स्वयं को हिन्द का तोता मानते थे अमीर खुसरो

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अमीर खुसरो का प्रारम्भिक नाम अब्दुल हसन था। उनका जन्म एक तुर्की परिवार में सन् 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा के ‘पटियाली’नामक  कस्बे में हुआ था। अमीर खुसरो को बचपन से ही कविता से लगाव था जिसे उन्होंने स्वयं लिखा है- ”मेरे पिता ने मुझे पढऩे के लिये मकतब भेजा और शिक्षक ने मुझे सुलेख लिखाने का प्रयास किया किन्तु मेरा मन कविता के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में नहीं लगता था।‘


अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी बहुभाषाविद् उच्चकोटि के संगीतज्ञ एवं इतिहासकार भी थे। अमीर खुसरो फारसी तथा हिन्दी दोनों भाषाओं के लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त इन्हें खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम कवि माना गया है। डॉ. रामकुमार वर्मा के कथनानुसार ”खड़ी बोली में प्रथम लिखने वाले अमीर खुसरो हुये, जिन्होंने अपनी पहेलियों, मुकरियों आदि में इस भाषा का प्रयोग किया। यद्यपि ब्रजभाषा को ही उन्होंने विशेष आश्रय दिया पर उन्होंने खड़ी बोली को भी उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा।‘


यद्यपि जन सामान्य में कहा जाता है कि अमीर खुसरो ने लगभग 92 ग्रंथों की रचना की थी परन्तु इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिलता है। अमीर खुसरो चिश्ती सम्प्रदाय के प्रसिद्ध पीर निजामुउद्दीन औलिया के भक्तों में थे। खुसरो के काव्य में सूफीनामा की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। वे अपनी रचना ‘गुर्रतुलकमाल’ की भूमिका में लिखते हैं कि मैंने अपनी हिन्दी कविताएं अपने मित्रों में बिखेर दी है परन्तु इन कविताओं में कुछ कवितायें सूफी विचार से सराबोर हैं। खुसरो की दृष्टि में सूफी शब्द का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति पवित्र जीवन व्यतीत करते हुये धर्मांचरण में लीन रहते थे, सूफी कहलाये। हिन्दी के विद्वान कालीकट विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मलिक मोहम्मद अपनी कृति ‘अमीर खुसरो, भावात्मक एकता के मसीहा’ में स्पष्ट लिखते हैं कि- ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स’में लिखा है कि अधिकांश इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ शब्द से मानते हैं। उनका कथन है कि जो लोग पवित्र थे, वे सूफी कहलाये।


अमीर खुसरो के काव्य में रेखांकित पंक्तियों में सूफीनामा रंग के दोहे में साधक की आत्मा और ईश्वरीय सत्ता के मिलन की भाव व्यंजना कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त हुयी है-
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग।।


तेरहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम ‘हिन्दी’ को ‘हिन्दवी’ नाम अमीर खुसरो ने ही दिया। जो प्रचलन में अपभ्रंश होकर ‘हिन्दवी’ से हिन्दी हो गया।  उस समय फारसी रचनाओं का वर्चस्व था। ऐसे समय में तत्कालीन फारसी प्रेम की पद्धति के विपरीत भारतीय प्रेम परम्परा का दबदबा किस प्रकार का कायम करते हुये खुसरो ने लिखा है-


इश्क अब्बल दर दिले माशक पैदा मीशावद, ता न सोजद शमा के परवाने शैदा मीशवद।।
अर्थात्- पहले तिय के हीय में, उमगत प्रेम उमंग। आगे बाती बरति है, पीछे जरत पतंग।।
अमीर खुसरो अपने गुरु औलिया हजरत निजामुद्दीन के निधन का दु:खद समाचार मिलने पर जब उनकी दरगाह पर अजमेर पहुंचे तो रहस्यमयी सूफी शैली में यह दोहा पढ़ा जो अब भी बहुचर्चित है।


गौरी सोबे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।
खुसरो हिन्दी खड़ी बोली के सूफी कवि थे और फारसी में उन्होंने सूफी मत की रचनायें लिखी है। वह उनका एक रूप रहा होगा परन्तु खुसरो का जो रूप हिन्दवी में प्रकट हुआ वह रहस्यवादी नहीं वरन् सामान्य जनजीवन के सरस कवि रूप का है। वस्तुत: प्रेम, मस्ती एवं चंचलता को आनंदित करता तथा कविता में प्रदर्शित करता है।
भारत में अमीर खुसरो का यश ‘हिन्दी’ के नामकरण ‘हिन्दवी’ से आज भी इतिहास के पन्नों में अमर हैं। खुसरो ने फारसी के वर्चस्व काल में हिन्दी की रचनायें लिखकर जन सामान्य में अपनी ख्याति स्थापित की।


अमीर खुसरो के नाम से साहित्य में अनेक पहेलियां, दोहे, गीत, मुकरियां, कव्वाली आदि अति प्रचलित हैं। हिन्दी अन्वेषक गोपीचन्द नारंग ने हिन्दी काव्य के सम्बन्ध में अपनी कृति- ”अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य’ में लिखा है- ”अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य अपनी लोकप्रियता के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है और इन सात शताब्दियों में वह हमारी लोक परम्परा या लोक साहित्य का अंग बन गया है। लाखों-करोड़ों की जुबानों पर चढऩे से उसमें संशोधन-परिवर्तन अवश्य हुआ होगा। संभव है कि अमीर खुसरो से सम्बद्ध काव्य के कुछ अंश मौलिक हैं किन्तु कई अंश निश्चय ही ऐसे भी हैं जिन्हें कालान्तर में बढ़ाया जाता रहा है।‘


अमीर खुसरो अपनी फारसी रचना ‘गुर्रतुकलमाÓ की प्रस्तावना में लिखते हैं जो उनकी आन्तरित हिन्दवी (हिन्दी) निष्ठा को व्यक्त करती है-
”चूं मन तुती एक हिन्दम अज रासत पुर्सी।
जमन हिन्दवी पुर्सता नग्ज गायम।।‘


यानी- यदि सही पूछो तो मैं हिन्द का तोता हूं। यदि तुम मुझसे मीठी बातें करना चाहते हो तो ‘हिन्दवी’ में बातें करो।


अमीर खुसरो पहला कवि है जिसने समूचे राष्ट्र की भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, वह बड़ी स्वच्छन्दता से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, उर्दू, अरबी, फारसी तथा अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसीलिये खुसरो की हिन्दी की रचनायें शताब्दियों बाद भी जनप्रिय हैं। अन्त में अमीर खुसरो की हिन्दी प्रेम को रेखांकित पंक्तियां ही उनकी निष्ठा को प्रकट करती हैं।


”तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिन्दी गोयम जवाब।
शक्र मिस्त्री न दारम कज अरब गोयम सुखन।।‘


यानी मैं हिन्दुस्तान का तुर्क हूं और हिन्दवी में उत्तर देकता हूं। मेरे पास मिश्री की मिठास नहीं कि मैं अरबी में बातें करूं।