मायाजाल में उलझे प्रश्न

जाल की बुनावट जितनी अदृश्य   एवं महीन होती है उतना ही उसमें शिकार फंसने की संभावनाएं अधिक  होती है। जाल के नीचे बिछे खाद्य पदार्थ जितने अधिक रूचिकर होंगे, शिकार उतनी तेजी से उस जाल की ओर आकर्षित होगा।


जाल कई तरह के होते हैं। मकड़ी द्वारा निर्मित जाल एवं शेर के लिए बकरे का घास डालना वह भी जाल ही में सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त अदृश्य जाल भी होते हैं जो मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं। इस जाल का निर्माण भोले-भाले मनुष्यों को फंसाने के लिए किया जाता है। इसके अलावा कभी-कभी पुलिस द्वारा अपराधियों को फंसाने के लिए जाल बिछाया जाता है।
यह जरूरी नहीं होता कि प्रत्येक जाल में शिकार फंस ही जाये, कभी-कभी जाल  वैसा ही पड़ा रह जाता है और शिकार उसमें नहीं फंसता और कभी-कभी शिकार इतना शक्तिशाली होता है कि जाल को तोड़ देता है। जाल असहाय सा पड़ा रह जाता है।


जाल में ना फंसने के लिए शिकार का समझदार होना आवश्यक है  लेकिन लोभ-लालच, मोह, स्वार्थ के कारण  उस जाल में शिकार फंस ही जाता है।


मकड़ी का जाला कभी देखें, मकड़ी कितने जतन से उसका निर्माण करती है और ऐसी लार से बुनती है कि तेज आंधी-तूफान में भी वह टूट नहीं पाता है।


शरद ऋतु में उस जाल पर ओस की बूंदें आकर ठहरती हैं तो प्रतीत होता है कि मानों मोतियों से बुनी झालर लटकी हो। उन मोतियों में से आती सूर्य किरणें एक इन्द्रधनुष का निर्माण करती हैं।


मकड़ी का जाला, प्रकृति की एक अद्भूत कृति है। जाले की सुन्दरता शिकार को आकर्षित करती है। शिकार उसके पास आया और फंसता ही चला जाता है। मकड़ी जाले में ऊपर की ओर बैठी यह तमाशा देखती है। शिकार हाथ-पांव मारकर परेशान हो जाता है, थक जाता है, तब मकड़ी उसको अपना शिकार बना लेती है, उसको कालग्रस्त कर देती है। मकड़ी द्वारा निर्मित यह जाल शिकार को क्या दिखलाई नहीं देता है? यदि दिखलाई देता है तो वह उसमें क्यों फंसा? यह एक विचारणीय प्रश्न है।


संसार भी ईश्वर द्वारा बुना गया एक जाल ही तो है, उसकी सुन्दरता मोहकता के कारण उसमें मनुष्य फंस जाता है। वह फंस गया, उसका उसे  भान नहीं होता, वह स्वार्थ, लोभ, लालच, मोह, रिश्ते के तंतुओं में ऐसा उलझता है कि इसमें उलझता हुआ थक जाता है। इतना थककर रूग्ण हो जाता है कि ईश्वर उसे कालग्रस्त कर लेता है। प्रकृति उसे उदरस्थ कर लेती है।  
तो क्या ईश्वर ने मनुष्य का निर्माण अपने पेट भरने के लिए किया है? क्या ईश्वर ने इस संसार के जाल  का निर्माण अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किया है? क्या मनुष्य को यह जाल दिखलाई नहीं देता है जो इसमें वह उलझता ही चला जाता है? ईश्वर ने इस जाल को स्वार्थ, रिश्तों के ऐसे मोतियों से बुना है कि प्रत्येक मनुष्य इस जाल में प्रवेश करने को बाध्य होता है और काल का ग्रास बन जाता है।


कुछ मनुष्य अत्यधिक शक्तिशाली और ज्ञानी होते हैं, वह ईश्वर निर्मित इस संसारी जाल को तोडऩे की शक्ति भी रखते हैं। जाल में उलझकर वह हाथ पांव चलाकर स्वयं को थकाते नहीं हैं बल्कि उस जाल का आनंद लेने लगते है। ऐसे फकीर-कबीर होते हैं जो जाल में उलझकर भी मस्ती से गीत गाते हैं, जीवन को आनंद के साथ जीते हैं। ईश्वर जाल के एक ओर मकड़ी की तरह बैठा विचार करता रह जाता है कि यह जाल में उलझे और वह उसे समाप्त कर दे किंतु ईश्वर सिर्फ प्रतीक्षा करता ही रह जाता है।


फकीर अपनी मौज से जाल को भोगता है। अपनी मर्जी से मरता है लेकिन फकीर की कभी मौत नहीं होती, क्योंकि फकीर को कोई भी जाल उलझा नहीं पाता है। ईश्वर उस फकीर की  मौज देखकर उलझ जाता है। कुछ साधु शक्ति के साथ जाल को तोड़ देते हैं और संसार का जाल तोड़कर अदृश्य निर्मित बैराग्य जाल में उलझ जाते हैं। यह बैराग्य जाल मेें उलझकर इतनी शक्ति से अपनी ऊर्जा को नष्ट करते हैं कि ईश्वर उन्हें कालग्रस्त कर देता है।
जाल का निर्माण मनुष्य की  उत्पत्ति के साथ ही प्रारंभ हो गया था। मनुष्य की मृत्यु के साथ जाल नष्ट होता बल्कि वह जाल के तंतुओं को अन्य के गले में डाल देता है।
ज्ञानी व्यक्ति अंहकारी नहीं होता, वह बंद आंखों से भी देखता है और जिसने बंद आंखों से देखना प्रारंभ कर दिया हो उसे भला कौन सा जाल फांस सकता है?
मनुष्य अपनी बुद्घि से देख और जान ले कि किस तरह का जाल बुना गया है। क्या रिश्तों को जाल के रूप में बुना गया है? या फिर एक जाल से निकलकर दूसरे जाल में प्रवेश करना होगा? यह सब मनुष्य की विचारशीलता पर निर्भर करता है। जाल अनेक, जाले अनेक, मनुष्य अनेक और प्रत्येक जाल को तोडऩे के तरीके अनेक। यह मनुष्य की क्षमता है कि वह जाल को किस तरह खत्म करे और ईश्वर को अपने में समाहित कर ले, तथा स्वयं ब्रह्मï का रूप धारण कर ले।


जाल हमें जीवन जीने के रहस्यों से अवगत कराता है। आगे बढऩा भी सिखलाता है और मुक्त होकर उन्मुक्त आकाश उपलब्ध कराता है। जहां पूरी स्वतंत्रता के साथ हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।


जाल निर्माता बुद्घिमान है तो उस जाल से निकलना क्या कम बुद्घिवाली बात है? लेकिन जाल से निकलने की बुद्घि हमें दी किसने? यदि ईश्वर ने यह बुद्घि हमें दी तो फिर उलझाया क्यों? क्या वह हमारी परीक्षा ले रहा था? क्या जीवन संग्राम की प्रतीक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के बाद ही वह हमें स्वीकार करता है? शायद यही सच्चाई है और जो उत्तीर्ण हो जाता है वह अमर हो जाता है।