अवसर था राम जन्म के ग्यारह दिन बाद नाम-करण संस्कार का। राजा दशरथ के आग्रह पर मुनि वशिष्ठ ने चारों भाइयों के अनुपम नाम विचार रखे थे। नाम रखते समय प्रत्येक नाम की गुणों और कार्यों की व्याख्या की गई। ये गुण और कार्य सदैव शाश्वत थे और प्रत्येक देश काल के लिए उपयोगी भी। रामायण की अलौकिकता और लोकप्रियता के अनुसार ही ये गुण थे, जिन्होंने जनमानस में ऐसे राम को भगवान के रूप में बसा दिया, जो मानवत्व से देवत्व की ओर गए। राम के अलौकिक चरित्र ने राम का महत्व लोकोत्तर बनाया और राम को ऐसा विषय बनाया, जो कभी समाप्त नहीं होता। राम कथा मानव जीवन की ऐसी कहानी बन गई, जो प्रतिदिन प्रतिपल हमारे जीवन में चलती रही।
राम के वनवास की खबर सुनकर लक्ष्मण ने रोष में राम से कहा ‘यदि कैकेयी के प्रोत्साहन देने पर उसके ऊपर संतुष्ट हो पिताजी हमारे शत्रु बन रहे हैं तो हमें भी मोह ममता छोड़कर इन्हें कैद कर लेना या मार डालना चाहिए।‘पर राम ने उत्तर में इतना ही कहा कि कुटुंब को दु:खी करके उन्हें राज्य नहीं चाहिए। भातृसंबंधों का होम करते हुए उन्हें विश्व का राज्य भी स्वीकार नहीं था। एक ओर तो उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि, ‘मैं राज्य करूंगा तो कत्र्तव्य के नाते, लोलुपता से नहीं’ और दूसरी ओर उनकी यह मान्यता थी कि, ‘केवल धर्महीन राज्य के लिए मैं महान फलदायक धर्मपालन रूप सुयश को पीछे नहीं ढकेल सकता।‘जीवन अधिक काल तक रहने वाला नहीं है, इसके लिए मैं अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता।
राम को सत्ता या राज्य विस्तार का लोभ होता तो बालिवध के बाद राज्य सुग्रीव को न देकर स्वयं ले सकते थे। इसी प्रकार लंका के पतन के बाद उनका राज्य भी अधिग्रहण कर सकते थे। पर राम ने तो विभीषण को वचन ही नहीं दिया था वरन राज्य अभिषेक भी करवा दिया था।
राम की प्रजा ही राम का सर्वस्व था। वे लोकोत्तर राजा थे, अत: उन्हें लोकोत्तर आत्म विश्वास प्राप्त था। वे कितने बड़े लोकतंत्रवादी थे यह उस प्रकरण से स्पष्ट हो जाता है, जब उन्होंने पुरवासियों की एक महती सभा में प्रजा को कहा-
सुनहु सकल पुरजन ममबानी।
कहउं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्महि सोहाई।।
आगे कहा कि यदि, ‘जो अनीति कछु भाषौ भाई। तो मोंहि बरजहु भय बिसराई।।‘
गुरु वशिष्ठ ने संसार का भरण-पोषण करने वाले का नाम भरत रखा और नाम की कार्यात्मक व्याख्या करते हुए कहा ‘बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।‘ राज्य के भरण-पोषण का दायित्व खाद्य और आपूर्ति मंत्री का होता है। भरत को तो अपने दायित्व के साथ साथ राम के वन गमन के बाद राम द्वारा दिए गए नीति संदेशों का भी पालन करना था। राम ने वन में भरत से अनेक प्रश्न किए थे जिनमें कुछ थे- ‘भरत! तुम कृषि करने वाले और गोपालन से आजीविका चलाने वाले श्रमिकों को प्यार करते हो न?’
‘भरत! यदि धनी और गरीब का विवाद छिड़ा हो और वह राज्य में न्यायालय के निर्णय के लिए आया हो, तुम्हारे मंत्री गण धन आदि के लोभ को छोड़कर उस मामले पर विचार करते हैं न?’
