वेद पुराणों में माँ लक्ष्मी

भारत में लक्ष्मी की पूजा की प्राचीनता के संबंध में यद्यपि इतिहासकारों से मतभेद है, पर इस बात से लगभग सभी सहमत हैं कि वैदिककाल में लक्ष्मी जी की पूजन होती थी तथा ईसा से लगभग तीन शताब्दी पूर्व लक्ष्मी का मूर्तस्वरूप निर्धारित हो गया था।


ऋग्वेद में धीराद्रेसां लक्ष्मी निहिताधिपाधि मंत्र वैदिक युग में लक्ष्मी की मान्यता का उदाहरण है। यजुर्वेद में भी श्री और लक्ष्मी के रूप में भगवान विष्णु की दो पत्नियों का वर्णन आता है।
तैत्रीय उपनिषद में लक्ष्मी को वस्त्र भोजन, पेय एवं धन प्रदान करने की भी देवी बताया गया है। अग्नि पुराण में लक्ष्मी की प्रकृति से तुलना की गई है। विष्णु पुराण में लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से होने तथा विष्णु द्वारा वरण किए जाने का उल्लेख मिलता है।


ब्रह्मपुराण के लक्ष्मी तीर्थ प्रसंग में लक्ष्मी तथा दरिद्र के बीच हुआ एक बड़ा ही सुन्दर सवाल मिलता है। लक्ष्मी कहती है- कुलशील आदि सब कुछ होते हुए भी मेरे बिना देहधारी मनुष्य जीता हुआ मृतक के समान है। मेरी कृपा से सारे प्राणी पूज्य हो जाते हैं। निर्धन शिव तुल्य हो जाते हैं। उसके पास भी शांति कीर्ति चली जाती है। कैसा भी मनुष्य हो वही सर्वोत्तम हो जाता है, उसमें सभी गुण दिखाई देने लगते हैं उसे सब प्रणाम करने लगते हैं। इस कारण मैं श्रेष्ठ हूं। दरिद्र कहता है, मैं लज्जा से मरता हूं क्योंकि मैं तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र हूं। तू पुरुषोत्तम को छोड़कर पाप से रमण करती है।


दरिद्र और लक्ष्मी अपना यह विवाद लेकर गौतमी के पास पहुंचते हैं। गौतमी निर्णय देती है। जहां कहीं सुन्दरता है वही लक्ष्मी है।


पुराणों में लक्ष्मी के अनेक रुपों एवं अवतारों का जिक्र आता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजलक्ष्मी गृहलक्ष्मी आदि कई प्रकार की लक्ष्मियों का वर्णन मिलता है। इस पुराण में यह भी विवरण मिलता है कि सरस्वती को लक्ष्मी ने ही ब्रह्मा को दिया था।


लक्ष्मी के अवतारों की अनेक कथाएं मिलती है। पर इनमें सर्वाधिक रोचक सीता के अवतार की है। एक बार लक्ष्मी ने कुशध्वज की कन्या के रूप में अवतार लिया। जब वे तपस्या कर रही थी तब रावण वहां आता और उसने रमण करना चाहा। इस पर उन्होंने रावण को शाप दिया कि वह एक नारी के कारण सकुटुम्ब नष्ट हो जाएगा इसके पश्चात लक्ष्मी ने वह देह त्याग दी तथा सीता के रूप में अवतरित हुयीं।


मार्केण्डेय पुराण में लक्ष्मी जी का वर्णन उत्ताश्रेय की स्त्री के रूप में किया जाता है तथा उन्हें धन देने वाली देवी कहा गया है। इसी पुराण में लक्ष्मी को दक्ष की कन्या भी कहा गया है। महाभारत में रुक्मणि को लक्ष्मी का अवतार बताया गया है। लक्ष्मी को कामदेव की माता भी माना गया है। शिव के त्रिनेत्र से जलकर भस्म हो जाने वाले कामदेव का द्वापर में अनिरुद्ध के रूप में पुर्नजन्म हुआ। रुक्मणि अनिरुद्ध की माता थी। अनिरुद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा से हुआ था। लक्ष्मी की स्तुति अनेक संस्कृत ग्रंथों में मिलती है। कालिदास ने रघुवंश में लक्ष्मी और नारायण के स्वयंवर का वर्णन किया है। शूदक के मृच्छ कटिक्कम् में शिवालिक सदनिका से कहता है- ‘साहसे श्रीपति वसति’ अर्थात् जो दुस्साहस नहीं कर सकता उसको लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती है।


विशाखादत्त ने मुद्रा राक्षस में लक्ष्मी के स्वभाव का वर्णन इस प्रकार किया है। ‘अत्यंत उग्र राजा से लक्ष्मी अलग हो जाती है, शत्रुकृत पराभव के भय से सहनशील राजा के पास भी लक्ष्मी नहीं ठहरती है। मूर्ख राजाओं से लक्ष्मी द्वेष रखती है। अत्यंत विद्वान राजाओं से भी यह प्रेम नहीं करती है तथा पराक्रमी राजाओं से डरती है।


 कायर राजाओं का उपहास करती है। लक्ष्मी का प्रेम वीरांगना की भांति बहुत ही कष्ट से प्राप्त होता है। एक अन्य स्थान पर लक्ष्मी की तुलना चपला स्त्री से इन शब्दों में की गई है- ‘हे लक्ष्मी, तू दुश्चरित्र स्त्री के समान है। उच्च कुल में उत्पन्न नंदरूपी पति को छोड़कर छल से चंद्रगुप्त के पास चली गयी। केवल चली ही नहीं गई परंतु वहां जाकर स्थिर हो गयी।‘
माघ के शिशुपाल वधम् काव्य में लक्ष्मी को चंचला, मृग के समान द्रुतगति वाली एवं चपला कहा गया है। इस तरह वैदिक काल से लेकर अब तक विभिन्न ग्रंथों में कवि और नाटककार लक्ष्मी की प्रशस्ति और स्तुति करते रहे हैं। बावजूद इसके कि सरस्वती और लक्ष्मी में द्वेषभाव है तथा मां सरस्वती के उपासकों पर लक्ष्मी कभी प्रसन्न नहीं हुई है।