शिव का एक रूप नटराज का है। नट से तात्पर्य कला, नर्तक, नृत्य से और राज का अधिपति अथवा स्वामी समझा जाना चाहिए।
शिव सृष्टि के आदि कारण हैं। सर्जना होने के पश्चात भी सृष्टि गतिहीन थी। सृष्टि की सर्वोच्च कृति मनुष्य भी निस्पंद था।
गतिशीलता के लिए शिव ने नृत्य के द्वारा ज्ञान दिया
नृत्य क्यों
नृत्य में गति होती है, आघात होता है, भाव – भंगिमाएं, वाद्य यंत्रा आदि होता है जिससे नृत्य अपने पूर्णता को प्राप्त करता है।
नृत्य में पांच महान क्रियाएं समाहित हैं – सृष्टि, स्थिति, प्रलय, तिरोभाव ( अदृश्य) और अनुग्रह।
शिव के इस स्वरूप से सृष्टि का तारतम्य समझते हैं।
गति
नृत्य में गति होती है। जब तक सृष्टि गतिमान नहीं होगी तबतक उसका कोई औचित्य भी नहीं है।
डमरू
ध्वनि का स्रोत है। ध्वनि से ही शब्द, अर्थ, भाषा, वाक्य आदि का सृजन होता है। व्याकरण से अपने पूर्णत्व को प्राप्त होते हैं। महर्षि पाणिनी ने ध्वनि के माध्यम से माहेश्वर सूत्रों को आत्मसात किया। उन सूत्रों की उनकी व्याख्या से ही भाषा अपने उच्च स्तर को प्राप्त है।
ध्वनि से ही चारों वाणी – परा, पश्यंती, मध्यमा और बैखरी निःसृत हैं।
चारों हाथ
शिव के एक हाथ में डमरू है जिसकी चर्चा की जा चुकी है। दूसरे हाथ में अग्नि है जो सारी मलिनता को, कलुषता को जला देती है साथ ही क्षुत्क्षामकुंठा के लिए अनिवार्य भी है।
तीसरा हाथ शिव के पैरों की ओर जो गति मुद्रा में है, संकेत करता है जिसका अभिप्राय है कि शिव शरणागत होने से ही मनुष्य का उद्धार है। शिवशरणागत के लिए भगवान शिव अपने चौथे हाथ से अभय प्रदान करते हैं।
प्रभामण्डल
शिव का प्रभामण्डल प्रकृति का प्रतीक है। इसका आशय है कि मनुष्य को प्रकृति के साथ रहना चाहिए, इसी में उसकी भलाई है।
वृत्त
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, सृष्टि को व्याख्यायित करता है जिसका रूप गोलाकार है और जो प्रगति का सूचक है।
नाग
सृष्टि सुन्दर है तो कुरूप भी है, अमृततुल्य है तो विषमयी भी है। हम किसका चयन करते हैं यह हमारे ऊपर निर्भर है।