सती स्तम्भ तथा वाराह प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध ऐरन

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आमतौर पर धारणा यह है कि भारत में सती-प्रथा का उद्भव मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं के समय में हुआ था। पर मध्यप्रदेश के सागर जिले के ऐरन ग्राम में प्राप्त एक ऐतिहासिक शिलालेख इस मान्यता का खंडन करता है। इस शिलालेख के अनुसार छठवीं शताब्दी में सन् 510-511 ई. में हूणों से हुए एक युद्ध में गोप राज नामक एक योद्धा मारा गया था तथा उसकी पत्नी उसके साथ सती हो गयी थी।२



वैसे सती-प्रथा का उल्लेख भारत के अनेक धर्मग्रंथों एवं पुराणों में मिलता है। पर पुरातत्व शास्त्रियों के अनुसार ऐरन का यह सती-स्तम्भ भारत का प्राचीनतम सती-स्तम्भ है। यह भी एक विचित्र संयोग है कि जिस सागर जिले में ऐरन स्थित है, उसी सागर जिले से सती-प्रथा का उन्मूलन करने की प्रेरणा सन् 1832-33 में भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक को मिली थी। सती प्रथा के उन्मूलन के लिए विख्यात अंग्रेज अधिकारी कर्नल स्लीमन ने अपनी पुस्तक रेम्बल्स एंड रिकलेशन्स ऑफ एन इंडियन आफिशियल में इस दिलचस्प तथ्य का उल्लेख किया है। स्लीमेन के अनुसार सन् 1932-33 में लार्ड विलियम वेंटिक ने सागर जिले की यात्रा की थी। बहरोल से धामोनी तक की यात्रा के दौरान उसने अपने पतियों के साथ सती हो जाने वाली महिलाओं की स्मृतियों में बने स्तम्भ एवं स्मार2क देखे। इन स्तम्भों-स्मारकों तथा सतीप्रथा के बारे में जानकर लार्ड विलियम बेंटिक का हृदय द्रवित हो उठा। बाद में यही लार्ड विलियम बेंटिक सती-प्रथा का उन्मूलन करके एक सुधारवादी अंग्रेज प्रशासक के रूप में प्रसिद्ध हुए।



अपने सती-स्तम्भ एवं अन्य दुर्लभ ऐतिहासिक अवशेषों के लिए पुरातत्व शास्त्रियों में चर्चित ऐरन इन दिनों सागर जिले का छोटा-सा अचर्चित ग्राम है, पर इस ग्राम को यह गौरव प्राप्त है कि वह शताब्दियों तक दशार्ण के नाम से विख्यात देश की राजधानी रहा। भारत में प्राचीनकाल में प्रचलित प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली को इसी क्षेत्र में पल्लवित होने का अवसर मिला। समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय यात्रा के कीर्तिचिह्न इस क्षेत्र में स्थापित किये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि इस छोटे से गांव की यह है कि यहां भारत की ब्राह्मण धर्म से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस गांव की प्राचीनता का पता इसी तथ्य से लगता है कि जिस समय तक्षशिला आदि इतिहास प्रसिद्ध नगरियों का अस्तित्व ही नहीं था, तब दशार्ण-क्षेत्र का अस्तित्व था और इस क्षेत्र की राजधानी कभी ऐरन रही तो कभी विदिशा। इस क्षेत्र को दशार्ण ऐरन के पास से ही बहने वाली धसान नदी के कारण कहा जाता था। धसान इस नदी का अपभ्रंश प्राप्त नाम है। मूल नाम दशार्ण था। जिसके आधार पर इस सारे क्षेत्र को ही दशार्ण प्रदेश कहा जाता था।



पौराणिक काल से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल तक इस क्षेत्र का नाम दशार्ण ही रहा। चाणक्य ने भी दशार्ण प्रदेश के नाम का उल्लेख अपने अर्थशास्त्र में किया है। पुराणों में दशार्ण प्रदेश का उल्लेख अनेक बार आया है। महाभारत काल में दशार्ण के राजा वामदेव थे। मथुरा पर जरासंध द्वारा किये गये आक्रमण के समय यही वामदेव जरासंघ के साथ थे। युधिष्टिर ने जब राजसूय यज्ञ किया तो उस समय यहां के राजा हिरण्य वर्मा थे। इसी समय या इसके कुछ वर्ष पूर्व भगवदत्त नामक शासक के राज्य का भी इस क्षेत्र में उल्लेख मिलता है। महाभारत के जैमिनीय अश्वमेध खंड में पांडवों और दशार्ण नरेश यौवनाश्व के मध्य हुए युद्ध का विस्तार से वर्णन मिलता है। यह युद्ध भी महाभारत के युद्ध के कुछ समय पहले हुआ था। इन पौराणिक आख्यानों में दशार्ण प्रदेश की सीमा का जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार यह क्षेत्र उज्जैन एवं मथुरा की सीमाओं के बीच स्थित था। पर यह स्पष्ट नहीं होता कि उस समय राजधानी विदिशा थी या ऐरन। यह कठिनाई इसलिये और बढ़ जाती है, क्योंकि इन दोनों ही नगरों का अस्तित्व प्रगैतिहासिक काल से ही भारतीय इतिहास के वैभव पूर्ण एवं महिमामंडित नगरों में रहा है।



