शाकुम्भरीः आस्था का द्वार

माता शाकुम्भरी देवी का प्राचीन मंदिर सहारनपुर में सदियों से आस्था और श्रद्धा का सबसे बड़ा केंद्र रहा है। देवी माता के दर्शन करने के लिए यहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु उमड़ते हैं। शिवालिक की गोद में स्थित माता के मंदिर तक पहुंचना एक रोचक यात्रा है। यह स्थल न केवल धार्मिक भावना लेकर पहुंचने वालों को अध्यात्म का सुख प्रदान करने वाला है अपितु प्रकृति प्रेमियों और एकात्म से प्रेम करने वालों के लिए भी बहुत विशेष स्थल है।

इस स्थल की महत्ता और ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए इतना पर्याप्त है कि नन्द से हारने के बाद चंद्रगुप्त और चाणक्य ने माता शाकुम्भरी के अंचल में ही शरण ली थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने शाकुम्भरी देवी मंदिर को स्रुघ्न प्रदेश का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल बताया था। भागवत पुराण में सहारनपुर का सांस्कृतिक इतिहास प्राप्त होता है, उसमें शाकुम्भरी देवी स्थल का विशिष्ट स्थान है। वर्तमान में शाकुम्भरी देवी मंदिर तथा इसके चारों ओर का क्षेत्र जसमौर के राज परिवार के अधिकार में है। सहारनपुर गजेटियर तथा सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास विष्णुगुप्त के आधार पर इस मंदिर की स्थिति 326 ईसा पूर्व के आस-पास सिद्ध होती है।

शाकुम्भरी देवी मंदिर में चार प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं-शाकुम्भरी देवी, दायीं ओर भीमा देवी एवं भ्रामरी देवी और बायीं ओर शताक्षी देवी की प्रतिमा विराजमान है। ये सभी मां दुर्गा के ही रूप कहे गए हैं। दुर्गा सप्तशती के 11 वें अध्याय में उक्त चारों देवियों के स्वरूप का तात्विक वर्णन मिलता है। पुराणों की धारणानुसार देवी ने एक हजार दिव्य वर्षो तक प्रत्येक मास के अंत में एक बार शाकाहार करते हुए घोर तप किया था। उनकी तपस्या की चर्चा सुनकर हजारों श्रद्धालु एवं ऋषि-मुनि उनके दर्शनार्थ यहां पहुंचे तो देवी ने शाकाहार से ही उनका आतिथ्य सत्कार किया था।

महाभारत का एक श्लोक है-

दिव्यं वर्ष सहस्रं हि शाकेन किसुव्रता।
आहारं सा कृतवती मासि मासि नराधिपः।
शयोअभ्यागतास्तत्र देव्याभक्तया तपोधनाः।
आतिथ्य च कृतं तेषां साकेन किल भारत।
ततः शाकम्भरीत्येव नाम तपस्या प्रतिष्ठतम्।।

स्कन्द पुराण में लिखा है कि प्रत्यक्ष सिद्धिप्रद और पापों का नाश करने वाली देवी ने प्राचीन काल में सौ वर्ष तक चलने वाले युद्ध के दौरान शाक आदि से आश्रित तपस्वी मुनियों की उदर पूर्ति की थी। इसी भगवती का नाम शाकुम्भरी पड़ा।

महाभारत में इस शक्तिपीठ का महात्म्य कुछ इस प्रकार है-

शाकुम्भरी समासादय ब्रह्मचारी समाहितः।
त्रिरात्रिभुषितः शाक भक्षयेन्नितः शुचिः।
शाका हारस्यः यत्सम्यग्वशैद्र्वादशाभिः फलम्।
तत्फलम् तस्य भवति देव्याश्छन्देन भारत।।

अर्थात- वहां जाकर पुरूष यदि पवित्र ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ तीन दिन तक शाक खाकर रहे तो उसे अन्यत्र बारह वर्ष तक शाक साधना करने के समान फल की प्राप्ति होती है।
शाकुम्भरी के रूप में देवी का शाक-कंदमूल लेकर पदार्पण हुआ। बेहट तहसील में शाकुम्भरी देवी का अत्यंत जागृत पीठ है। यहां देवी की स्वयंभू प्रतिमा है। कठिन मार्ग और जंगल होने के कारण इस स्थल के बीच पड़ने वाले नगर का नाम वृहद्हट हुआ, जिसे वर्तमान में बेहट के नाम से जाना जाता है। चाहमान क्षत्रियों का नाम भी माता शाकुम्भरी देवी के साथ जुड़ा हुआ है। माता शाकुम्भरी देवी का मंदिर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण परिक्षेत्र बेहद प्राचीन है। इस क्षेत्र से समय-समय पर मिलने वाले प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। शिवालिक की गोद में स्थित इस मंदिर के निकट प्राकृतिक सुषमा का अगाध भण्डार है। मां शाकुम्भरी देवी के अलावा कई और मंदिर यहां दर्शनीय हैं। यहां पहुंच कर आप पर्वतों के बीच स्थित मंदिरों को देखने के लिए आप छोटी-छोटी यात्राओं का आनन्द ले सकते हैं।