बौद्ध ग्रंथों में रावण

विजयादशमी का पर्व अहंकारीए क्रोधी और क्रूर राक्षस.राज रावण के वध के साथ ही भगवान राम की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार रावण ऋषि विश्रवा एवं कैकसी का अहंकारी तथा क्रूर पुत्र थाए लेकिन कई अन्य ग्रंथों के अनुसार रावण एक विशद राजनीतिज्ञए विद्वानए भगवान शिव का अनन्य भक्त और संत महात्माओं का आदर करने वाला पुरुष था। रावण विद्वानए कुशलए राजनीतिज्ञ तथा भगवान शिव का अनन्य भक्त थाए यह पुष्टि तो हमारे भी कई ग्रंथ करते हैं। कहा जाता है कि भगवान राम जब समुद्र पार कर रहे थे तब रामेश्वर में उन्होंने भगवान शिव की स्थापना करके पूजा.अर्चना की थी। यहां पुरोहित का दायित्व स्वयं रावण ने निभाया था। इसके अलावा रावण के अंतिम समय में राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास राजनीति को शिक्षा लेने के लिये भेजा था। ब्रह्माजी की कृपा से ही रावण को नर और वानर के अलावा किसी और के हाथों न मरने का भी वरदान प्राप्त था।


रावण का उल्लेख कई अन्य धर्म ग्रंथों में भी मिलता है। ऐसा ही एक उल्लेख बौद्ध धर्म ग्रंथ लंकावतार सूत्र में भी है जिसमें भगवान बुद्ध और राक्षसराज रावण के वार्तालाप का प्रसंग है। संस्कृत भाषा में लिखा गया लंकावतार सूत्र बौद्ध धर्म की महायान शाखा का ग्रंथ हैए जिसकी रचना संभवतरू 443 ईस्वी में हुई थी। इस ग्रंथ में भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित कई कथाएं हैं। इसी ग्रंथ के एक अध्याय में वर्णित है कि जब तथागत बुद्ध लंका के नजदीक स्थित मलय पर्वत पर अपने शिष्यों को संबोधित कर रहे थे तब लंका नगरी पर राजा रावण का शासन था। रावण दिव्य शक्तियों का ज्ञाता था। उस अपनी नगरी के निकट अलौकिक वाणी सुनाई दी तो उसने ध्यान लगाकर इस वाणी के स्रोत का पता लगाया। ध्यान में ही उसे महात्मा बुद्ध के दर्शन हुए।


रावण महात्मा बुद्ध की अलौकिक वाणी और तेज से अति प्रभावित हुआ और स्वयं उनके दर्शनों को चल पड़ा। अपने दिव्य रथ ;संभवतरू पुष्पक विमानद्ध पर सवार कर उसने बुद्ध की परिक्रमायें की। रावण ने बुद्ध से सत्य का मार्ग बताने का अनुरोध करते हुये लंका चलने का भी आग्रह किया। रावण के भक्तिभाव से प्रसन्न होकर बुद्ध ने उसे बताया कि लंका में पहले भी कई बुद्ध अवतार प्रकट हो चुके हैंए भविष्य में भी यहां कई बुद्ध अवतरित होंगे। मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं और तुम्हारे साथ लंका चलूंगा। भगवान बुद्ध रावण के साथ लंका नगरी पहुंचे जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। रावण ने महात्मा बुद्ध के बैठने के लिए आसन प्रस्तुत किया। बुद्ध के उस आसन पर बैठते ही एक चमत्कारिक घटना घटित हुई। लंका के चारों ओर पर्वत ही पर्वत दिखाई देने लगे तथा उन पर्वतों पर अनेक रावणए बुद्ध और रावण के सभासद तथा प्रजाजन दिखायी देने लगे। इसके बाद बुद्ध ने प्रवचन देना आरंभ किया और अचानक ही अंतध्र्यान हो गये। इस ग्रंथ के अनुसार यह दुर्लभ घटना देखकर रावण का आत्मज्ञान जागृत हो गया और रावण ने पूर्ण योगी का पद प्राप्त कर लिया। अब उसे यथार्थ के दर्शन होने लगे। इसके बाद रावण ने आकाश के देवताओं से प्रार्थना की कि मैं एक बार पुनरू बुद्ध के दर्शन करना चाहता हूं। तब तथागत ने रावण को अनुपत्ति का धर्मक्षाति उच्च अध्यात्मिक स्थिति में पहुंचाने के लिये मलय पर्वत के शिखर से पुनरू दर्शन दिये। इन दर्शनों से रावण को असीम पुण्य की प्राप्ति हुई और वह भगवान बुद्ध से आशीर्वाद प्राप्त करके मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बन गया। राक्षसराज रावण के बारे में और भी कई किवदंतिया प्रचलित है लेकिन यह तथ्य सर्वमान्य है कि रावण ज्ञानीए बलशाली और पराक्रमी होने के साथ.साथ निष्ठुरए क्रूर एवं अहंकारी भी था और उसके पापों से धरती को मुक्त कराने के लिये ही भगवान को अवतार लेना पड़ा।