मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जन्म के बारे में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इन्हीं के आधार पर कहा जाता है कि भगवान राम ने माता कौशल्या को जब चतुर्भुज रूप में दिव्य दर्शन दिए तो वे उनका ज्योतिर्मय रूप देखकर घबरा गईं, इस पर भक्त वत्सल राम एक शिशु के रूप में उनके घर में प्रकट हो गए। एक और राम कथा जो कि सर्वमान्य मानी जाती है, के आधार पर ऐसी आम मान्यता है कि त्रेता युग में जब महर्षि नारद मृत्युलोक में भ्रमण करते हुए महाहिमाल की गुफाओं में चले गए तो वहां उन्हें एक अत्यन्त ही रमणीय व आश्चर्यजनक गुफा दिखाई दी। उसे देखकर नारद इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने इसी शांत व सौम्य स्थल को अपनी तपोभूमि बनाने की ठान ली व तपस्या प्रारंभ कर दी। नारद की अखंड तपस्या से देवराज इन्द्र का भी आसन डगमगाने लगा। देवराज इन्द्र ने सभी देवताओं की सभा बुलाकर नारद की तपस्या व अपनी डगमगाती स्थिति का वर्णन उनके समक्ष कर इस समस्या से छुटकारा पाने का कोई हल निकालने की बात कही। इन्द्रलोक में सदैव नृत्यमग्न रहने वाली अप्सराओं व ऋतुराज बसंत उर्फ कामदेव ने जब इन्द्र के चेहरे पर छायी मायूसी को देखा तो सहज ही इसका कारण पूछ लिया।
कामदेव की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने उन्हें अपने पास बुलाकर सारी स्थिति से अवगत कराते हुए नारद की तपस्या को भंग करने का आदेश दिया। देवराज इन्द्र की चिंता को देख कामदेव तुरंत मृत्युलोक को प्रस्थान कर गए। वे हिमालय की उस गुफा में जा पहुंचे, जहां नारद घनघोर तपस्या में लीन थे। कामदेव ने उनकी तपस्या में खलल डालने का बहुत प्रयास किया, यहां तक कि पूरे वातावरण में कामुकता व उत्तेजना भर दी, चारों और बसंत ऋतु छा गई, लेकिन नारद की तपस्या फिर भी भंग न होने पाई। अंत में जब सारे प्रयास विफल हो गए तो कामदेव पुन: देवलोक में चले गए व देवराज इन्द्र को सारा वृत्तांत सुना दिया। इधर नारद को अपनी घोर तपस्या से अभिमान हो गया और उन्होंने सोचा, जब मैं कामदेव के विघटनकारी कार्य से जरा भी विचलित न हो पाया तो यह निश्चित है कि मैंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है। अत: इन्द्रलोक का अधिकारी होने का गौरव मुझे प्राप्त होना चाहिए। यह सोचकर वे जब भगवान शिव के पास पहुंचे और कहा हे त्रिपुरारी। मैंने अपनी तपस्या के बल पर कामदेव को परास्त कर लिया है, अत: अब से मैं ‘ कामारी’ हो गया हूं और इन्द्र का समस्त लोक मुझे ही मिलना चाहिए।
नारद की बात सुनकर भगवान शंकर ताड़ गए कि नारद को अपनी तपस्या पर गर्व हो गया है। उन्होंने नारद से मुस्कराकर कहा यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है, ऊपर से तुम ब्रह्मïचारी भी हो, अत: निश्चय ही इस व्रत का पालन करना तुम्हारा धर्म है। भगवान शंकर के श्रीमुख से स्वयं की प्रशंसा सुनकर नारद के मन में और अभिमान बढ़ गया और वे गर्वित भाव से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के यहां प्रस्थान कर गए एवं सोचा कि इस घटना से वे क्षीरसागर में करुणानिधान विष्णु को भी अवगत करा दें। लेकिन घट-घट की बात जानने वाले विष्णु भगवान को जब यह बात पता चली तो उन्होंने नारद के मन में उपजी व्यर्थ की घमंड भावना को समूल नष्ट करने की सोच ली। अत: जब तक नारद विष्णु तक पहुंचे तब तक विष्णुजी ने अपने मायावी प्रभाव से बीच मार्ग में ही एक अत्यन्त सुन्दर नगर को बसा दिया। इस माया नगरी का राजा शीलनिधि को बना दिया। शीलनिधि की एक पुत्री थी जिसका नाम विश्वमोहनी था।
जब नारद, भगवान विष्णु को अपने मन की बात सुनाने के लिए खुश होकर जा रहे थे तो रास्ते में इन्द्रलोक के तुल्य खूबसूरत नगरी को देखकर एकाएक ठहर गए। नगरी में चारों ओर चहल-पहल देख वे उसी ओर जाने लगे, जहां उन्हें पता चला कि राजा शीलनिधि की पुत्री विश्वमोहनी के स्वयंवर की तैयारियां चल रही थीं। नगरी में ऋषि के आने की सूचना सुनकर राजा शीलनिधि नारद को सम्मानपूर्वक महल में ले आए और उचित स्थान पर बैठाकर अपनी पुत्री का हाथ उन्हें दिखाकर उसके गुण-दोषों को बताते हुए भविष्य के बारे में बताने का आग्रह किया।
