भगवान कृष्ण और कर्ण के बीच का ये रहस्य !!

धर्म में ऐसे बहुत से धार्मिक ग्रंथ हैं जिनसे हम बहुत सी शिक्षाएं ग्रहण कर सकते हैं। उन्हीं ग्रथों में से एक है महाभारत। यह एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें छल, ईर्ष्या, विश्वासघात और बदले की भावना का बाहुल्य है लेकिन इसी में प्रेम प्यार, अकेलापन और बलिदान भी है। वैसे तो महाभारत का हर एक पात्रा मुख्य रहा है लेकिन बात कर्ण और कृष्ण के संबंधों को लेकर।


कुंती पुत्रा कर्ण एक महान योद्धा था जो कौरवों की ओर से लड़ा था। कुंती श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन और भगवान कृष्ण की बुआ थीं। कुंती का पुत्रा होने के कारण कर्ण भगवान श्री कृष्ण का भाई था।


कृष्ण के कारण ही कर्ण को अपने कवच और कुंडल इंद्र को दान देने पड़े थे। दरअसल, श्रीकृष्ण ने ही अपनी नीति के तहत इंद्र से कहा था कि तुम ब्राह्मण वेश में कर्ण के पास जाओ और उससे दान के रूप में कवच और कुंडल मांग लो क्योंकि यदि महाभारत के युद्ध में कर्ण के पास उसके कवच और कुंडल रहे तो उसे हराना मुश्किल होगा।


जब पांडवों का वनवास और अज्ञातवास समाप्त हो गया तब श्रीकृष्ण ने इस विनाशकारी युद्ध को टालने के लिए विराट नगरी से पाण्डवों के दूत के रूप में चलकर हस्तिनापुर की सभा में आकर पांडवों के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगे।


लेकिन जब दुर्योधन ने कह दिया कि बिना युद्ध के तो सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दी जाएगी।


कहते हैं कि उस समय हस्तिनापुर से बाहर बहुत दूर तक छोड़ने के लिए श्रीकृष्ण के साथ कर्ण आये थे।


उस एकांत में श्रीकृष्ण ने कर्ण को बता दिया था कि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्रा है। यह सुनकर कर्ण के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी।


उसने कहा, हे मधुसूदन, मेरे और आपके बीच में जो ये गुप्त मंत्राणा हुई है, इसे आप मेरे और अपने बीच तक ही रखें क्योंकि यदि जितेन्द्रिय धर्मात्मा राजा युधिष्ठर यदि यह जान लेंगे कि मैं कुंती का बड़ा पुत्रा हूं तो वे राज्य ग्रहण नहीं करेंगे।


कर्ण ने आगे कहा था कि उस अवस्था में मैं उस समृद्धशाली विशाल राज्य को पाकर भी दुर्योधन को ही सौंप दूंगा। मेरी भी यही कामना है कि इस भूमंडल के शासक युधिष्ठर ही बनें।


युद्ध के सत्राहवें दिन शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया। उस दिन कर्ण तथा अर्जुन के मध्य भयंकर युद्ध होता है। युद्ध के दौरान श्री कृष्ण अपने रथ को उस ओर ले जाते हैं जहां पास में ही दलदल होता है। कर्ण का सारथी यह देख नहीं पाता है और उसके रथ का एक पहिया दलदल में फंस जाता है।


रथ के फंसे हुए पहिये को कर्ण निकालने का प्रयास करते हैं। इसी मौके का लाभ उठाने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन से तीर चलाने को कहते हैं। बड़े ही बेमन से अर्जुन असहाय अवस्था में कर्ण का वध कर देते है।


कहते हैं कि कर्ण जब अंतिम सांसें ले रहे थे, तब भगवान कृष्ण ने उनकी एक अंतिम परीक्षा ली। वे उसके पास पहुंचे और कहा कि तुम एक दानवीर हो, क्या मुझे कुछ दान दोगे। कर्ण के पास उस वक्त कुछ नहीं था पर उसे ध्यान आया की उसका एक दांत सोने का है तो उसने उस हालत में भी एक पत्थर से अपना दांत तोड़कर कृष्ण को दान स्वरूप भेंट कर दिया।


कर्ण के भाव को देख भगवान कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कर्ण से कोई भी तीन वरदान मांगने के लिए कहा।


अपने पहले वरदान में कर्ण ने कहा कि कृष्ण जब अगला जन्म लें तो सूत लोगों के उद्धार का कार्य करें।


दूसरा वरदान ये मांगा कि कृष्ण अगले जन्म में वहीं पैदा हों जहां कर्ण हों।
इसके बाद तीसरा वरदान कर्ण ने ये मांगा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसी जगह किया जाए जहां कोई पाप न हुआ हो, इसी वजह से कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने हाथों के उपर किया था।