धर्म,कला, संस्कृति एवं परंपरा का सुंदर संम्मिश्रण हैं रामलीलाएं

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नवरात्र के साथ ही उत्तरी भारत में रामलीलाओं मंचन शुरु हो गया है है ।  विजय दशमी के अवसर पर कहीं पहले तो कहीं बाद में ‘रामलीलाएं उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से श्रीराम के चरित्र पर आधारित खेला जाने वाला लोकनाट्य है । कितने ही रूपों में  रामलीलाओं का देश के विविध प्रान्तों में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अलग – अलग शैलियों में मंचन किया जाता है।


प्राचीन है रामलीलाओं का इतिहास

समुद्रतटीय क्षेत्रों से लेकर हिमालय तक खेली जाने वाली रामलीलाओं का आदि प्रवर्तक कौन है, यह विवादास्पद प्रश्न है। भावुक भक्तों की दृष्टि में यह अनादि है पर एक किंवदंती के अनुसार त्रेता युग में श्रीरामचंद्र के वन गमन के बाद अयोध्यावासियों ने 14 वर्ष की वियोग अवधि राम की बाललीलाओं का मंचन करते बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। एक अन्य जनश्रुति से पता चलता है कि इसके आदि प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर मुहल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं।


मिथक ही मिथक :

एक मिथक के अनुसार स्वयं भगवान श्रीरामचंद्र  ने मेघा भगत को स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया ताकि भक्तजनों को भगवान् के साक्षात दर्शन हो सकें। इससे प्रेरणा पाकर उन्होंने रामलीला संपन्न कराई। और भरत मिलाप के मंचन अवसर पर आराध्य देव राम ने अपनी झलक देकर इनकी कामना पूर्ण की। कुछ लोगों के मतानुसार रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गोस्वामी तुलसीदास हैं, इन्होंने अवधी में इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या और काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी।


रामलीला भारत से बाहर भी :

पूर्वी एशिया के ऐतिहासिक प्रमाणों से  पता चलता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने नृत्य और गीत के साथ रामायण का प्रदर्शन किया था। थाई नरेश बोरमत्रयी लोकनाथ की राजभवन नियमावली में भी रामलीला मंचन का उल्लेख है ।  कहते हैं  कि म्यांमार (ब्रह्मा ) के राजा ने 1767 ई. में स्याम (थाईलैड) पर आक्रमण किया था। युद्ध में स्याम पराजित हो गया। विजेता सम्राट रामलीला कलाकारों को भी बर्मा ले गया। बाद में बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने लगा। दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रूप हैं। उन्हें प्रधानतः दो मुखौटा रामलीला व छाया रामलीला वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-


मुखौटा  रामलीलाएं

मुखौटा रामलीला के अंतर्गत इंडोनेशिया और मलेशिया के लाखोन, कंपूचिया के ल्खोनखोल तथा बर्मा के श्यामप्वे का प्रमुख स्थान है। इंडोनेशिया और मलेशिया में लाखोन के माध्यम से रामायण के अनेक प्रसंगों को मंचित किया जाता है। कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ इंडोनेशयाई मूल का शब्द है जिसका अर्थ नाटक है। मुखौटा नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को थाईलैंड में ल्खौन कहा जाता है। इसमें संवाद के अतिरिक्त नृत्य, गीत एवं हाव-भाव प्रदर्शन की प्रधानता होती है। ल्खौन का नृत्य बहुत कठिन और समयसाध्य है। इसमें गीत और संवाद का प्रसारण पर्दे के पीछे से होता है। केवल विदूषक अपने संवाद स्वयं बोलता है। मुखौटा केवल दानव और बंदर-भालू की भूमिका निभाने वाले अभिनेता ही लगाते हैं। देवता और मानव पात्र मुखौटे धारण नहीं करते।


छाया लीला :

विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली हैं । इसमें जावा तथा मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग का विशिष्ट स्थान है।  नंग के दो रूप है-नंगयाई व नंगतुलुंगनंग का अर्थ चर्म या चमड़ा और याई का अर्थ बड़ा है। नंगयाई का तात्पर्य चमड़े की बड़ी पुतलियों से है। इसका आकार एक से दो मीटर लंबा होता है। इसमें दो डंडे लगे होते हैं। नट दोनों हाथों से डंडे को पकड़कर पुतलियों के ऊपर उठाकर नचाता है। इसका प्रचलन अब लगभग समाप्त हो गया है।


परंपरा व शैलियाँ :

राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी ‘‘हरि अनंत हरि कथा अनंता ’’ की तर्ज पर विविध शैलियों वाली है, रामकथा तो प्रसिद्ध कथा है, किंतु जिस प्रकार वह भारतभर की विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्त हुई है तो भाषा, स्थान और उस समाज की कुछ निजी विशिष्टताएँ भी उसमें अनायास ही समाहित हो गई हैं ।

कुमाऊँनी रामलीला :

भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रूप में प्रचलित इस रामलीला का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों से मंचन किया जाता है। उत्तराखण्ड के खासकर कुमायूं अंचल में रामलीला मुख्यतः गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व मे यहां की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही।


संरक्षण जरूरी  :

मनोरंजन के अधुनिक साधनों के आने से रामलीलाएं अब संकट का सामना कर रही हैं । दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दें तो अब परंपरागत रामलीलाएं दम तोड़ने के कगार पर हैं और इस संकट के चलते रामलीला में काम करने वाले कलाकार तथा दूसरे कारीगर एवं कामगार भी रोजी-रोटी के संकट का सामना कर रहे हैं।  यदि रामलीला के अस्तित्व पर आए इस संकट को समय रहते दूर नहीं किया गया तो दूसरी नौटंकी स्वांग और वाचिक परंपरा की कलाओं की तरह रामलीला भी लुप्त हों जाएगी । यदि इसे बचाना है तो इसे संरक्षण, प्रोत्साहन  प्रश्रय देना होगा