सियालकोट (पाकिस्तान) शहर में सूफी फकीर हमजा गौंस नामक पीर रहता था। उसने कठिन तपस्या करके रिद्धियां-सिद्धियां प्राप्त की, जिससे शहर में चारों ओर उसकी प्रसिद्धि फैल गई। धागे, जंत्र-मंत्र और कई अन्य तरीकों से लोगों के शारीरिक व मानसिक रोग दूर करने लगा। सभी उससे भयभीत रहने लगे और कोई उसे गुस्सा दिलाने का साहस नहीं करता था। इसी शहर में एक साहूकार रहता था, उसे संतान नहीं थी। अत: पुत्र प्राप्ति हेतु पीर से विनती की। पीर ने कहा, तेरे घर पुत्र होंगे परंतु पहला पुत्र मुझे देना होगा। साहूकार ने शर्त मान ली। समयानुसार उसके घर तीन पुत्र हुए। बड़ा पुत्र जब समझदार हुआ तो वचनानुसार साहूकार पुत्र को लेकर पीर के पास बहुत सारी धन-दौलत व भेंट लेकर गया और माथा टेककर विनती की कि मैं अपना वचन पूरा करने आया हूं। वहां की रीत थी कि यदि कोई पुत्र या कन्या किसी पीर मंदिर या साधु-संत को अर्पण करने की मन्नतें मांगता था तो उसका मूल्य (रकम) देता था, बंदा नहीं। साहूकार का लड़का पीर को भा गया। पीर ने उसे अपना चेला बनाने का फैसला कर लिया और कहा कि इस बालक का मूल्य नहीं लिया जाएगा, बल्कि यह हमारे पास डेरे पर ही रहेगा। साहूकार यह सुनकर हैरान हो गया और विनती की कि हे पीरजी, हमारे अपराध क्षमा करें लड़के के बदले लड़के का मूल्य ले लो जो कि रीत है और लड़का मेरे घर का शृंगार बना रहे।
पीर ने कहा हमें दौलत नहीं चाहिए, हमने पहले पुत्र की मांग की थी जो तुमने मानी भी थी। अत: यह लड़का हमें दे दो। पीर-फकीर से नाराजगी का फल बहुत बुरा होता है। साहूकार ने कहा, महाराज! मैं आपका डेरा पक्का करा देता हूं, पुत्र के भार से सोना तौलकर देता हूं परंतु मेरा पुत्र मेरे पास रहने दो, यही रीति-रिवाज भी है। पीर ने क्रोध से कहा- मूर्ख, बेईमान, मुझे लालच दे रहे हो। मुझे कुछ नहीं, सिर्फ लड़का चाहिए। पीर का हठ देखकर साहूकार बहुत हैरान हो गया परंतु पुत्रमोह के कारण साहूकार पुत्र को छोडऩे के लिए राजी नहीं हुआ। अत: उसने पीर के कहर को सिर पर लेने का फैसला किया और पुत्र को वापस अपने घर ले आया।
हमजा गौंस ने जब यह देखा कि साहूकार दिए हुए वचन से विमुख हो रहा है तो क्रोधित होकर कहा- यह शहर बेईमान और धोखेबाजों का है। मैं पूरे शहर को गर्क करके छोड़ूंगा। अपने चेलों से कहा कि मैं चिल्हा (तप) करने जा रहा हूं, मुझे कोई न बुलाए। जिस दिन चिल्हा पूरा करके अपने गुंमज से निकलूंगा तब सारा शहर ढहकर ढेरी हो जाएगा। यह कहकर पीर अपने भोरे (गुंमज) में बैठ गया। यह खबर शहर में आग की तरह फैल गई। मौत और तबाही के डर ने लोगों को भयभीत कर दिया। लोगों ने साहूकार को समझाया कि पीर को पुत्र देकर शहर को तबाही से बचा लो परंतु उसने यह बात नहीं मानी। आखिर लोग निराश होकर तबाही के दिन गिनने लगे और कई शहर छोड़कर जाने लगे।