ऐरन का प्राचीन नाम ऐरा कन्या एवं ऐराकान था। इस नामकरण के इतिहासकारों ने दो कारण बताये हैं, एक तो यहां ऐराका (संस्कृत नाम) नामक वह घास प्रचुर मात्रा में उगती है, जो प्रदाह-प्रशामक (जलन दूर करने वाली) होती है। संस्कृत में ऐराका का अर्थ नाग भी होता है। मान्यता है कि यहां नागपंथी या नाग-उपासक राजाओं का शासन रहा होगा, इसलिये इसका नाम ऐराकन्या या ऐराकान हो गया। ऐरन में वैसे इस तरह के अनेक प्राचीन सिक्के मिले हैं, जिन पर नागों की आकृतियां हैं। इस गांव का वर्तमान ऐरन या ऐरण नाम, इसी ऐराकन्या या ऐराकान नाम का अपभ्रंश है।



ऐरन में प्राप्त सिक्के ही उसका इतिहास निश्चित एवं व्यवस्थित करने में सहायक सिद्ध हुए हैं। यहां प्राप्त सिक्कों में कुछ तो ईसा से तीन शताब्दी पहले के हैं। इन सिक्कों में एक मुद्रा पुरातत्व शास्त्रियों की दृष्टि से बड़ी असाधारण है। इस मुद्रा (सिक्के) पर राजा धर्मपाल का नाम अंकित है। पर यह धर्मपाल कौन था, इसके बारे में भारतीय इतिहासकार मौन हैं। इस राजा का अस्तित्व ही सिर्फ सिक्के के कारण सामने आया है। कुछ ऐसे सिक्के भी मिले हैं, जिन पर नगर राज्य ऐराकन्या एवं ऐराकान के शासकों के अंकित नहीं होने से इतिहासकारों एवं पुरातत्व शास्त्रियों का अनुमान है, उस समय ऐरन किसी ऐसे राज्य की राजधानी था, जहां प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली प्रचलित थी। माध्यमिका, कौशाम्बी, त्रिपुरी, अवंतिका आदि में भी इस प्रकार की प्रणाली प्रचलित होने के उल्लेख मिलते हैं।



ऐतिहासिक संदर्भों से पता चलता है कि बाद में ऐरन मौर्य एवं शुंग साम्राज्य का अंग बन गया था। शुंग काल के प्रतापी शासक अग्निमित्र (मालविकाग्निमित्र के नायक) के काल के (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) सांची के एक बौद्ध स्तूप में लगे एक लेख में ऐरन के एक निवासी से दान मिलने का उल्लेख मिलता है।



चौथी शताब्दी के प्रारंभ में ऐरन में श्रीधर वर्मन नामक एक राजा राज्य कर रहा था। समुद्रगुप्त की दिग्विजय यात्रा में वह पराजित हुआ था। श्रीधर वर्मन के दो स्तंभ लेख ऐरन में प्राप्त हुए हैं, जिससे समुद्रगुप्त के पूर्व उसकी स्वतंत्र सत्ता का बोध होता है। समुद्रगुप्त की ऐरन-विजय का साक्षी, उसके द्वारा बनाया गया मंदिर है। श्रीधर वर्मन का भारतीय इतिहास में अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। अपने समय का वह यशस्वी एवं वीर राजा था। संभवत: इसीलिये समुद्रगुप्त ने ऐरन पर आक्रमण किया था। उसकी कीर्ति समुद्रगुप्त को चक्रवर्ती बनने की महत्वाकांक्षा में बाधक थी। श्रीधर वर्मन का एक और शिलालेख ऐरन में मिला है। जिसमें उसका उल्लेख एक नरेश तथा शक नंद के पुत्र के रूप में किया गया है। श्रीधर वर्मन के सेनापति सत्यनाग द्वारा बनाया गया एक स्तम्भ भी ऐरन में मिला है। यह स्तम्भ उन नाग-सैनिकों की स्मृति में बनाया गया है, जो ऐरीकिना राज्य के लिए हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। सत्यनाग ने इस स्मृति-स्तम्भ में उत्कीर्ण अपने संदेश में लिखा है कि यह स्तम्भ वीर जातियों की आगे आने वाली पीढिय़ों को वीरता प्रदर्शित करने के लिए प्रेरणा देता रहेगा।



