दारिद्रयं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति।
संसार में दारिद्रता पाप है। कौन दरिद्रता की प्रशंसा कर सकता है। इसी दरिद्रता का विनाश कर सुख, समृद्घि, वैभव की प्राप्ति की अभिलाषा लेकर हिंदू धर्मावलंबी दीपावली के दिन माता लक्ष्मी का पूजन करते हैं। आतिशबाजी, पटाखे, मिठाई, विद्युत प्रकाश कर दीपावली की रात्रि को आलोकित करते हैं।
मन में भावना होती है माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने की, धनवान बनने की और दरिद्रता दूर करने की। पर सोचने एवं समझने की बात यह है कि क्या सिर्फ एक दिन माता लक्ष्मी का पूजन कर लेने से या धर्म के नाम पर आडम्बर कर लेने से यह सब संभव है?
क्या माता लक्ष्मी को एक दिन की पूजा, आराधना, जगमगाहट से प्रसन्न किया जा सकता है? क्या एक दिन दीपावली पर भक्ति-भावना दिखा देने से धनकुबेर बना जा सकता है? इन सब सवालों का जवाब स्वयं माता लक्ष्मी जी ने दिया है।
रूक्मणि जी ने माता लक्ष्मी जी से एक बार पूछा-आप कहां विराजमान रहती हैं एवं कहां नहीं? तब माता ने अपना निवास स्थान बताते हुए कहा-
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्माणि वत्र्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेंद्रिये नित्यमुदीर्ण सत्वे॥
स्वधर्म शीलेषु च धर्मपित्सु वृद्घोपसेवानिरत च दान्ते।
कृतात्मबि क्षांतिपरे समर्थे क्ष्शातासु दत्नासु तथा बलासु॥
स्थिता पुण्यवतां गेहे सुनीति पथ वेदिनाम।
गृहस्थानां नृपाणां वा पुत्रवत्पालयामि तान॥
‘मैं सुंदर, मधुरभाषी, चतुर, कत्र्तव्य में लीन, क्रोधहीन, भगवत परायण, कृतज्ञ, जितेंद्रिय और बलशाली पुरूष के पास बनी रहती हूं। मैं स्वधर्म का आचरण करने वाले, धर्म की मर्यादा जानने वाले, दीन-दुखियों की सेवा करने वाले, आत्मविश्वासी, क्षमाशील और समर्थ पुरूषों के साथ रहती हूं।
जो स्त्रियां पति परायणा, सत्यवादी निष्कपट, सरल स्वभाव संपन्न तथा सत्याचरण परायणा हैं वे मुझे पसंद हैं।
सदा हंसमुख रहने वाली, सौभाग्ययुक्त, गुणवती, कल्याण कामनी स्त्रियों के पास रहना पसंद करती हूं। नीति मार्ग पर चलने वाले पुण्य कर्म करने वाले, दानशील गृहस्थों का मैं पुत्रों की तरह पालन करती हूं।
उद्योगिनं पुरूषसिंह मुपैति लक्ष्मी:।
उसी पुरूष को लक्ष्मी प्राप्त होती है, जो उद्योग परायण होता है।लक्ष्मी जी कहां नहीं रहतीं?
