1998 के मार्च महीने में मेरी माताजी चल बसी थीं। उनको स्वस्थ करने के मेरे और मेरे भाई साहब के सारे प्रयास विफल हो गए थे। ऐन मौके पर तो मैंने दृढ़ता से सब कुछ संभाल लिया, बाद में गंभीर डिप्रेशन से घिर गई। किसी तरह भारी मन लिए भाई साहब को आफिस भेजती थी। मेरे समय का एक बहुत बड़ा हिस्सा माताजी को याद करने, चुपचाप बैठे या लेटे रहने में बीतता था। इसी तरह दो साल बीत गए।
मेरी माताजी के चल बसने के बाद एक तो विषाद के कारण और दूसरा भगवान से नाराजगी के कारण मैंने माताजी के सारे पूजा के सामानों को एक पेटी में बंद कर दिया। पूजा-पाठ बंद कर दिया। समय-समय पर जाला-वाला भी साफ नहीं कर पाती थी। दो साल में घर की व्यवस्था बिल्कुल डगमगा गई थी। भाई साहब बीच बीच में नाराज होते थे, मगर मेरी मानसिक स्थिति को देखते हुए दबाव भी नहीं बना पाते है।
सन् 2000 के सितंबर माह में एक दिन मैं सोफे पर लेटी हुई थी। जब उठी तो पैर के नीचे कुछ गीला-गीला सा लगा। मैंने बत्ती जलाकर देखा तो पाया कि फर्श पर खून की कुछ बूंदे गिरी हुई हैं। मैंने फिर ध्यान से देखा। खून, सरसों का तेल व दूध इन तीनों को मिलाकर जिस तरह के मिश्रण की हम कल्पना कर सकते है, वैसा ही मिश्रण था वह। मैंने सूंघ कर देखा तो बड़ी विचित्र सी गंध थी। घर में कोई भी जानवर नहीं था और तैलीय खून किस जानवर का है यह भी पता नहीं लगा पा रही थी। मुझे एक बार आभास हुआ कि कहीं कोई बला ने तो घर में प्रवेश नहीं कर लिया। फिर भी मैंने बात को अपने आप से टाल दिया। भाई साहब जब शाम को लौटे तो उनसे भी नहीं बतलाया, चुप रही।
कुछ समय बाद फिर एक बार इस घटना की पुनरावृत्ति हुई। वैसी ही खून दूध के मिश्रण सी लगने वाली बूंदे गिरी हुई थीं। अब मुझे पक्का समझ में आ गया कि यह किसी बला का कारनामा है। मैंने फर्श साफ किया और नहा लिया। मैं अज्ञात बला से प्रार्थना की कि वह मुझे अपना पूरा कष्ट दे दे, लेकिन अब कभी घर के अंदर न आए। फिर बहुत दिन तक बला नहीं आई। उस दिन की दहशत खौफ से बचने के लिए मैंने भाई साहब को कुछ नहीं बतलाया।
अब दीपावली को आने में मात्र दस-बारह दिन बाकी थे। मैं रसोई में खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। कुकर में पानी डालकर दाल-चावल के बर्तन उतारकर ढक्कन की ओर बढ़ी। देख के अवाक रह गई। ढक्कन पर वही बूंदे गिरी हुई थीं। मैंने ढक्कन साफ कर कुकर तो चढ़ा दिया, फिर फटाफट तैयार होकर बाजार गई। हनुमान जी का एक फोटो, फूल-माला, प्रसाद, सब कुछ पूरी पूजन सामग्री खरीद लाई और एक टेबल पर हनुमान जी को आसीन कर उनकी पूजा की। भाई साहब लौटे तो उनको पूरी कहानी कह सुनाई। उन्होंने कहा कि खून का सैम्पल रूई मे ले लेना चाहिए था। यह भी कहा कि घर की स्थिति ही कुछ ऐसी बन गई कि अब भूत-प्रेत पिशाच अड्डा जमाने की सोच रहे हैं। थोड़ा समय निकालकर पूजा-पाठ मे मन लगाओ।
बाद वाले दिन मैंने माताजी की सभी पूजन-सामग्री निकाली, स्थल को भी साफ किया। भगवान को विराजकर पूजा की। इस घटना के बाद और चार साल हम धनबाद में इस मकान में रहे, मगर उस तरह की घटना की चौथी बार पुनरावृत्ति नहीं हुई।
इसलिए एक बात आपसे बताना चाहती हूं, आपके यहां भी कभी कोई गम आ सकता है, अप्रिय घटना घट सकती है, कोई गंभीर रूप से बीमार हो सकता है। अगर बहुत दिनों तक घर में क्रन्दन मचा रहे, शोक-दुख मचा रहे दीप बत्ती बंद हो गई हो तो बलाएं, आपके घर को अपना अड्डा बना सकती है, आपको नुकसान पहुंचा सकती है। आपके घर में रौनक बनी रहे, सुख-दुख के बीच ही सही सुबह-शाम भगवान की पूजा-आरती होनी चाहिए अगर परिस्थिति इस लायक नहीं हो तो भी सुबह-शाम हनुमान जी को दो अगरबत्ती दिखाकर हाथ जोडऩा कभी न भूलें।
उपरोक्त घटना सत्य घटना है, मुझे भी भूत, प्रेत, पिशाचों पर विश्वास नहीं था। मगर अब मुझे पता चल गया कि ये पैशाचिक हवाएं खण्डहरों में, वीरानों में या जहां पूजा पाठ नहीं होता है, वहां रहती है, तथा वहीं अपना अड्डा बनाने की कोशिश करती हैं।