शायद ही कोई ऐसे माता-पिता हों जो न चाहते हों कि उनके बच्चे सही रास्ते पर चलें, आगे चलकर यश कमायें और समाज के बड़े लोगों में गिने जायें। पर वे शायद यह नहीं देखते कि इन बातों के लिए जरूरी है उनके अंदर सही संस्कार डाले जाए और घर में ऐसा वातावरण बनाये रखा जाए जिससे उनका स्वस्थ मानसिक तथा भावनात्मक विकास हो सके।
हम बच्चों के सामने झूठ बोलते हैं, हेरा-फेरी से पैसे कमाने की तरकीब सोचते हैं, आपस में लड़ते हैं, पड़ोसी और रिश्तेदारों की निंदा करते रहते हैं, वीडियो पर फिल्में देखकर उसी को जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते हैं, जिनके पास ये चीजें नहीं हैं, उन्हें छोटा समझते हैं और अक्सर शान तो बघारते ही हैं, गंदी बातें करते और मुंह से गालियां भी निकालते हैं। खुद तो न जाने कितने प्रकार के व्यसन पालते हैं, लेकिन यह भी उम्मीद लगाये होते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर आदर्श नागरिक बनेंगे।
हमने ऐसे न जाने कितने परिवार देखें हैं जिनमें इम्तिहान के दिनों में भी माता-पिता खुद तो वीडियो पर फिल्में लगाये बैठे होते हैं पर बच्चों से आशा करते हैं कि वे किसी दूसरे कमरे में बैठकर पढ़ते रहें। फिर यदि उनके अंक कम आ गये तो डांटते-फटकारते और कभी-कभी मारते-पीटते भी हैं।
नतीजा वही होता है जो खरबंदा साहब के बेटे के साथ हुआ। बेटा चार साल का हुआ तो दिल्ली के एक स्कूल में दाखिले के लिए ले गये। जैसा होता है, माता-पिता समेत बच्चे को भी इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। अध्यापिका ने पूछा- राष्ट्रगान गा सकते हो? बच्चा चुप रहा। अध्यापिका ने जब फिर पूछा कि कोई और गाना गा सकते हो, तब बच्चा ‘मैं हूं डॉन, मैं हूं डॉनÓ गाता हुआ अध्यापिका की ओर घूंसे तानने लगा। परिणाम वही हुआ जो होना था दाखिला नहीं हुआ। पर बात वहीं खत्म नहीं हुई। मां-बाप ने पड़ोसियों से यह भी प्रचार कर दिया कि इन्टरव्यू तो बढिय़ा हुआ था, अध्यापिका ही रिश्वत मांग रही थी, इसलिए हम लोग ही लात मारकर चले आये।
अब देखिये कि इस खरबंदा परिवार ने एक तो शुरू से ही बच्चे को एक गलत संस्कार में पाला, जिसकी वजह से उसको असफलता मिली तो पड़ोसियों के सामने झूठ बोलकर उसके मन में एक और गांठ पैदा कर दी। दूसरे बच्चे के मन में झूठ, कटुता तथा हीनता के बीज बोये। इस तरह माता-पिता की वजह से जिंदगी की पहली सीढ़ी पर ही वह मात खा गया।
यही स्मरण आता है श्रीमती साहनी का। पड़ोस में किसी बच्चे का ‘बर्थ-डे’ था तो अपनी छोटी सी बिटिया अकू को झूठा हार पहना कर भेज दिया और सिखा दिया कि कोई पूछे तो कहना असली है और यह भी बता देना कि सात हजार का है। नतीजा यह हुआ कि पार्टी में बच्ची पूरे समय अपना हार ही छूती रही, किसी ने पूछा नहीं तो घर आकर रोने लगी। वैसे हार असली भी हो तो उसे ‘शो’ की चीज समझना या दूसरों पर रौब डालने के बहाने के रूप में इस्तेमाल करना सभ्यता या संस्कृति में शामिल नहीं होता। बच्ची के मन में झूठ, दिखावे और पराजय की भावना पैदा हुई सो अलग।