लक्ष्मी जी कहती हैं-
मिथ्यावादी च य: शश्व दनध्यायी च य: सदा।
सत्वहीनश्च, दुश्शीलो न गेहं तस्य याम्यहम्।
सत्यहीन: स्थात्यहारी मिथ्या साक्ष्य प्रदायक:
विश्वासघ्न: कृतघ्नों वा यामि तत्य न मंदिरम््॥
चिंताग्रस्तो, भयग्रस्त: शस्त्रग्रस्तो अतिपातकी।
ऋणग्रस्तोअति कृपणो न गेहं यानि पापिनाम॥
दीक्षाहीनश्च शोकात्र्तों मंदधी स्त्रीतित: सदा।
न यास्यामि कदा गेहं पुश्तचल्या: पति पुत्रयो:॥
यो दुर्वाक् कलहाविष्टï: कलिरस्ति सदालये।
स्त्री प्रधाना गृहे यस्य यामि तस्प न मंदिरम्॥
‘मिथ्यावादी, धर्मग्रंथों को कभी न देखने वाला, पराक्रम से हीन, सत्य से हीन, धरोहर छीनने वाला, विश्वासघाती, कृतघ्न पुरूष के घर मैं नहीं जाती।
चिंताग्रस्त, भय में सदा डूबे हुए, पातकी, कर्जदार, अत्यंत कंजूस के घर भी मैं नहीं जाती एवं दीक्षाहीन, शोकग्रस्त मंदबुद्घि, स्त्री के गुलाम, विलासी के घर मैं कभी नहीं जाती।
कटुभाषी, कलह प्रिय, भगवान की पूजा न करने वाले के यहां भी मैं नहीं ठहरती। मैं अकर्मण्य, आलसी, नास्तिक, उपकार को भुला देने वाले, आपसी बात पर स्थिर न रहने वाले, चोर, डाह रखने वाले पुरूषों के यहां कभी नहीं रहती। मैं पुरूषार्थहीन, संतोषी, तेजहीन, बलहीन, और आत्मगौरव से हीन पुरूष के पास भी कभी नहीं ठहरती।‘
गंदे वस्त्र पहनने वाले, शरीर को स्वच्छ न रखने वाले, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी जी सदा के लिये त्याग देती हैं।
तात्पर्य यह कि धन-संपदा, ऐश्वर्य उन स्वच्छ, सक्रिय और उद्योगी व्यक्तियों के पास रहते हैं जो कर्तव्यशील, आलस्य रहित हैं। धर्मगंरथों के इस विवरण से यह सिद्घ होता है कि दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के साथ माता लक्ष्मी को जो बातें पसंद हैं उन्हें अपने चरित्र में, दैनिक क्रियाओं में अपनाने का संकल्प लिया जाये एवं जो दुर्गण माता लक्ष्मी को पसंद नहीं उन्हें सब अवगुण सदा के लिये त्यागने का संकल्प लेना चाहिए तभी माता लक्ष्मी न केवल आती हैं बल्कि स्थायी समृद्घि, वैभव, सुख, शांति, संपन्नता का अतुलनीय खजाना साथ लेकर आती हैं। धन का सदुपयोग करने अर्थात धर्मशाला में प्याऊ बनवाने, वृक्ष लगाने , स्कूल, अस्पताल, वृद्घाश्रम आदि के लिये दान देने से माता लक्ष्मी की प्रसन्नता बढ़ती है। वहीं धन का दुरूपयोग, शान-शौकत दिखावा, विलासिता, कंजूसी, बुरे कार्यों में धन खर्च करना, धनवान होकर निर्धन पर अत्याचार करना माता लक्ष्मी का अपमान है। पैसे के उपयोग में जो सावधानियां बरतनी चाहिए यही माता लक्ष्मी की पूजा में निहित है। धन का उपयोग हमारे समाज, व्यक्ति तथा देश हित में हो, यही सच्ची लक्ष्मी पूजा है।
रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या: पापीस्ता अनीनशम् अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को यह स्मरण रखना चाहिए कि पुण्य से कमाया धन ही जीवन में सुख, समृद्घि देता है, जो पापयुक्त धन है वह व्यक्ति का एक दिन सर्वनाश करता ही है यह अटल सत्य है।
अत: माता लक्ष्मी के नित्य निवास के लिये हमें अनैतिक तरीकों को तुरंत त्याग देना चाहिए एवं नैतिकता का आचरण अपनाते हुये-
भव क्रियापरो नित्यम्।
हे पुरूषों तुम सदा सद्कर्म में तत्पर रहो, खाली मत बैठो, लक्ष्मी माता के निवास के अनुकूल वातावरण निर्मित करो।
धनमस्तीति वाणिज्यं किंचिद स्तीति कर्षणम सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च॥
अर्थात् धन हो तो व्यापार करना चाहिए, थोड़ा धन हो तो खेती करना चाहिए और यदि कुछ भी न हो तो नौकरी ही सही परंतु भीख तो कभी भी नहीं मांगनी चाहिए, क्योंकि सुपात्र के यहां तो माता लक्ष्मी स्वयं चलकर अवश्य आती हैं।