मन स्वस्थ तो तन भी स्वस्थ

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मन जल की उस बूंद की भांति है जो गर्म लोहे पर गिर जाए तो जलकर भस्म हो जाती है, फूल-पत्तियों पर गिरने से शबनम कहलाती है और सागर के सीप में बूंद चली जाए तो मोती बनकर इठलाती है। अब यह हम पर है कि हम मन को किस दिशा में ले जाते हैं।
जाहिर है ’मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ’। निरोगी व भरपूर शक्तिशाली तन भी मैले मन के कारण निंदनीय हो जाता है जबकि विशेष कद-काठी या सुंदर न दिखने वाले लोग भी अपनी स्वच्छ छवि, निपुण मन तथा कुछ कर दिखाने की मानसिक क्षमता रखने के कारण असाधारण उत्कृष्टता का काम करके आदरणीय बन जाते हैं।


अच्छी तरह सुशिक्षित मन ही दुनियां में सबसे अधिक उपयोगी संपत्ति है। धन भी इसका मुकाबला नहीं कर सकता। मन का महत्व अधिक होने से मन ही शरीर का राजा हैं। विद्यार्थी साहित्यकार, वैज्ञानिक और अध्यापक के लिए तो मानसिक दक्षता का मूल्यः स्पष्ट है। व्यापार और शिल्पकला आदि में भले ही शारीरिक परिश्रम अधिक हो किंतु मानसिक दक्षता का मूल्य कम नहीं हैं।


मनुष्य के व्यक्ति के दो प्रमुख अंग है ’शरीर’ और ‘मन’ जो एक दूसरे पर क्रिया और प्रतिक्रिया करके  आपस में प्रभाव डालते हैं। उनका आदर्श संयोग तो यह होना चाहिए कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन हो। जीवन रूपी रथ के तन और मन दो पहिए हैं। अतः संतुलन बने रहने के लिए दोनों को स्वस्थ होना चाहिए। चित अर्थात मन को हमें चिंतन में लगना चाहिए न कि चिंता में क्योंकि चिंता से चिता (लाश) बनने में ज्यादा समय नहीं लगता। जीवन की सफलता अपने शरीर और मन पर ही निर्भर करती हैं।


मन तो अबोध शिशु सा होता है! विवेक उसे मार्ग दिखाता है। जरूरत है मन के भीतर झांकने की। यह कार्य हम मानसिक दक्षता से पूर्ण कर सकते हैं। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जब केवल 270 तंतुओं वाली सामान्य चींटी इन शक्तियों से अपना जीवन-यापन सामान्य रूप से कर सकती है, तो 1400 करोड़ तंतुओं से युक्त मनुष्य क्या नहीं कर सकता?


जाहिर है हम हमारी क्षमताओं का कुछ प्रतिशत ही इस्तेमाल हम कर रहे हैं। कुछ विशेष प्रयत्नों द्वारा हम हमारी क्षमताओं को विस्तारित कर सकते हैं। जरूरत है, हमें हमारे लक्ष्य को अथवा जीवन के उद्देश्यों को तय  करने की। हम वही चीजें बार-बार यंत्रावत करते आ रहे है। वही काम -वासना, वही क्रोध-घृणा, वही दंभ-अहंकार और इसी तरह से एक दिन इस संसार से विदाई लेना।


शारीरिक स्वस्थता, मानसिक निर्मलता, वैभव, संपन्नता, पारिवारिक स्नेह एवं सामाजिक एकता के साथ-साथ आत्मानुसंधान के व्यावहारिक विचारों के प्रयोग से जीवन-जीने की कला द्वारा हमें इस बात का स्पष्ट बोध हो जाना आवश्यक हैं कि जीवन में क्या पाना है? जीवन का लक्ष्य क्या है? अब चूंकि हर प्रकार की सफलता सर्वप्रथम मन में विचार के रूप में उत्पन्न होती है अतः मन को विकसित करना बेहद जरूरी हैं।


इच्छा मात्रा को उद्देश्य नहीं समझना चाहिए। उद्देश्य में एक विशेष लक्ष्य का होना आवश्यक है। हमारी महत्वाकांक्षा या इच्छा है बड़ा पहलवान बनने की तो केवल इच्छा रखने से या अखाड़े को देखने से काम नहीं होगा। अखाडे़ में जाकर जब तक नियमित रूप से हम व्यायाम नहीं करेंगे तो फल कहां से मिलेगा। अतः इच्छा को इच्छाशक्ति में परिवर्तित करना होगा।


कभी कभी बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इंद्रियों को वश में करके, समय के अनुरूप बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करें।


मन के तीन मुख्य तत्वों में विशुद्ध मानसिक बल का धर्म है सोचना, समझना, स्मरण करना और नये विचारों का उत्पादन करना। इच्छा शक्ति का मुख्य स्वरूप है उद्योग और उसका  मुख्य धर्म है शारीरिक शक्ति को कार्य रूप में  परिणित करना।


सुदृढ़ शरीर में ही सबल मन विराजता है अतः मन को एकाग्र करने के लिये संकल्प को काम में लाया जाना चाहिए। व्यग्रता और व्याकुलता को हटा कर साहस, आशा, आत्मविश्वास और ईश्वर में श्रद्धा के भाव जागृत करने चाहिए।


हमारा ’मन’ यह उस मस्तिष्क की उपज है जो सारे शरीर को (हृदय को भी) नियंत्रित करता है। मस्तिष्क का मूल्य असीमित है। इसलिए यदि हम इसकी कार्यप्रणाली को समझकर उसकी शक्तियों को विकसित करें तो हमारा संपूर्ण जीवन नियंत्रित हो जायेगा। बूढ़े होने तक शरीर भले ही कमजोर हो जाए, मन मात्रा मजबूत होता रहता है। एक निपुण मन आत्मा का सबसे बड़ा सेवक और सहायक है।