पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में श्रीवेदव्यासजी संजय जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि जब माता पार्वती ने स्कन्द और गणेशय भगवान् शिव के इन दो पुत्रों को जन्म दिया, तब सारा त्रौलोक्य प्रसन्न हो गया। सारे देवताओं के हृदय में भगवती के प्रति जो श्रद्धा थी, वह कई गुणा अधिक बढ़ गई। सभी देवताओं ने मिलकर अमृत से एक मोदक (लड्डू) तैयार किया और मां पार्वती के हाथ में रख दिया।
मां के हाथ में सुन्दर मोदक देखकर दोनों छोटे छोटे बालकों के मन में उसे पाने की इच्छा हुई और वे मां से मांगने लगे। भगवती पार्वती उन दोनों के बाल सुलभ चेष्टाओं को देखकर स्नेहयुक्त वाणी में बोली, ‘तुम दोनों जिस मोदक को मांग रहे हो, वह कोई सामान्य मोदक नहीं है। इसे तो सूंघने मात्रा से अमरत्व प्राप्त होता है और जो इसे खाता है, उसे अमरत्व के साथ साथ सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जाएगा। सृष्टि का सबसे बड़ा लेखक व चित्राकार होगा। ज्ञान विज्ञान के समग्र तत्त्व उसके हृदय में स्वतः प्रकट होंगें। अब जब इस मोदक में इतने सारे गुण हैं तो यह आप में से किसी एक को ही प्राप्त होगा, जो इसे पाने की योग्यता रखता हो। तो तुममें से जो भी धर्म आचरण द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करेगा, उसी को मैं यह मोदक दूंगी। आपके पिताजी की भी यही इच्छा है।‘
धर्माचरण की बात सुनते ही स्कन्द जी तो तुरन्त मयूर पर आरूढ़ होकर तीर्थाटन के लिए निकल गए। इधर गणेश जी आयु में तो स्कन्द से छोटे थे पर बुद्धिमानी में उनसे बड़े थे। उन्होंने माता पिता की परिक्रमा की और बड़ी श्रद्धा के साथ पिताजी के सम्मुख खड़े हो गए। उधर मुहूर्त भर में ही त्रिलोकी के तीर्थ में स्नान करके स्कन्द जी भी माता पिता के सामने आकर खड़े हो गए और कहने लगे, ‘अब मोदक मुझे दे दीजिए।‘
तब भगवती पार्वती उनसे बोली, ष्बेटा! सारे तीर्थो में किया गया स्नान, दान, नमस्कार व सभी यज्ञों का अनुष्ठान को मिला देने पर भी इनका जो पुण्य होता है, वह माता पिता के पूजन से प्राप्त हुए पुण्य का सोहलवें अंश के बराबर भी नहीं होता। इसीलिए यह देवताओं का बनाया हुआ मोदक तो मैं गणेश को ही अर्पण करती हूं।‘
भगवान् शिव ने भी गणेश जी को प्रत्येक यज्ञ में अग्रपूजन का वरदान दिया। कल्पभेद से कथाभेद होकर यह प्रसंग अन्य कई पुराणों में भी आता हैं।