इको फ्रेंडली उत्सव ही एकमात्र पर्याय

हमारा भारत उत्सव प्रधान देश है। यहां जितने त्योहार मनाए जाते हैं, शायद ही दुनियां के किसी कोने  में मनाएं जाते हों। हमारी पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था त्योहारों,उत्सवों और संस्कृति पर आश्रित है। त्योहार न केवल हमारी संस्कृति को बचाते हैं अपितु रोजगार प्रदान करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं फिर चाहे वह दीपावली, होली, ईद, दशहरा, प्रकाशपर्व, गणेशोत्सव, शारदोत्सव, दुर्गात्सव हो अथवा रामनवमी एवं जन्माष्टमी, महावीर जयंती हो अथवा बुद्ध पूर्णिमा या फिर आंबेडकर जयंती।


तीज, त्योहारों,जन्मोत्सव,स्मृति दिवस से लेकर अन्य सभी त्योहारों को पूरे हर्षोल्लास से मनाने की सबसे अदभुत परंपरा सिर्फ भारत में ही जीवित है। दुर्भाग्यवश कहें या अज्ञानतावश कहें, पर्यावरण पर महोत्सवों का जबरदस्त दुष्परिणाम नजर आया है।


दीपोत्सव के दौरान मिट्टी की मूर्ति और दीपक बाजार की रौनक बढ़ाया करते थे। अचानक प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां बनने लगी और जल प्रदूषण बढ़ाने लगी। इसी तरह जन्माष्टमी, पोला, गणेशोत्सव,शारदोत्सव एवं दुर्गात्सव में भी ऐसी साज सामग्री उपयोग में लायी जाने लगी जो प्रकृति के अहित में कारगार सिद्ध होने लगी। इनमें प्लास्टिक,थर्मोकोल का प्रयोग बढ़ने लगा।


आतिशबाजी के नाम पर स्पर्धा शुरू हो गई। होली में रासायनिक रंग,पेंटस, डामर,वार्निश तक उपयोग में लायी जाने लगी जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थी। मिठाइयों की जगह कैडबरी ने ली, जो स्वास्थ्य एवं पर्यावरण दोनों के लिए घातक है । कहने का अर्थ यह है कि ग्लैमर की चकाचौंध में और झूठी शान एवं आडम्बर के चक्कर में हम सभी पर्यावरण के साथ दुर्व्यवहार करने लगे।


प्रकृति के साथ यह भददा मजाक जानलेवा साबित होने लगा। ग्लोबल इफेक्ट नजर आने लगा। ग्लोबल वार्मिग का वार्निग हार्न बजने लगा। किसी ने अभी भी इसे गंभीरता से कहां लिया है। महोत्सव के दौरान लाखों टन कूड़ा कचरा निकलता है। वह भी ऐसा जो नष्ट नहीं होता। प््ृथ्वी को परेशान कर रहा है। काश ! हम प्रकृति से खिलवाड़ के गंभीर परिणामों के प्रति गंभीर हो पाते।


इको फ्रैंडली पर्व महोत्सव की नई परंपरा स्थापित करें ताकि पर्यावरण को और अधिक नुकसान से बचाया जा सके। नदियों ,तालाबों और समुंदर को जल प्रदूषण से बचाना होगा। फल फूल ,पत्तियां, केले के खम्बे ,बचा खुचा प्रसाद एवं अन्य सामग्री हम पूजन उपरांत मूर्ति संग विसर्जित करते हैं। अच्छा होता यदि मूर्ति विसर्जित की जाती एवं अन्य सामग्री जमीन में गड्ढे कर गाढ़ दी जाती, कम से कम खाद बनती जो कृषि के काम आती।


सिर्फ महोत्सवों के दौरान ही क्यों, रोजमर्रा जिंदगी में भी प्लास्टिक एवं पॉलिथिन का यथासंभव उपयोग टालने की सोच बनानी होगी ताकि पर्यावरण कम से कम प्रभावित हो। क्यों न हम ’पेड़ लगाओ प्रकृति बचाओ‘ को सभी पर्व महोत्सवों से जोड़ दें। साफ सफाई को प्राथमिकता दें। ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने का अधिक से अधिक प्रयास करें।


इको फ्रैंडली पर्व महोत्सव समय की मांग है जिसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए। आइये हम सब संकल्प लें कि इको फ्रैण्डली माहौल में पर्व महोत्सव मनाएंगे। एक दूसरे को नीचा दिखाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी इससे कुछ हद तक रोक लग पाएगी।


हमारा एकमात्रा मकसद राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को कायम रखना है ताकि आपदाओं से निपटने में भी अधिक कठिनाइयों का सामना न करना पड़े। बाढ़,सूखा , भूकंप ,आग , भू-स्खलन एवं कटते हुए वनों से निपटने में सहायता मिले। खनिज एवं रेत उत्खनन को गंभीरता से लिया जाए। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो। पेयजल संकट से निपटने में सहयोग मिल सके।


जल होगा तो जीवन होगा। जीवन तभी होगा जब प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ पर रोक लगेगी। जन संचेतना जारी है। रीति रिवाज भी जीवित रहें और प्रकृति भी! यह बहुत जरूरी है अन्यथा विनाश अटल है प्रकृति का, हम सभी का, उन सभी उपलब्धियों का जिसे कठोर श्रम से मनुष्य ने प्राप्त किया। जागो प्रकृति प्रेमी जागो–कहीं ऐसा न हो जाए कि जागने में बहुत अधिक देर न हो जाए। फिर जागने का मौका भी हाथ न लगे।