बच्चों की उपलब्धियों को लेकर भी हमेशा झूठ बोलते रहना हमारी खास आदत है। वह कक्षा में प्रथम आया है, यह तो रोज ही सुनने को मिलता है। पता लगाएं तो उसी कक्षा में इस तरह के न जाने कितने ‘प्रथम आये हुए’ बच्चे निकल आएंगे। श्रीमती जुनेजा तो एक ‘किटी पार्टी’ में एक बार इतना झूठ बोलीं कि सोचकर हंसी आती है। बोलीं- मेरी रेनू के तो नब्बे प्रतिशत अंक आये हैं। क्या पता था उनको कि वहीं उषा मान भी बैठी हैं और उनकी लड़की भी उसी स्कूल में पड़ती है। सो दूसरे दिन श्रीमती मान ने कह दिया कि रेनू के नम्बर देखकर आना। फिर वह श्रीमती जुनेजा के घर गईं और बोल आयीं कि रेनू के अंक तो सिर्फ पचास प्रतिशत हैं, मेरी बेटी देखकर आयी है। उन्होंने रेनू को यह भी कहा कि तुम्हारी मां झूठ बोलती हैं तो रेनू अपमानित होकर रोने लगी। मिसेज जुनेजा पर घड़ो पानी। बदनाम हुईं सो अलग। और बेचारी रेनू ने भी अपनी मां के बारे में क्या सोचा होगा?
इसी तरह कुंठा और हीनभावना के शिकार हम लोग अपने बच्चों को लेकर न जाने कितनी-कितनी बातें उड़ाते रहते हैं। यही नहीं, उनसे ऐसे काम भी करवाते हैं, जिससे बच्चों के आत्म-सम्मान को ठेस लगती है। पड़ोस से बेसन या चीनी या चाय के लिए थोड़ा दूध या दही के लिए जामन मांग लाने का अपमान बच्चों को कितना असहनीय लगता होगा। काश कि हम यह समझते कि इससे उनका मर्म कितना आहत होता है। पड़ोसी सामान आदि देते समय उन बच्चों को कितनी बुरी नजरों से देखते हैं, यह एक संवेदनशील बच्चा नहीं भूलता। कई बार तो उसे ताने भी सुनने पड़ते हैं और वह अंदर ही अंदर घुटकर रह जाता है।
श्रीमती शर्मा का लड़का पढऩे में बहुत कमजोर है। साल-दो साल में कॉलेज में दाखिले का समय आयेगा। वे जानती हैं कि इतने कम अंकों वाले बच्चों का कॉलेज में प्रवेश पाना लगभग असंभव है। इसलिए अपनी इस असफलता को छिपाने का एक दूसरा तरीका उन्होंने अपनाया है। लोगों से कहती रहती हैं…. ‘इसे तो यहां कॉलेज का मुंह नहीं देखना है, सीधा अमेरिका जाकर पढ़ेगा।‘ अब क्योंकि वह भी यह जानती है कि वह खीर कितने टेढ़ी है, फिर भी अपने और अपने बेटे के मन में एक खतरनाक भ्रम पाल रही हैं । वह उसे आश्वस्त भी करती रहती हैं। ‘तू घबरा नहीं, तेरे को अमेरिका भिजवा दूंगी।‘ जिस दिन यह भ्रम टूटेगा तो झूठ की पटरियों पर दौडऩे वाला मन किस दिशा में जाएगा। आसानी से कल्पना की जा सकती है।
बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए अच्छे साहित्य का चुनाव करना तो दूर, अधिकतर माता-पिता जानते भी नहीं कि अच्छा साहित्य क्या होता है। पत्र-पत्रिकाओं के नाम पर भी घर में कुछ फिल्मी मैगजीन मंगाते हैं, जिन्हें शान के साथ सजाकर बैठक में रख देते हैं। किताबों से तो उनका नाता कभी रहा ही नहीं और रहा भी हो तो कॉलेज से निकलने के बाद टूट गया होगा।
