हमारे यहां हर चीज के अपने देवी-देवता हैं। जैसे धन की देवीलक्ष्मी, विद्या की देवी-देवता सरस्वती, वर्षा के लिए इंद्र, शक्ति के लिए बजरंगबली इत्यादि। दैनंदिन व्यवहार में एक भय बना रहता है कि हमारे ये देवता हमसे नाराज हो गये तो अनर्थ हो जाएगा। इस कारण सदैव उनकी उपासना में लगे रहते हैं। मेरी जानकारी में, ‘स्वच्छता’ का कोई देवता नहीं है। देवता नहीं तो भय भी नहीं! और भय बिनु होत न ‘प्रीति’ गुसांईं! देवता होते तो स्वच्छता के लिए शासकीय तौर पर नाना प्रकार के अभियान चलाने की आवश्यकता न होती। हर व्यक्ति खुद-ब-खुद स्वच्छता की उपासना में लगा रहता। याद आता है, जबलपुर के एक छात्रावास में (वर्ष 1966-67 के आसपास) छात्रों ने अपने कमरों में कहीं सरस्वती के तो कहीं बजरंगबली के चित्र लगा रखे थे। ये ही कुछ चित्र कॉमन-रूम या या प्रवेशद्वार पर भी लगे थे। लेकिन टॉयलेट-बाथरूम के आसपास छोटे-छोटे वॉल-पोस्टर चिपके थे जाहिर है, स्वच्छता के कोई देवता होते तो इन पोस्टरों की बजाय वहां उनके चित्र लगे होते !
कुछ वर्ष पहले शाम को ऐन भोजन के समय टी. वी. पर एक विज्ञापन आता था, ‘क्या आपने हाथ धोये?’ यह विज्ञापन देखकर बड़ी कोफ़्त होती थी। कोफ़्त उसके दिखाये जाने के समय को लेकर नहीं बल्कि उसकी विषयवस्तु को लेकर । लगता था, पाटंबर (अछूते-वस्त्र) पहनकर पूजा करने वालों का हमारा देश! क्या यह बताना जरूरी है कि टॉयलेट से आने के बाद हाथ धोना पड़ता है? अगर कोई विदेशी पर्यटक यह विज्ञापन देखेंगे तो उनकी हमारे बारेमें क्या धारणा बनेगी? लेकिन विडंबना है, स्वच्छता के प्रति जागरुकता की शुरुआत हमें यहीं से करनी पड़ी।
चार दिन विदेश में रहकर लौटने के उपरांत हम महीनों तक वहां की स्वच्छता का गुणगान करते नहीं अघाते। पर दूसरी ओर, अपने देश के एयरपोर्ट पर कदम रखते ही तुरंत ‘भारतीय’हो जाते हैं। कारण है, स्वच्छता के प्रति हमारी उदासीनता । हमारे मुख्यत: दो ज्ञानेंद्रिय स्वच्छता से संबंधित हैं। एक नाक, दूसरी आंखें। दोनों हमारे जिस्म पर सबसे आगे विराजित हैं। दोनों अपनी ड्यूटी बराबर बजाते हैं। पर हम उनसे प्राप्त संकेतों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। घर पर कोई मेहमान आनेवाले हो तो हमारा सारा ध्यान ड्राइंग-रूम की सफाई पर केंद्रित हो जाता है। कभी-कभी पूजा घर या, मेहमानों में किचन तक बेधड़क प्रवेश कर जाने वाली महिला शामिल हो तो, किचन तक जाकर ध्यान समाप्त हो जाता है। सर्वाधिक उपेक्षित रह जाती है, वॉश-रूम। जबकि सफाई की सबसे अधिक जरूरत यहीं होती है। जरूरी नहीं कि घंटे-दो घंटे के लिए आने वाले मेहमान वाश-रूम का प्रयोग करे हीं। पर अगर प्रयोग करना ही पड़ा तो वॉश-रूम ऐसा हो कि याद रहे। मतलब यह नहीं कि उसमें सुर्खाब के पर लगे हों। पर पॉट और वॉश-बेसिन तो ऐसा हो ही सकता है कि उन पर एक भी धब्बा न हो। केवल खुशबू फैलानेवाली टिकिया रख देने से ही यह नहीं हो जाता, हाथ में ब्रश लेकर रगडऩा भी पड़ता है। इस मामले में मैं लिख चुका हूं कि स्वच्छता के संबंध में दक्षिण के पर्यटन स्थलों पर लक्षणीय जागरुकता देखने को मिलती है। मडिकेरी के एक रिसोर्ट के वॉश-रूम की चमक देखकर मैं व्यवस्थापक से यह पूछे बिना न रह सका था कि ‘आप कमोड साफ करने के लिए कौन-सा रसायन इस्तेमाल करते हैं।‘
घर के प्रमुख स्थान चार: घर की सफाई के चार स्थान महत्वपूर्ण होते हैं।
1. वॉश- रूम
2. किचन
3. आंगन
4. छत- किचन के बारे में तो हम मानकर चलते हैं कि यह महिलाओं का क्षेत्र है। फ्लैट-संस्कृति में आंगन और छत तो रहे नहीं। आखिर बात फिर वाश-रूम पर आकर रुक जाती है।
