हजारों साल से भारतीय मनीषी प्रार्थना करते आ रहे हैं। ‘तमसो मां ज्योतिर्गमय।Ó हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो पर इस प्रार्थना का नतीजा अभी तक कोसों दूर है। मानव मन की विकृतियां सदा अज्ञान, असत्य, अन्याय की ओर ढकेलने के लिए सचेष्टï रहती हैं उनके विरुद्ध संघर्ष का कभी अंत नहीं है। इस संघर्ष की याद दिलाने के लिए ही प्रतिवर्ष ज्योति पर्व समारोह के साथ आयोजित होता है। घर-द्वार की सफाई कर, अंतर का कलुष मिटाकर, घर-घर, नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, दीपमालिका सजाकर मानव इसी संघर्ष को निरंतर जारी रखने का संकल्प दोहराता है। ज्ञान, सत्य, न्याय, प्रगति, समृद्धि प्राप्ति का लक्ष्य ऐसा है, जिसकी ओर बढ़ते रहने में ही मानव का, समाज का, राष्टï्र का और विश्व का कल्याण है। संग्राम जारी है। सुरासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध किसी न किसी रूप में बराबर जारी रहता है। संघर्ष युद्ध रहित विश्व समाज की केवल कल्पना बनी रही है। बीसवीं सदी का मानव विज्ञान में अपार प्रगति का दम्भ रखता है पर विज्ञान की प्रगति ने जहां सुख-समृद्धि के असंख्य साधन जुटा दिए हैं, वहीं आणविक, पारमाणविक शस्त्रास्त्रों के अम्बार के रूप में महाविनाश के साधन भी जुटाए हैं। इसका क्या ठिकाना कि महाविनाश की तैयारियां उसे कब महाप्रलय के अन्धकार में ढकेल दें। संत्रस्त मानव महाशक्तियों के हर कदम की ओर टकटकी लगाए हुए है कि उनकी समझ उसे महाविनाश के भय से मुक्ति दिला दे। इस समय तो मानव की नियति यही है कि वह विनाश और विकास के झूले पर झूलता हुआ हर आने वाले दिन के लिए खैर मनाता है।
यह तो हुईं मानव जाति के विश्व की बातें। विश्वबंधुत्व का दंभ भरने वाला भारत इस समय किस त्रासदी में जी रहा है, इसकी भी खबर लेना जरूरी है। स्वाधीन भारत के लिए राष्ट्रï नायकों की परिकल्पना की थी, क्या यह देश इन लक्ष्यों के निकट पहुंचा है? लक्ष्य तक पहुंचना तो दूर की बात है, वर्ग विशेष और समृद्ध हुए हैं। समृद्धि से ज्योतित प्रासाद और उजले हुए हैं पर, आजादी के पहले के अंधेरे कोनों का अंधेरा क्या दूर हुआ?
दीपावली पर नए दीप
हम सब देख रहे हैं कि पुराने दीप बुझ गए, उनमें अब ज्योति नहीं रही, मार्गदर्शन की शक्ति नहीं रही। जीवन प्रकाश रहित हो गया है और घने अंधकार में सब एक-दूसरे से टकरा रहे हैं अमीर-गरीब से, ज्ञानी-अज्ञानी से, बड़ा-छोटे से , काला-गोरे से और पूर्व-पश्चिम से। इतना ही नहीं, ज्ञान ज्ञान से ही टकरा रहा है, शक्ति, शक्ति से ही टकरा रही। है, दर्शन, दर्शन से ही टकरा रहे हैं और मशीने मशीनों को ही श्मशान में तब्दील करती जा रही हैं। मानव क्या है, संसार क्या है और उससे हमारा नाता क्या है? हम किस गलत मार्ग पर बहे जा रहे हैं और अब हमारी दिशा क्या होगी? दंगा-फसाद और लूटमार तथा हड़ताल से कोई भी स्थायी समाधान नहीं निकल सकता। इसका उत्तर भारतीय संस्कृति के मूल में है उसकी प्रज्ञा में है। भारतीय प्रज्ञा का सर्वथा नवीनीकरण करके प्रत्यक्ष प्रश्न के उत्तर को अकाट्ïय ढंग से उपस्थित करके ऋषि श्री अरविन्द ने मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। उनके विचारों से प्रकाश लेते हुए और प्रकाश के नीचे अन्य गुरुजनों और विश्व कत्र्तव्य के प्रति आश्वस्त बन सकते है।
