सीतामढ़ी बिहार से करीब 42 किलोमीटर उत्तर और नेपाल की तराई में स्थित जनकपुर, हिन्दू धर्मावलम्बियों का प्रधान तीर्थ है। यहीं जानकी का विवाह हुआ था। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु वहां जाते हैं। प्राचीनकाल में यह मिथिला की नाभिभूमि या राजधानी थी, जहां जनक से कर्मयोग के व्यवहारिक ज्ञान हेतु देश विदेश के जिज्ञासु जाते थे। यह विवेकियों का गढ़ था।
’शतपथ ब्राहमण‘, ’तैतिरीय ब्राहमण‘, ’वृहदारण्यक‘ उपनिषद् इत्यादि में उसकी चर्चा अनेक बार आयी है। ’वृहद्विष्पुराण‘ के अनुसार तीर्थाटन की पूर्णाहुति वहीं जाकर होती थी। वैसे तो वहां अनेक मंदिर, मंडप, कुंड इत्यादि हैं परन्तु प्रमुख जानकी मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, विवाह मंडप एवं राम मंदिर हैं। उनमें प्रथम तीन तो एक ही विशाल प्रांगण में अवस्थित हैं।
किलानुमा दीवारों से घिरे वहां के सर्वप्रमुख एवं विशाल जानकी मंदिर के निर्माण की कथा है कि विवाहोपरान्त जब सीता राम जनकपुर से प्रस्थान करने लगे तो दुःख से जनक मूर्च्छित हो गये। उन्होंने सीता राम के स्मरणार्थ विश्वकर्मा को मूतियां तैयार करने का अनुरोध किया। कालांतर में वे मूर्तियां भूमिसात् हो गयी।
उक्त प्रमुख मंदिर का निर्माण मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानुकुमारी ने संतान प्राप्ति की मन्नत पूरी होने पर उसी जगह कराया, जहां जगजननी जानकी की प्रेरणा से उनकी ही एक प्रतिमा तीर्थराज प्रयाग के साधु सुरकिशोर दासजी ने एक पेड़ की जड़ में पाई। उस मंदिर को ’नौलखा मंदिर कहते हैं इस‘ के बरामदे पर हनुमान जी की एक विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठापित है।
किंवदन्तियों के अनुसार वहां जानकी मंदिर के समक्ष स्थित लक्ष्मण मंदिर का ही निर्माण सर्वप्रथम हुआ। कहा जाता है कि मिथिला में हति के पुत्रा तथा कृति के पिता बहुलाश्व नामक जनकवंशीय अंतिम नरेश के समय भीषण अकाल पड़ा जिससे मुक्ति के लिए उन्होंने स्वयं उत्तराखंड में बारह वर्षों तक जब तपस्या की तो उन्हें शेष भगवान ने एक उपाय बताते हुए कहा कि ’मैं प्रत्येक त्रोतायुग में श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के रूप में जन्म ग्रहण करता हूं, इसलिए मेरा एक मंदिर बनवायें। कालक्रम में वह मंदिर जब विनष्ट प्राय होने लगा तो जीर्णोद्धार कराया नजदीक के ही एक नरेश ने।
जानकी मंदिर की बायीं ओर अवस्थित नण्य एवं भव्य विवाह मंडप, सीताराम के मूल विवाह मंडप ’मणि मंडप‘ से करीब दो किलोमीटर पर हैं, जिसके निर्माण में महन्थ नवलकिशोरदास जी की प्रेरणा है। वैसे उन्होंने ’मणि-मंडप‘ में ’विवाह मंडप‘ बनाने की तैयारी आरंभ कर दी थी किन्तु उनकी आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर महन्थ रामशरणदासजी के प्रयास से नेपाल नरेश ने उस विवाह मंडप को बनवाया।
उसमें सीताराम के माता पिता के साथ ही श्रीराम एवं सीता के क्रमशः सहचर चारूशीलाजी तथा चन्द्रकलाजी प्रसादाजी की विशाल और भव्य प्रतिभाएं हैं किन्तु देवी-देवताओं की छोटी-छोटी। मंडप के चारों ओर चार छोटे-छोटे ’कोहबर‘ हैं जिनमें सीता-राम, माण्डवी-भरत, उर्मिला-लक्ष्मण एवं श्रुतिकीर्ति-शत्राध्न की मूर्तियां हैं।
राम-मंदिर के विषय में जनश्रुति है कि अनेक दिनों तक सुरकिशोरदासजी ने जब एक गाय को वहां दूध बहाते देखा तो खुदाई करवायी जिससे श्रीराम की मूर्ति मिली। महंत ने वहां एक कुटिया बनाकर, उसका प्रभार एक संन्यासी को सौंपा, इसलिए अद्यपर्यन्त उसके राम मंदिर के महन्थ संन्यासी ही होते हैं जबकि वहां के अन्य मंदिरों के वैरागी हैं।
जनकपुर में अनेक कुंड हैं यथा-रत्ना सागर अनुराग सरोवर, सीताकुंड इत्यादि। उनमें सर्वप्रमुख है प्रथम अर्थात् रत्नासागर जो जानकी मंदिर से करीब 9 मिलोमीटर दूर ’धनुखा‘ में स्थित है। वहीं श्रीराम ने धनुष-भंग किया था। कहां जाता है कि वहां प्रत्येक पचीस तीस वर्षो पर धनुष की एक विशाल आकृति बनती है जो आठ-दस दिनों तक दिखाई देती है।
मंदिर से कुछ दूर ’दूधमती‘ नदी के बारे में कहा जाता है कि सीता जुती हुई भूमि की कूंड से उत्पन्न शिशु सीता को दूध पिलाने के उद्देश्य से कामधेनु ने जो धारा बहायी, उसने उक्त नदी का रूप धारण कर लिया। सीताराम के संबंध से भारत एवं नेपाल के श्रद्धालुगण एक-दूसरे को अलग अलग देशों के नहीं समझते। जनकपुर तो दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंध का केन्द्रबिन्दु या नाभिस्वरूप है।