दीपावली पर जहां बड़े लोगों का ध्यान घर की साफ-सफाई और सजावट की तरफ रहता है, वहीं बच्चे भी अपने छोटे-छोटे घर यानी घरौंदे की सजावट और रंगाई पुताई में लगे रहते हैं। घरौंदे की सजावट के लिए बच्चे उसी तरह बेचैन रहते हैं, जिस तरह बड़े लोग घरों की सजावट को लेकर।
पहले ये घरौंदे मिट्टी से बनाये जाते थे और बच्चे इन्हें खुद बनाते थे, मगर बदलते वक्त के साथ अब इन घरौंदों में भी फैन्सी टच आ गया है। मिट्टी की जगह थर्मोकोल और प्लाई से बने रेडीमेड घरौंदे बाजार में उपलब्ध हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि घर की बेटियां भगवान से यह प्रार्थना करती हैं कि जिस तरह हमने ये घरौंदा धान और मिठाइयों से भरा है उसी तरह हमारे माता-पिता का घर धन और धान्य से भरा पूरा रहे। उसमें खुशियां बसी रहे। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि शुरू से ही लड़कियों का मन घर परिवार और घर के साज-सजावट की ओर लगा रहता है। घरौंदों का निर्माण भी उसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव का नतीजा है। यह बात भी कही जाती है कि दीपोत्सव श्री रामचन्द्र जी के अयोध्या आगमन की खुशी में मनाया जाता है, वहीं घरौंदा सीता मैया की घर गृहस्थी का प्रतीक है क्योंकि शादी के बाद वनप्रस्थान और 14 वर्षों के बाद वापसी पर सही रूप में उन्हें गृहस्थी संभालने का मौका मिला था।
खैर कारण कुछ भी हो मगर छोटे-छोटे बच्चों के लिए घरौंदा अपनी कुशलता दर्शाने का मौका होता है, जिसका वे जमकर आनंद उठाते हैं और अपनी कला-कौशल और व्यवस्था का भरपूर परिचय देते हैं।
ये घरौंदे एक मंजिले, दो मंजिले बंगलानुमा, छोटे पहाड़ी घर के आकार में, खूबसूरत रंगों और डिजाइनों वाले होते हैं। इन्हें रंग-बिरंगे बल्बों, झालरों और लकड़ियों द्वारा सजाया जाता है। इनमें भरपूर रोशनी की व्यवस्था की जाती है ताकि उनका यह नन्हा या घर संसार रोशनियों से जगमगाता रहे और उनके जिन्दगी में खुशियों की सौगात लाता रहे।