उस समय जगत जलंदे को तारते हुए श्री गुरुनानकदेव महाराज सियालकोट शहर पहुंचे। शहर के बाहर श्मशान भूमि के पास एक वृक्ष की छांव के नीचे बैठे। भाई मरदाना गुरुजी से आज्ञा लेकर जब शहर पहुंचा तो देखा कि शहर में मौत के समान खामोशी व उदासी है। किसी के चेहरे पर मुस्कराहट नहीं है। मरदाने ने एक दुकानदार से पूछा कि शहर में इतना शोक क्यों है? दुकानदार ने कहा- पीर हमजा गौंस नाराज हो गए हैं और वे शहर को गर्क (तबाह) करने पर तुल गए हैं। दस दिन बाद यह शहर नष्ट हो जाएगा और साहूकार व उसके पुत्र वाली सारी बात भाई मरदाने को बताई।
मरदाने ने हंसकर कहा- बस, मेरे सतगुरु इस शहर को बचाने के लिए ही आए हैं और बचा सकते हैं। उदास न हों हौसला रखो व श्री गुरुनानक देवजी की शरण में जाओ। दुकानदार ने खुश होकर कहा- क्या तेरा गुरु इस शहर को बचा लेगा! और दुकान बंद कर वह भाई मरदाने के साथ गुरुजी के पास पहुंचा। दुकानदार ने गुरुजी को पीर के हठ एवं अहंकार और साहूकार के पुत्र प्यार की सारी बात बताई। गुरुजी ने कहा- चिंता मत करो, जीवों की रक्षा करने वाला परमेश्वर है, जन्म-मरण उसी के हाथ में है पर साहूकार की नासमझी की वजह से पीर सारा सियालकोट शहर नाश कर रहा है, ईश्वर उसका चिल्हा पूरा नहीं होने देगा, शहर जरूर बचेगा। गुरुजी के मुख से निकला यह खुशी का संदेश सुनकर पूरा शहर गुरुजी के पास आने लगा। गुरुजी ने सभी को सत्य धर्म का उपदेश दिया। गुरुजी के दर्शन कर लोग मौत को भूल गए। गुरुजी ने भाई मरदाने को पीर के पास यह कहने के लिए भेजा कि पीर का धर्म खलकत (जनता) पर दया करना है, क्रोध करना नहीं। मरदाना जब उसके भौरे के पास पहुंचा तो उसके चेलों ने मरदाने को धक्के मारकर बाहर निकाल दिया। भाई मरदाने ने सारी बात गुरुजी को बताई।
गुरुजी ने करतार के सम्मुख पूरे शहर की रक्षा की प्रार्थना की, जिससे पीर का सिंहासन हिल गया, भौरे की छत फट गई और भयानक आवाज हुई जिससे पीर की समाधि खुल गई, वह घबराकर एकदम भौरे के बाहर आ गया, उसने चिल्लाकर कहा कि शहर में कौन ऐसा वली आया है, जिसने मेरी समाधि भंग कर दी है। वह गुरुजी के समक्ष पहुंचा व गुरुजी के दर्शन से उसके मन में शांति आकर क्रोध शांत होने लगा। गुरुजी ने पीर को समझाया कि तुम अहंकार में आकर करतार की रचना को तबाह करना चाहते थे। वह पीर नहीं, जो इबादत से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त कर करामात दिखाकर बड़ा और अहंकारी बने, मन्नत या भेंट न देने पर क्रोधित होकर आपा भूल जाए और अपने सेवक को मारने पर तुल जाए। ऐसे पीर की पीरी और भक्ति निष्फल हो जाती है। पीर को क्रोध नहीं करना चाहिए।
जैसे चंदन अपनी सुगंध वाला स्वभाव नहीं छोड़ता। भले ही उसे आग या जल में फैंक दिया जाए तो वहां भी वह सुगंध फैलाता है। पीर भगत को हमेशा जनकल्याण करना चाहिए। यह सुनकर पीर का चित्त शांत हो गया और गुरुजी के चरणों पर माथा टेककर कहने लगा, हे खुदा! मुझे क्षमा करना। मैं अहंकार में आकर भूल कर बैठा। वह खुदा की सच्ची भक्ति करने लगा और सियालकोट में खुशियां लौट आईं।
अत: ईश्वर व खुदा की भक्ति/इबादत से प्राप्त रिद्धि-सिद्धि शक्तियों को हमेशा जनकल्याण के लिए उपयोग में लाना चाहिए न कि निजी स्वार्थ व अहं में आकर शक्तियों का दुरुपयोग करना चाहिए।