जिम्मेवारी :
1. हर घर में यह स्पष्ट होना चाहिये कि घर की सफाई किसके जिम्मे है। । बेहतर हो, यह दायित्व स्वीकारने वाला व्यक्ति बारी-बारी से बदलता रहे। दूसरा, हमारी सोच में यह बदलाव आवश्यक है कि सफाई का दायित्व संभालनेवाला व्यक्ति(चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री) घर का ‘निरीह प्राणीÓ नहीं अपितु सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानजनक व्यक्ति है। उसे प्रतिष्ठा दिलाने के लिए यह भी हो कि किसी के घर जाने के बाद यह पूछा जाए कि घर की साफ-सफाई का दायित्व घर के किस सदस्य के जिम्मे है? और उस सदस्य से मुलाकात करके उसकी उतनी ही सराहना या प्रशंसा की जाए, जितनी बढिय़ा भोजन पकाकर खिलानेवाले व्यक्ति की की जाती है। बल्कि उससे भी बढ़कर।
2. जैसा घर का वैसा ही प्रत्येक कॉलोनी या मोहल्ले की सार्वजनिक स्वच्छता का दायित्व संभालनेवाली एक समिति मुकर्रर हो। उसमें वे व्यक्ति शामिल किये जाएं, जो स्वच्छता के प्रति स्वयं संवेदनशील हैं। उसके उपरांत वार्ड और नगर की स्वच्छता का दायित्व आता है। कहना न होगा, नागरिकों द्वारा मुकर्रर किये गये ये व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति हों। नगर प्रशासन अपना काम करता है पर, नागरिकों के स्तर पर यह सक्रियता और सहभाग अवश्य प्रभावी साबित होगा।
3. अपने-अपने घर की सफाई का दायित्व संभालनेवाले व्यक्तियों की कालोनी/ मोहल्ला स्तर पर मासिक बैठकें हों जिनमें उन्हें आनेवाली कठिनाइयां विशेषकर कचरे के निपटारे संबंधी, कठिनाइयों पर तथा स्वच्छता के प्रभावी उपायों पर चर्चा हो।
4. आगे चलकर यह सिलसिला नगर स्तर पर भी कार्यान्वित किया जा सकता है।
5. तीन माह में एक बार कॉलोनी/ मोहल्ला/ वार्ड-स्तर पर घरों का तथा साल में एक बार नगर-स्तर पर निरीक्षण करके सबसे स्वच्छ घर, कॉलोनी तथा वार्ड को पुरस्कृत किया जाए।
6. कार्यालयों, स्कूल-कॉलेजों, अस्पताल आदि के लिए इसी प्रकार की स्वतंत्र प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए।
पुरस्कार के मानदंडों में कचरे का निपटारा कैसे किया जाता है, इस बात को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए।
उपर्युक्त उपायों से स्वच्छता-कार्य से जुड़े व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार या घृणा का भाव बदलेगा तथा सम्मान का भाव जागेगा। कोशिश इस कदर हो कि भविष्य में स्वच्छता-कार्य से जुड़े व्यक्तियों को लोग मंदिर के पुजारियों की तरह सम्मान देने लगे। इससे अधिकाधिक लोग इस कार्य से जुडऩा चाहेंगे।
राष्ट्रीय-स्तर पर स्वच्छता अभियान शुरू हुआ। हाथ में झाड़ू लेकर कचरा साफ करते हुए राष्ट्रीय-स्तर के नेताओं के खूब फोटो छपे। फोटो छपवाने का यह सिलसिला कालोनी, मोहल्ला,वार्ड स्तर तक आ गया। पर, आज भी बैंगलोर जैसा एक करोड़ बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाला आधुनिक टेक्नोलॉजी से लबरेज महानगर हो या हमारे देश का अन्य कोई छोटा-सा नगर, कचरे के ढेर सब ओर ज्यों के त्यों बरकरार हैं। स्वच्छता अभियान को सफल बनाने के लिए जरूरत है, स्वच्छता के प्रति प्रत्येक नागरिक के निजी तौर पर गंभीर और संवेदनशील होने की। साथ ही, सामाजिक तौर पर इस कार्य को निम्नस्तर का न मानकर एक प्रतिष्ठापूर्ण कार्य का दर्जा देने की। ऐसा करने से, विश्वास किया जा सकता है, ‘स्वच्छता-देवता’ के बिना भी हमारे निवास, गलियां, खाली प्लॉट, रेल या सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी के कारण नाक-भौं सिकोडऩे की नौबत नहीं आएगी।?