धार्मिक सद्भाव : श्रीधर वर्मन किसी दूसरे धर्म का था। शक होने के कारण यह स्वाभाविक भी था। पर ऐरन में धार्मिक सद्भावना के युग का उसने सूत्रपात किया। उसने अपने आपको कार्तिकेय का भक्त बताया है तथा कुएं एवं जलाशय बनाकर वह स्वर्ग-प्राप्ति का इच्छुक था। ऐरन में प्राप्त शिलालेखों में उसे विजयिन (धार्मिक विजेता) निरूपित किया गया है। उसके शिलालेख उच्च संस्कृत काव्य-शैली के हैं, जिससे यह प्रमाण मिलता है कि उसके राज्य में एक या अनेक संस्कृति कवि निवास करते थे या आते-जाते थे।



इतिहासकार कहते हैं कि श्रीधर वर्मन के किसी कार्य से उत्तेजित होकर समुद्रगुप्त ने उस पर आक्रमण किया और ऐरन पर निर्णायक विजय प्राप्त करके वहां अपना एक स्मारक बनाया। पर ऐरन-साम्राज्य का कुछ हिस्सा शक नरेश के पास ही बना रहा।


समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा नरेशों के इस अवशेष-राज्य को भी सहन नहीं कर पाया। उस समय (चौथी शताब्दी ईसवी) श्रीधर वर्मन का पुत्र या भाई घटोत्कच ऐरन का शासक था। उसका राज्य तुम्बवन (आधुनिक तूमैन, जिला-गुना) तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने घटोत्कच को पराजित किया और ऐरन से शकों की सत्ता का अंत हो गया।


गुप्तकाल तथा उसके बाद के अवशेषों से तो ऐरन भरा पड़ा है। इस क्षेत्र में रामगुप्त, शिवगुप्त और सुखदेव नामक राजाओं के सिक्के मिले हैं। इनमें से सुखदेव तीसरी शताब्दी में ऐरन में राज कर रहा था। रामगुप्त वह शासक था, जिसे इतिहासकार कपोल-कल्पित शासक मानते हैं। यह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का भाई तथा इतिहास-प्रसिद्ध ध्रुवस्वामिनी का प्रथम पति था। इसी रामगुप्त ने शक-नरेश को ध्रुवस्वामिनी भेंट करने का निर्णय किया था। बाद में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक-नरेश का वध करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। गुप्तकाल में कुमारगुप्त प्रथम के अंतिम दिनों तथा स्कंदगुप्त के शासनकाल में मध्य एशिया से आये हूणों ने अधिकांश गुप्त-साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था। पर उस समय ऐरन पर गुप्त वंश का ही अधिकार था। इस तथ्य को ऐरन में प्राप्त एक शिलालेख उद्घाटित करता है। यह शिलालेख 484 ईसवी का है। इस शिलालेख में महाराज मातृविष्णु तथा उनके अनुज धन्यविष्णु द्वारा भगवान विष्णु की आराधना में ध्वज-स्तम्भ बनाने का उल्लेख है। इस शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि उस समय गुप्तों के स्थानीय शासक के रूप में सामंत मातृविष्णु यहां शासन कर रहा था तथा उसके द्वारा शासित प्रदेश कालिन्दी (यमुना) और नर्मदा नदियों के बीच स्थित था। समुद्रगुप्त द्वारा बनाये गये ऐतिहासिक विष्णु-मंदिर के सामने ही मातृविष्णु का यह शिलालेख स्थित है।



भारत की सर्वाधिक विशाल वाराह प्रतिमा : पांचवीं शताब्दी के अंत में ऐरन पर हूणों का शासन हो गया। हूणों के एक मुखिया ने गुप्त-वंश का उन्मूलन कर ऐरन से लेकर पूर्वी मालवा में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।