आन्तरिक विद्वेष मिटायें
दीपों की मालाएं सजाने का यह त्यौहार निश्चय ही उस युग की देन है, जब हम ‘तमसोमां ज्योतिर्गमयÓ की पुकार किया करते थे। देखा जाए तो आज हमारे पास अपेक्षाकृत अधिक आलोक है किंतु रोशनी की आवश्यकता कभी भी समाप्त नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि बाह्यï अंधकार तो आंतरिक अंधकार का आभास है। मानव मन जिस निविड़ अंधकार से आवृत्त है, उसके लिए तो बहुत ही अधिक ज्योति की जरूरत है। हमारा मन अज्ञान के फलस्वरूप अहम्, ईष्र्या, द्वेष, हिंसा, कलुष आदि अनेक अंधकारी परतों से दबा पड़ा है। अत: यदि मन का महल ही अंधेरे के अनुशासन में है तो ईंट-पत्थरों के मकानों को प्रकाश-पुंज से चमका देने पर भी कोई विशेष उपलब्धि नहीं मिलेगी। अत: इस उत्सव को मनाने के लिए महलों-मकानों के साथ झोपडिय़ों को भी आलोकित होने देना चाहिए, ताकि मूल समस्या के निदान की दिशा में शुरुआत हो तथा अपने-पराये के भेद-भाव को क्रमश: कम किया जा सके।
मिठाई नहीं, स्नेह बांटें
दीवाली के ही कार्यक्रम के रूप में मिष्ठïान्न के वितरण ने भी पर्याप्त प्रमुखता पाई है। हम अपने इष्टï मित्रों, सगे-संंबंधियों आदि को मिठाई खिलाकर प्रसन्न करते हैं, जो कि सामाजिक जीवन का अंग होना ही चाहिए किंतु इस तथ्य को भुला देना दूरदर्शिता नहीं होगी कि वास्तविक मिठास का सही स्थान मानव मन है, जहां से हमारी वाणी इसका वितरण करती अथवा कर सकती है। अब मिठाई नहीं, स्नेह बांटें। मिठाई तो अस्थाई स्वाद है। स्नेह का स्वाद मनुष्य को जीवनभर याद रहता है, लेकिन लगता कुछ ऐसा है कि हमारी पकड़ सतही रह गई है। जीवन के सूत्र हमसे छूट गए हैं। हम लोग दिन-ब-दिन अधिकाधिक औपचारिकताओं में जीने लगे हैं। यही कारण है कि हमारे उत्सव और त्यौहार भी रस्मी रह गए है। एक प्रकार से वे हमारी जीवनधारा से कट गए हैं। इसीलिए हमें अनावश्यक प्रतीत होने लगे हैं और उनके प्रति हमारे अन्दर उत्साह का अभाव हो चला है।
श्रम में ही लक्ष्मी
सम्पन्न तथा सुख रहने की दशा में सक्रिय रहना अत्यंत आवश्यक है तथा इस इच्छा की सिद्धि के लिए उपासना की जानी चाहिए। किन्तु मात्र दीवाली के दिन लक्ष्मी जी की प्रतिमा पर रोली, डोरी, अक्षत, पुष्प, नेवेदïय, दक्षिणा आदि चढ़ाकर सुख-समृद्धि की आशा करना आकाश-कुसुम तोडऩे के समान होगा। लक्ष्मी जी जिस पर प्रसन्न होती हैं, उसे निहाल कर देती है परन्तु एक दिन भोजन करके वर्ष भर कौन जीवित रहा है। रोज जीने के लिए तो रोज खाना पड़ता है। इसी प्रकार लक्ष्मी को नित्य प्रसन्न रखने के लिए उनकी नित्य ही आराधना करना पड़ती है। लेकिन लक्ष्मी की पूजा में एक बड़ी कठिनाई है। इनकी पूजा में अन्य देवी-देवताओं की पूजा से एक मौलिक भेद है और वह यह कि लक्ष्मी की पूजा हमारे परिश्रम में निहित है। हम लोग जितना ही अधिक परिश्रम करेंगे, लक्ष्मी उतनी ही अधिक प्रसन्न होगी। गरीबी दूर होगी। अभाव मिटेंगेँ विषमताएं नष्टï होंगी। इसलिए इस दीपमाला पर व्रत लें कि हम श्रम के दीप को अपने पसीने और खून के तेल से जलाएंगे, ताकि उससे निकला समृद्धि का उजाला अपने घर-आंगन के साथ हर देहरी को प्रकाशमान करे।