आज भी अधिकांश परिवारों में लड़के की तुलना में लड़कियों को तुच्छ समझा जाता है, भले ही वे योग्यता, प्रतिभा, बुद्धिमानी व समझदारी में वे कितनी भी आगे क्यों न हों। सब को ताकपर रख कर उपेक्षित भाव से उन्हें दीन हीन समझा जाता है। लड़कों को अधिक महत्व दिया जाता है।
यूं देखा जाए तो आज हर क्षेत्र में लड़कियां आगे बढ़ रही हैं। उनकी कार्य-क्षमता, संचालन, दक्षता, कार्य के प्रति लगन पुरुषों से बीस ही होती है। फिर भी दुखद पहलू यह है कि हमारा परिवेश लड़कियों की प्रगति के प्रतिकूल है। जब बेटी के रूप में उसकी प्रतिभा एवं योग्यता को प्रोत्साहन, सराहना नहीं मिल पाती तो बहू या पत्नी के रूप में उम्मीद बेकार है।
हां, संस्कारित एवं खुले विचारों वाले परिवार अपनी बेटी की प्रतिभा को उभारने में पूरी मदद करते हैं। उनके सर्वागीण विकास के प्रति सतत् जागरुक होते हैं। हमेशा बेटी को आगे बढ़ाने में उसकी हौसला अफजाई करते हैं। सफलता मिलने पर अपनी बेटी पर नाज भी करते हैं।
फिर भी इतनी सफलता मिलने के पश्चात ही विवाहोपरांत महिलाएं उपेक्षित, पीडि़त और तनावग्रस्त होती है, निर्णय लेने में स्वयं को विवश पाती है। भारतीय नारी को अपनी रुचि, योग्यता, प्रतिभा को छोड़ अंतत: समझौता करना पड़ता है। कुल मिलाकर आधुनिकता और प्रगति के खेल के भीतर स्त्री एक दबी, सहमी और विवश है।
कॉलेज पहुंचने तक लक्ष्मी शहर की योग्य प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की पर्याय बन चुकी थी। हर क्षेत्र में कुछ करने की ललक थी उसमें, सभी क्षेत्र में उसकी धाक थी, पिता को नाज था अपनी बेटी पर। उन्होंने आगे बढऩे में लक्ष्मी का पूरा-पूरा सहयोग कर, हौसला, हिम्मत, साहस, आत्मविश्वास जैसे गुणों का भी विकास किया।
लक्ष्मी केरियर के प्रति जागरुक थी, कम्प्यूटर का कोर्स पूरा हो गया था। एक जगह सर्विस भी पक्की हो गयी। तनख्वाह भी अच्छी थी, सुनहरी धूप की भांति सुनहरा भविष्य चमक रहा था। लक्ष्मी सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न एवं प्रतिभाशाली थी। सामने स्वर्णिम भविष्य उसके इंतजार में पलकें बिछाये राह ताक रहा था, तभी इस विलक्षण प्रतिभा के सामने एक रिश्ते ने हाथ टेक दिये। मां बाप के साथ लक्ष्मी भी खुश थी, चलो प्रतिभा के कद्रदान ने स्वयं उसके दरवाजे पर दस्तक दी है।
शादी होते ही लक्ष्मी की योग्यता और प्रतिभा जाने कहां गुम हो गयी। घरेलू काम के अलावा और किसी बात की आशा नहीं करते थे उसके परिवार वाले। पति के लिए वह पत्नी के सिवाय कुछ भी न रही। अच्छे खासे कॅरियर की ओर बढ़ते कदम किचन और बेडरूम तक सीमित होकर रह गये।
हमारे सामाजिक परिवेश में विवाह तय करते समय लड़की की शिक्षा, प्रतिभा, गुणों का विशेष रूप से देखा परखा एवं सराहा जाता है। गुणों की नाप-तोल की जाती है लेकिन शादी के बाद घरेलू कामकाज के अतिरिक्त और कोई आशा ही नहीं की जाती।
पूरी तरह गृहस्थी की गाड़ी में पिसती, जूझती, परिवार की सेवा में जुटी बहू को अपनी योग्यता, प्रतिभा, पढ़ाई-लिखाई पर शक होने लगता है। सब उसे बेमानी और निरर्थक लगने लगता है। अलमारी में धूल खाती डिग्रियां उसे मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। यदि वक्त रहते परिवारों द्वारा इन प्रतिभाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है, आगे बढऩे में हौसला अफजाई की जाती है तो निश्चित रूप से वे अपनी योग्यता का सही सदुपयोग करती है। इससे न केवल परिवार वालों को अतिरिक्त आय मिलती है वरन् बहू को भी आत्मसंतुष्टि मिलती है और दुगुने उत्साह के साथ वह काम करती है। आत्मविश्वास से भरपूर, उसके व्यक्तित्व, विकास, अस्तित्व को बनाए रखने में योगदान देकर देखिये आपका घर आंगन खुशबू से भर जाएगा। प्रतिभा वास्तव में पुरस्कार मांगती है। प्रोत्साहन रूपी जल, स्नेह, रूपी खाद, सुरक्षा रूपी भूमि, प्रतिभा को दिया जाये तो वह अंकुरित हो पल्लवित होगा और अपनी आभायुक्त सुगंध से वातावरण को खुशबूनुमा बना देगा।
स्वयं मैंने ऐसी असंख्य लड़कियां देखी हैं जो बहुमुखी, प्रतिभा सर्वगुण सम्पन्न हेाती हैं, प्रतिभा को ताक पर रख उनकी योग्यता प्रतिभा को नजरअंदाज कर केवल गृहिणी का फर्ज निभाती हैं शादी के पश्चात। आखिर ऐसा क्यों होता है कि विवाह पश्चात सारी प्रतिभा किसी अंधेरी काल-कोठरी में कैद होकर दम तोड़ देती है। बहू और पत्नी बन कर उसे वर्तमान से समझौता कर अपना संपूर्ण व्यक्तित्व, अस्तित्व होम क्यों कर देना पड़ता है। वैसे अपनी प्रतिभा को गुमनामी के अंधेरे में ढकेलने का सबसे बड़ा कारण अधिकतर नारी स्वयं होती है। शादी के बाद पति के साथ सांसारिक सुख भोगने एकाकार एवं समर्पण की भावना से स्वयं नारी अपनी प्रतिभा को ताक पर रख देती है, बच्चे मिल जाने पर संतुष्ट हो जाती है, कई लड़कियां तो इसी मानसिकता से पढ़ाई कती हैं ताकि अच्छा घर-परिवार मिले। अपनी शिक्षा को स्वयं बिसरा कर घर आंगन, परिवार तक सीमित हो जाती हैं।