ज्यों ही नारद विश्वमोहिनी का हाथ थामकर उसकी भाग्य रेखाएं देखने लगे तभी उनका मन उसके सौन्दर्य से विचलित हो उठा। उन्होंने राजा से कहा इस लड़की का होने वाला पति ऐसा होगा, जिसका तीनों लोकों में भी कोई मुकाबला करने वाला न होगा। ऐसा कहकर नारद वहां से चल दिए, उनके मन में विश्वमोहिनी के प्रति उपजी कामवासना उन्हें पीडि़त करने लगी। वे विश्वमोहनी को प्राप्त करने की युक्ति सोचने लगे। साथ ही यह भी सोचने को आतुर हो उठे कि किसी तरह से सुंदर हो जाऊं ताकि, मेरे रूप पर मोहित होकर राजा की पुत्री मुझे ही पति के रूप में स्वीकार कर ले।
यही सोचकर वह जल्दी से जल्दी विष्णु भगवान तक पहुंचने हेतु कदम बढ़ाने लगे, परंतु विष्णुजी को नारद की यह कुटिलता भी समझ में आ गई और उन्होंने रास्ते में ही प्रकट होकर नारद को दर्शन दिए व याद करने का कारण भी पूछा।
नारदजी ने सारी बात उन्हें बता दी एवं थोड़े वक्त के लिए विष्णुजी का रूप भी देने का आग्रह किया। विष्णुजी नारद की काम पिपासा की भावना को समझ गये तथा तथास्तु कहकर सारा रूप दे दिया, लेकिन मुंह बंदर का बना दिया। नारदजी प्रसन्नचित्त हो विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गए। विश्वमोहिनी उनका रूप देखकर जोर-जोर से हंसने लगी तथा जयमाला परपुरुष को पहिना दी। तभी शंकर के दो गणों ने नारद सेे कहा आप अपना चेहरा तो पहले देख लें बाद में शादी की सोचें, भला कौन ऐसी राजकुमारी होगी जो आपका चेहरा देखकर आपको पति स्वीकार करेगी।
नारदजी ने जब पानी में अपना बंदर-सा चेहरा देखा तो क्रोध में कांपने लगे व तुरंत ही शंकर के दोनों गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया व भगवान विष्णु को भी भयंकर श्राप देते हुए कहा, जिस औरत के लिए मेरा भरी सभा में अपमान हुआ है, उसी औरत के लिए तुम भी अगले जन्म में दर-दर की ठोकरें खाते फिरना और अन्त में यही बन्दर तुम्हारी सहायता करेंगे। नारदजी के इसी श्राप से भगवान विष्णु त्रेता युग में बसंत ऋतु के चैत्र शुक्ल पक्ष नवमीं के दिन अवधपति दशरथ के पुत्र के रूप में जन्मे थे।
राम के जन्म के बारे में एक और पौराणिक कथा है जो इस प्रकार है- अयोध्यापति महाराज दशरथ का जब चौथापन आ गया तब तक उन्हें कोई संतान प्राप्त न थी। उन्होंने अपनी चिंता जब गुरु वशिष्ठजी के समक्ष रखी तो उन्होंने कहा आपको संतान तब प्राप्त होगी जब श्रृंगी ऋषि से पुत्रेष्टिï यज्ञ करवाया जाये। गुरु वशिष्ठï की बात मानकर राजा दशरथ ने अपने दूतों को भेजकर श्रृंगी ऋषि को बुलवाया व पुत्रेष्टि यज्ञ पूर्ण करवा लिया। यज्ञ के दौरान जब श्रृंगी ने आहुति डालकर अग्निदेव को प्रकट किया तो उनके हाथों में एक हविपिंड था, उन्होंने अग्निदेव से वह हविपिंड लेकर राजा दशरथ को देते हुए कहा कि ये पिंड तीनों रानियों में बराबर बांट दें व उनसे कहें कि वे इसे खा लें।
राजा दशरथ ने ऐसा ही किया, रानियों ने भी हविपिंड में रखी खीर को खा लिया और इसी के परिणामस्वरूप तीनों रानियां यथा समय गर्भवती हो गईं तथा समय पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी को भगवान विष्णु ने ही कौशल्या की कोख से राम के रूप में जन्म लिया।
यह सब राम जन्म के संबंध में ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने रामकथा से शताब्दियों से भारतीय मानस को बांधे रखा है और हिन्दू धर्म तथा राम परस्पर एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं।
रामायण जैसे महान गं्रथ पर ही सभी का विश्वास अडिग है, क्योंकि जनश्रुतियां नेति-नेति कहकर जिस ईश्वर का बखान करती आ रही हैं, वही राम का सर्वेश्वर मूल है तो सर्वाधार भी है।