हूण शासक तोरमाण द्वारा ऐरन पर अपना अधिकार स्थापित करने का स्पष्ट प्रमाण भगवान वाराह की ऐरन में प्राप्त एक विशाल भव्य एवं प्रचंड प्रतिमा के वक्षस्थल पर अंकित शिलालेख से मिलता है। इस शिलालेख में महिमा-मंडित और यशस्वी महाराजाधिराज लोकमान तोरमाण के राज्य के प्रथम वर्ष में मातृविष्णु (गुप्त शासक) के निधन के उपरांत उनके भाई धन्यविष्णु द्वारा एक मंदिर बनवाने का उल्लेख है।



वाराह की यह प्रतिमा भारत में वाराह की सर्वाधिक विशाल प्रतिमा मानी जाती है। गुप्तकाल में विष्णु के जिन अवतारों की पूजा और आराधना की जाती थी, उनमें वाराह भी एक था। विदिशा के वाराह-अवतार की प्रतिमा गुप्तकालीन शिल्पकला के लिए विख्यात है। वाराह की प्रतिमाएं मथुरा, पाटलिपुत्र (पटना) तथा अन्य स्थानों पर भी मिली हैं। ऐरन की वाराह प्रतिमा की दो विशेषताएं हैं। एक तो इसकी विशालता और दूसरी इसकी प्राचीनता। यह प्रतिमा भारत में ब्राह्मण धर्म से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन प्रतिमा है तथा उसकी ऊंचाई 19 फुट से अधिक है। इसके गले के चारों ओर एक पट्टा उत्कीर्ण है, जिसमें मानव आकृतियां उत्कीर्ण हैं। वाराह के मुख-पेट पर तथा अन्य अंगों पर विभिन्न देव प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस प्रतिमा को वर्तुलाकार अलंकरणों से भी सज्जित किया गया है। वाराह, पुराणों में वर्णित उस कथा का प्रतीक है, जब भगवान विष्णु ने वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया था। ऐरन की वाराह प्रतिमा के दाहिने दांत पर नारी का स्वरूप धारण किये हुए पृथ्वी लटकती हुई दिखायी पड़ती है। इस वाराह-प्रतिमा के चारों ओर भगवान विष्णु के देवालयों के अवशेष अभी भी बिखरे पड़े हैं। इन देवालयों की कुछ प्राचीरों-स्तम्भों तथा द्वार-मार्ग के अवशेष भी ऐरन में हैं। स्तम्भों पर तत्कालीन वास्तुकला के श्रेष्ठ स्वरूप के दर्शन होते हैं। ऐरन में एक और प्रतिमा उल्लेखनीय है, विष्णु भगवान की। यह मूर्ति धोती एवं यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, उसके एक हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में गदा है। पीठ पर ढाल बंधी हुई है। यह प्रतिमा अपनी कलाइयों में कंगन धारण किये हुए हैं। विष्णु की यह प्रतिमा भी अपनी विशालता के लिए प्रसिद्ध है।



गुप्तकाल में इस क्षेत्र के शासक मातृविष्णु तथा उनके भाई धन्यविष्णु द्वारा बनाया गया एक स्तम्भ भी अपनी भव्यता एवं विशालता के कारण दर्शनीय है। यह स्तम्भ 47 फुट ऊंचा है। स्तम्भ 20 फुट की ऊंचाई तक लगभग तीन फुट चौड़ा और इतना ही मोटा है। इसके ऊपर आठ फुट का हिस्सा अष्टकोणीय है।



स्तम्भ के शीर्ष का निचला भाग झालदार घंटाकृति का है। इसके ऊपर वर्गाकार शीर्ष फलक है, जिस पर दो सिंह बैठे हैं।



सती-स्तंभ- सन् 510-11 में ऐरन में एक और युद्ध लड़े जाने के उल्लेख मिलते हैं। भानुगुप्त नामक शासक द्वारा लड़े गये इस युद्ध के बारे में दो धारणाएं हैं- पहली धारणा तो यह है कि यह हूण मुखिया तोरमाण द्वारा गुप्त साम्राज्य पर किये गये आक्रमण के प्रतिरोध स्वरूप लड़ा गया था। दूसरी धारणा यह है कि ऐरन पर हूणों के आधिपत्य को समाप्त करने के लिये स्थानीय योद्धाओं द्वारा किया गया अभियान था। इस युद्ध का उल्लेख श्रीधर वर्मन के सेनापति सत्यनाग द्वारा नागा सैनिकों की स्मृति में बने स्तम्भ के पिछले भाग को पढऩे पर मिलता है। इस स्तम्भ के पिछले भाग में उत्कीर्ण-वर्णन से पता चलता है कि ऐरन के इस युद्ध में भानुगुप्त का मित्र गोपराज मारा गया था तथा उसकी पत्नी उसके साथ सती होगयी थी। इस वर्णन के मध्य भाग में सिंहासनारूढ़ गोपराज तथा उसकी पत्नी का चित्र उत्कीर्ण हैं।
छठवीं शताब्दी तक ऐरन का वैभव थोड़ा बहुत बना रहा। बाद में इसका महत्व कम होता चला गया तथा अब यह छह-सात सौ लोगों की आबादी का एक गांव है। यहां पहुंचने के लिए मध्य रेलवे के मंडी बामोरा स्टेशन पर उतर कर छह मील पैदल चलना पड़ता है।



इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से यह सांची और विदिशा की तरह महत्वपूर्ण है, पर पुरातत्व विभाग एवं पर्यटन विभाग ने इसकी उपेक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नतीजे में सांची और विदिशा के पुरातत्वीय स्मारकों को देखने के लिए इक्का-दुक्का लोग पहुंच ही जाते हैं। ऐरन में तो महीना-पंद्रह दिन में कोई पहुंच जाये, तो बड़ी बात है।
हां सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्वविभाग ने अवश्य ऐरन की ओर ध्यान दिया। इस विश्वविद्यालय के शोधकर्ता विद्वानों द्वारा कराये गये उत्खनन से कई नये ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आये।


उत्खनन में प्राप्त अवशेष महेश्वर और त्रिपुरी में प्राप्त अवशेषों के सदृश्य हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐरन ताम्रयुगीन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। यहां हुए उत्कनन से लघु पाषाणिक काल से संबद्ध काली मिट्टी की पर्ते मिलीं, जिससे यहां विकसित हुई संस्कृति का ज्ञान हुआ।


यह संस्कृति ईसा से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व यहां अस्तित्व में थी।  पाषाणिक औजार, भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन के नमूने (जिन पर चित्रांकन है) पकाई मिट्टी की प्रतिमाएं तथा तांबे के टुकड़े प्राप्त हुए हैं।


यहां मिले उत्खनन से पता चला है कि ऐरन में ईसा पूर्व ऐसे भवनों का अस्तित्व था, जिनमें आग की पकी ईंटों का उपयोग हुआ था। ये ईंटे 43 गुना 25 गुना 7 सेंटीमीटर के आकार की थीं। इसके अतिरिक्त यहां आदिम ताम्र सिक्के, ठप्पा छाप सिक्के, मनके, मणियां, लोहे के बने उपकरण, हड्डियां तथा दैनिक उपयोग की भी कुछ वस्तुएं मिली हैं। एक वृत्ताकार अग्निकुंड भी यहां प्राप्त हुआ है।


रामगुप्त का एक सिक्का तो इस उत्खनन में मिला ही, एक सांचे की छाप भी मिली है, जिसमें मौर्यकाल में प्रचलित ब्राह्मी अक्षरों में रानी इदगूतस उत्कीर्ण है। यह छाप मौर्यकालीन एक राजा इंद्रगुप्त से संबंधित बतायी जाती है। ब्राह्मीलिपि युक्त एक अन्य सिक्का भी ऐरन में मिला है।


वैसे इतिहासकार यह मानकर ही संतोष कर लेते हैं कि बाद में ऐरन जैजकभुक्ती (बुंदेलखंड का प्राचीन नाम) प्रदेश का एक अंग बनगया। पर इतना वैभवशाली एवं महिमामंडित नगर यकायक इतना वैभवहीन कैसे हो गया?


वस्तुत: ऐरन से लेकर विदिशा जिले में स्थित बड़ोह-पठारी तक का क्षेत्र गुप्त, हूण, शक एवं मौर्य-कालीन अवशेषों से भरा पड़ा है। उसके बाद भी वहां निर्माण कार्य हुए होंगे, पर इस क्षेत्र पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग को इस ओर ध्यान देना चाहिये। यदि इस क्षेत्र के पुरातत्व, महत्व के स्थानों का समुचित अध्ययन एवं उत्खनन किया जाये तो कई विलुप्त ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आ सकते हैं।


ठीक उसी तरह, जिस तरह ऐरन में प्राप्त एक सिक्के तथा विदिशा में प्राप्त तीन प्रतिमाओं ने यह तथ्योद्घाटन किया कि रामगुप्त कोई काल्पनिक राजा नहीं था, बल्कि वह सम्राट की उपाधि ग्रहण करने वाला शासक था और जिसके नाम के सिक्के उन दिनों चलते थे।