‘तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुंचाते? देश की सुरक्षा का भार शत्रुघ्न को सौंपा गया। वशिष्ठ के अनुसार ‘जाके सुमिरन ते रिपु नासा। नाम शत्रुहन बेद प्रकाशा।‘ अर्थात् जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध शत्रुघन नाम है। नाम और काम तो दिया वशिष्ठ ने, पर राम ने पुन: वन में भरत से पूछा कि ‘सैनिकों को देने के लिए नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर दे देते हो न? देने में विलंब तो नहीं करते? यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिए जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामी पर अत्यंत कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ हो जाता है।‘
अभी नाम संस्करण प्रक्रिया शेष थी। शेष-अवतार लक्ष्मण को शुभ लक्षणों के धाम, श्रीराम के प्रिय और सारे जगत के आधार निरुपित कर मुनि वशिष्ठ ने उनका लक्ष्मण जैसा श्रेष्ठ नाम रखा।
लच्छन धाम राम प्रिय
सकल जगत आधार।
गुर वसिष्ठ तेहि राखा
लछिमन नाम उदार।।
राम तो लक्ष्मण को अयोध्या में ही रखना चाहते थे, क्योंकि भरत और शत्रुघन घर पर नहीं थे और महाराज दशरथ वृद्ध थे। उन्होंने समझाया कि ‘इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊं तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी।Ó राम ने यह भी कहा कि ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।Ó
राम अर्थात् राष्ट्र। राम की प्रजा ही राम का जीवन था। उनके पास लोकोत्तर पराक्रम था, बाहुबल था, फिर भी प्रजा पर अत्यधिक प्रेम था। राम जहां जाएं राष्ट्र भी वहां जाएगा। राम वन में जाएं तो वन ही राष्ट्र। राम वनागमन पर प्रजाजन कहते हैं, ‘राम हमारे क्या नहीं? पिता पुत्र सब ही तो है।
‘न हि तद भविता राष्ट्रं
यत्र रामो भूपति:।
तद् वनं भविता राष्ट्रं
यत्र रामो निवत्स्यति।।‘
राम अर्थात् राष्ट्र का पर्यायवाची स्वरूप, विशेषकर राष्ट्र की अखंडता और भावनात्मकता एकता का सर्वोत्तम फल उस समय देखने को मिलता है, जब राम रामेश्वर की स्थापना करते हुए उत्तर दक्षिण की अक्षुण्य अखंडता को रामेश्वर के दर्शन करने और हिमालय से निकली गंगा के जल को रामेश्वर पर चढ़ाने से जोड़ते हैं।
राम स्वयं एक ओर समुद्र के समान गंभीर थे तो दूसरी ओर हिमालय के समान दृढ़ धैर्यवान थे। राम हिमालय से दक्षिण के गंभीर समुद्र तक राष्ट्रीय एकता के स्वरूप थे।
‘समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव।‘
राम की राज-नीति और अर्थ नीति में न तो आरक्षण था और न आरक्षण विरोध ही। ऊंच नीच का भेदभाव नहीं था। कोल, भील, निषाद आदि जो हीन दृष्टि से देखे जाते थे, राम ने उन्हें अपनाकर उनका सामाजिक कलंक धो दिया। पैदल जनसंपर्क बढ़ाते हुए वे बिना किसी भेद भाव के सबसे मिलते और झोपडिय़ों तक में आतिथ्य ग्रहण करते हुए जंगलों में विचरते रहे। शबरी शूद्रा थी, उसके चखे बैर खाने में कोई संकोच नहीं था। निषाद शूद्र था, उनके कंद मूल फल ही नहीं खाए, बल्कि उसे सखा माना।
लंका विजय के बाद श्रंगवेरपुर में निषांद को साथ ले लिया और राज्याभिषेक के बाद उसे भी तुम मम सखा भरत सम भ्रातां कहकर वस्त्र आभूषण भेंट दिए। राम के कार्य, व्यवहार, चरित्र और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर प्रजा का प्रत्येक वर्ग उन्हें प्राणों से अधिक प्यार करता था। यही कारण है कि भरत जब उन्हें लौटाने के लिए गए तो उनके साथ कुछ मंत्री या मुनिगण ही नहीं गए, बल्कि कुम्हारे, जुलाहे, शस्त्र व्यवसायी, मोतियों में छेद करने वाले, रंगरेज हाथी दांत का काम करने वाले, चूने की पुताई करने वाले, सुनार, दर्जी आदि अनेक पिछड़ी जातियों व श्रमजीवियों के दल भी सम्मिलित थे।
एक अन्य प्रसंग पर सबसे अधिक प्रिय कौन? की व्याख्या करते हुए उन्होंने द्विज, वेद-ज्ञाता, निगम वर्णित धर्म का अनुसरण करने वाले ज्ञानी और विज्ञानी की चर्चा करते हुए सबसे प्रिय तो बिना ऊंच नीच, जाति पांति के उस सेवक को बताया जिसे राम को छोड़कर अन्य कोई सहारा नहीं था।