मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में सैलाना में खरमोर बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष वर्षाऋतु में चार माह के लिये आते हैं। इनकी राष्टï्रीय स्तर पर घटती हुई संख्या के कारण इस पक्षी को संकटापन्न की श्रेणी में रखा है। इनका रहवास घास का वह क्षेत्र है, जो सामान्यत: खेतों के आस-पास स्थित है। ग्रामीण लोग इसे भटकुकड़ी नाम से भी पहचानते हैं। सैलाना क्षेत्र के अतिरिक्त धार जिले में सरदारपुर क्षेत्र में भी खरमोर पक्षी आते हैं।
खरमोर पक्षी का आकार साधारण मुर्गे के बराबर होता है। खरमोर पक्षियों के आगमन से सामान्यत: 10 से 15 दिवस पश्चात् नर पक्षी घास के मैदानों में अपनी टेरीटरी निर्धारण का प्रयास करने लगते हैं। इसके शर्मीले होने के कारण इसे दूर से ही देखा जाता है। कई बार नर पक्षी बिना कोई टेरीटरी निर्धारित किये खेतों में घूमते-घूमते भी छोटी-छोटी जम्प करते हुये देखे गये हैं। घांस की ऊंचाई 20 सेमी. होने के पश्चात् नर पक्षी अपनी टेरीटरी स्थापित कर एक स्थल पर कूदना प्रारंभ कर देते हैं।
सामान्यत: नर पक्षी 3 से 4 फीट की ऊंचाई तक कूदते हैं एवं कई बार एक दिन में 400 बार तक भी एक ही स्थल पर कूदते हुए देखे गए हैं। कूदते समय नर पक्षी अपने पंखों का सफेद भाग विशेष रूप से प्रदर्शित करते हैं एवं एक तेज विशेष प्रकार की टर्र-टर्र आवाज करते हैं जो कि 500 मीटर तक सुनी जा सकती है। सामान्यत: नर पक्षी ऊंचे स्थलों का कूदने हेतु चयन करते हुए देखे गये हैं, ताकि दूसरे नर पक्षी को स्पष्टï तौर पर उनकी टेरीटरी का आभास हो सके तथा उन्हें मादा को आकर्षित करने में भी सुविधा रहे। अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक सामान्यत: कूदना अथवा प्रदर्शन करना समाप्त हो जाता है। खरमोर की इस कूद को निहारने के लिए रतलाम जिले के सैलाना स्थित शिकारवाड़ी क्षेत्र ने पक्षीविदों को हमेशा आकर्षित किया है।
एक शताब्दी पूर्व खरमोर पूरे भारत वर्ष में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिणी तट तक पाये जाते थे। ऐसा माना जाता रहा था कि समस्त ऐसे खुले क्षेत्र जो घांस से परिपूर्ण थे, वहां खरमोर पक्षी किसी न किसी अवधि में अवश्य प्रवास करते थे। 20वीं शताब्दी के मध्य तक ऐसा माना जाता रहा कि खरमोर पक्षी मुख्यत: गुजरात, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के विभिन्न भागों में प्रजनन हेतु आते हैं एवं प्रजनन उपरान्त दक्षिणी भारत को पलायन करते रहे हैं। 20वीं शताब्दी के अंत तक खरमोर पक्षी की संख्या कम होना स्पष्टï तौर पर पाया जाने लगा एवं वर्षाऋतु में प्रजनन हेतु ये केवल कुछ घास के मैदानों में ही दिखाई लेने लगे। वर्ष 1980 के पश्चात से खरमोरों की संख्या में कमी आने से इनके रहवास इत्यादि के बारे में विशेष ध्यान दिया जाने लगा एवं कई क्षेत्रों को अभ्यारण्य भी घोषित किया गया। बर्ड लाइफ इन्टरनेशनल द्वारा इसे संकटापन्न घोषित किया गया है।
महान पक्षीप्रेमी सालीम अली ने स्वयं सैलाना क्षेत्र में आकर खरमोर संरक्षण के लिये प्रेरणा दी थी। श्री अली की प्रेरणा से म.प्र. सरकार ने 15.6.1983 को रतलाम जिले के 851.70 हेक्टेयर वन क्षेत्र तथा ग्राम सैलाना एवं शेरपुर के 445.73 हेक्टेयर राजस्व क्षेत्र को खरमोर पक्षी अभ्यारण्य क्षेत्र वन्यप्राणी संरक्षण के लिये अधिसूचित किया है। राजस्व क्षेत्र सैलाना के अन्तर्गत 355 हेक्टेयर क्षेत्र शिकारवाड़ी के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र पूर्व में सैलाना रियासत का शिकारगाह रहा है, यह खरमोर देखने के लिए उचित स्थान है। यह क्षेत्र ऊंचा-नीचा होकर चारों ओर खेतों से घिरा हुआ है। शेरपुर में 90 हेक्टेयर क्षेत्र में घांस बीड़ अभ्यारण्य के अन्तर्गत अधिसूचित हैं।
