ही देर में कराहने- चीखने की आवाजें आईं तथा खून की धार दूर जा गिरी। वह जान गए कि तलवारधारियों ने उन दोनों निहत्थों का वध कर दिया है।
अगले ही दिन ऋषि की मृत्यु हो गई। उन्हें घसीटते हुए नरक ले जाया गया। तब महर्षि कौशिक ने यमराज से प्रश्न किया यह क्या भद्दा मजाक है? मैंने जीवन भर तय किया, विरक्त रहा। सदा सच बोलता रहा। फिर भी मुझे नरक ऐसा क्यों? चित्रगुप्त उठे, बोले- ‘महर्षि क्या पूछ रहे हो यमराज से? मैं बताता हूं। तुम्हारे एक इशारे से दो निर्दोष लोगों की जान चली गई। सच बोलने का यह मतलब नहीं कि तुम उसके परिणाम का अनुमान ही न लगा सको। तुम्हारे उस सच के कारण उनकी जो हत्या हुई, उसके लिए तुम्हें दण्डित किया जा रहा है। नरक तो भोगना ही पड़ेगा।‘