कभी दूसरों से भी नहीं पूछेंगे कि बच्चों के लिए कौन-सी पत्रिकाएं अच्छी हैं या उनके लिए कौन-सी किताब या किताबें कहां से खरीदी जायें। सच्चाई यह है कि उनके मासिक बजट में पुस्तकों तथा बाल-पत्रिकाओं की खरीद के लिए कोई व्यवस्था भी नहीं होती। पर बच्चा नई-नई बातों को जानने-समझने की अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा को तो शांत करेगा ही, इसलिए जो भी मिल जाता है, उसे लाकर पढ़ता है और दुनिया तथा समाज के बारे में एक गलत तस्वीर लेकर बड़ा होता है।
बड़े-बड़े शहरों की बात तो अलग छोटे-छोटे नगरों और कस्बों में भी बच्चों का अंग्रेजी नाम रखना एक फैशन होता जा रहा है। ‘रोजी’ और ‘गोल्डी’ तो न जाने कब से फैशन में हैं, अब तो ‘एलिजाबेथ ‘ ‘मागरेट’ को भी ढूंढने मुहल्ले से ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता। एक नव-दम्पति के जब पहला बेटा हुआ तो उसका नाम ‘फिफ्टी’ रखा…यानी आधा मेरा और आधा तेरा। बड़ा होकर मोहल्ले के दूसरे बच्चों में वह मजाक की चीज हो गया। नतीजा यह हुआ कि वह अपनी ही उम्र के बच्चों से कतराने लगा और घर से बाहर निकलने में संकोच का अनुभव करने लगा।
परीक्षक को रिश्वत देने का यत्न करने से लेकर भगवान को लड्डू चढ़ाने तक…पढ़ाई-लिखाई में चौपट बच्चे को भी अधिक से अधिक नम्बर दिलाने का कौन-सा तरीका आज के माता-पिता नहीं अपनाते? एक दिन एक धर्मस्थल में देखा कि पांच-छह साल का एक बच्चा पैसे चढ़ाकर कह रहा था- ‘गाड जी, क्लास में मुझे फस्र्ट करा दे, कल और पैसे लाऊंगा’ लड़के के साथ उसकी मां भी थी। अपने ही बच्चे के मन में इस तरह से अंधविश्वास के बीज डालकर वह कितनी खुश हो रही थी?
इसी तरह के न जाने कितने माता-पिता होंगे, जो अपनी आत्मीय मातृ-भाषा को छोड़कर अपने बहुत छोटे बच्चों को भी चिडिय़ों, जानवरों, फलों तथा अन्य चीजों के अंग्रेजी नाम सिखाने लगते हैं। होता यह है कि बच्चे अपनी ही भाषा को कोई निकम्मी और गिरी हुई चीज समझने लगते हैं। इतना ही नहीं, अंग्रेजी के शब्दों को भी तो वे ठीक से नहीं समझ पाते और ‘डाग को डागीÓ या नोज को नोजी कहने लगते हैं। आगे चलकर जब उनको अपनी गलती का अहसास होता है, तब शर्मिंदा होते हैं।
इन पंक्तियों का लेखक अनेक ऐसे परिवारों को जानता है, जिनमें बच्चे यह जीवन दर्शन लेकर आगे बढ़ रहे हैं कि हेराफेरी या चाहे जैसे भी कमाया हुआ, पास में पैसा और कुछ जान-पहचान हो तो कौन-सा ऐसा काम है, जो नहीं हो सकता? और यह भी कि ‘बदन पर कपड़े यदि शानदार हैं तो पढऩे-लिखने अथवा सभ्य या सुसंस्कृत होने की भी जरूरत नहीं…लाइन तोड़कर, दूसरों को धकियाते हुए आगे निकल जाइए।‘ बच्चों के सामने हर घड़ी अपने ही देश की बुराइयां करना और बाहर के लोगों और बाहर की चीजों की दुहाई देना भी ठीक नहीं। नतीजा यह होता है कि बच्चे अपने देश के प्रति गर्व और गौरव का भाव नहीं रखते। देश के लोगों और देश की चीजों के प्रति असम्मान, घृणा और विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण का भाव लेकर बढ़ते हैं।
तो आइये, हम एक बार अपने आप से ईमानदारी से पूछें कि क्या हमारा यह व्यवहार बच्चों के अंदर स्वस्थ मानसिकता को जन्म देगा?