वन विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष उपरोक्त अधिसूचित क्षेत्र को वर्षाऋतु प्रारम्भ होने से पूर्व चराई से रोकने हेतु प्रयास किये जाते हैं। अभ्यारण्य के आसपास के ग्रामीणों से चर्चा की जाकर चराई रोकने हेतु समझाइश दी जाती रही है। सीजन समाप्त होने के उपरान्त वन क्षेत्र में उपलब्ध घास ग्रामीणों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाती है। खरमोर पर हुए विभिन्न शोधकार्यों से यह स्पष्टï हुआ है कि वर्षाऋतु प्रारम्भ होते ही खरमोर का घास के मैदान में आना प्रारम्भ हो जाता है एवं सामान्यत: दो-तीन दिवस की अच्छी वर्षा के उपरान्त खरमोरों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। वर्षाकाल के प्रथम 15 दिवसों में अच्छी वर्षा होना खरमोर की संख्या अधिक होने के संकेत देती है।
खरमोर संरक्षण में जनसहयोग
अभ्यारण के अधिसूचित क्षेत्र के अतिरिक्त रतलाम जिले में कई घास बीड़ें निजी आधिपत्य में भी विद्यमान हैं एवं वन विभाग के सर्वे इत्यादि से ज्ञात हुआ है कि इन निजी घांस बीड़ों में भी खरमोर प्रवास करते रहे हैं। वन विभाग के आधिपत्य में न होने से इन घांस बीड़ों के प्रबंधन एवं सुरक्षा इत्यादि के संबंध में वन विभाग द्वारा कोई विशेष प्रयास पृथक से किया जाना संभव नहीं हो पाता था। विभिन्न स्तरों पर अध्ययन से स्पष्टï हुआ कि निजी क्षेत्रों में आने वाले खरमोर का संरक्षण तब ही संभव है, जब क्षेत्र मालिक को प्रोत्साहन दिया जाये। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वन विभाग द्वारा खरमोर संरक्षण इनामी योजना वर्ष 2005 से लागू की गई। इस योजना के अनुसार यदि किसी व्यक्ति द्वारा खरमोर के आने की सूचना दी जाती है एवं वन कर्मियों द्वारा खरमोर, सूचना के आधार पर पाया जाता है तो सूचना देने वाले व्यक्ति को रुपये 1000 का ईनाम दिया जाता है। यदि सूचना के उपरान्त खरमोर का निजी घांस बीड़/खेत में संरक्षण, पूर्ण सीजन तक किया जाता है तो संरक्षण करने वाले कृषक को कुल रुपये 5000 प्रोत्साहन राशि के रूप में दिये जाते हैं। वर्ष 2005 में इस योजना का प्रचार यथा संभव किया जाकर कुल 12 खरमोर, अभ्यारण्य के बाहर क्षेत्र में विभिन्न कृषकों की सहायता से दिखाई देना संभव हो सके। इस योजना के अन्तर्गत घांस बीड़ मालिकों द्वारा रुचि ली जा रही है एवं प्रतिवर्ष खरमोर निजी घांस बीड़ों में दिखाई दे रहे हैं।
यह सुखद है कि खरमोर संरक्षण में समुचित जनसहयोग मिल रहा है। वैसे भी आजकल रंगबिरंगे पक्षियों को निहारने के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं।
मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का सिलसिला लगातार जारी है। दुनिया में बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसके नतीजे हम भुगत भी रहे हैं। इंसानों की गलतियों का खामियाजा अब पशु-पक्षियों को भी भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में प्रवासी पक्षी खरमोर के प्रति लोगों द्वारा आत्मीयतापूर्ण व्यवहार कर संरक्षण प्रदान करना सचमुच सुखद संकेत है।