योग-साधना में सफलता के लिए अनिवार्य है उचित परिवेश

योग एक साधना है, इसमें संदेह नहीं। योग के आठ अंग हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। चिकित्सा-पद्धति के रूप में अथवा रूपांतरण के लिए योग के इन सभी आठों अंगों का महत्त्व है अतः आवश्यकतानुसार सभी अंगों का अभ्यास अनिवार्य है।


योग-साधना में सफलता के लिए हमें उपयुक्त समय, स्थान तथा परिवेश का चुनाव करना चाहिए। हमारे ऋषि-मुनि पहाड़ों की कंदराओं अथवा गुफाओं में तपस्या या साधना करते थे। इसका एक लाभ तो यह था कि पहाड़ों पर ठंड होने से साधना करना आसान होता था तथा साथ ही गुफा आदि बंद स्थान पर अधिक ठंड नहीं लगती। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुफा आदि अपेक्षाकृत बंद स्थानों पर वात-प्रवाह तीव्र नहीं होता जिससे साधना के दौरान एकत्रा ऊष्मा तथा ऊर्जा आस-पास बनी रहती है तथा व्यवधान भी उत्पन्न नहीं होता।
साधना के लिए हमें चाहिए कि हम एकांत स्थान का चुनाव करें जहाँ हम घंटों भी बैठें तो कोई हमें परेशान न कर सके। यह स्थान शोर-शराबे से भी दूर होना चाहिए। इस स्थान पर टेलिफोन, कालबेल अथवा कम्प्यूटर आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरण नहीं होने चाहिएँ। यदि हैं तो इन्हें बंद कर दें। साधना-स्थल ठंडा होना चाहिए। हवा का तेज़ प्रवाह बिल्कुल नहीं होना चाहिए लेकिन इस स्थान पर घुटन बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। । तेज़ प्रकाश भी अपेक्षित नहीं है। कम रोशनी या अंधेरा अच्छा रहता है। यदि साधना सामूहिक रूप से की जा रही हो तो व्यक्तियों की संख्या के अनुसार स्थान भी पर्याप्त होना चाहिए।


शांत स्थान की तरह साधना के लिए शांत समय का भी चुनाव करना चाहिए। वैसे तो आज के व्यस्त जीवन में सुविधानुसार जब चाहे अभ्यास कर लें लेकिन साधना के लिए प्रातः काल का समय उत्तम है। वैसे भी प्रातःकाल साधना करने वालों को बड़ी सुविधा रहती है।
जल्दी उठकर नित्यकर्म से निवृत होकर यदि व्यायाम आदि करते हैं तो व्यायाम अथवा योगासन आदि के बाद साधना करें। साधना के बाद व्यायामादि बिल्कुल न करें। ध्यान अथवा साधना के बाद थोड़े अन्तराल के बाद ही नाश्ता अथवा भोजन करें, तुरन्त बाद नहीं। भोजन के फौरन बाद भी साधना वर्जित है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यायाम, ध्यान-साधना आदि से पूर्व तथा एकदम बाद में भोजनादि न करें।


साधना के लिए ज़मीन या फर्श आदर्श स्थल हैं लेकिन आवश्यकतानुसार पलंग, कुर्सी, गद्दे अथवा कुशन आदि का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ अभ्यास ज़मीन पर या पलंग पर लेट कर तथा कुछ कुर्सी आदि पर सुविधानुसार किए जा सकते हैं। साधना कोई बाहरी बंधन नहीं अपितु मन का अनुशासन है लेकिन साधना स्थल साफ-सुथरा तथा निर्मल अवश्य होना चाहिए। वहाँ किसी प्रकार की गंदगी, कूड़ा-करकट अथवा बेकार की चीज़ें नहीं होनी चाहिएँ। दीवारें भी एकदम साफ-सुथरी हों तथा चित्रा इत्यादि हों तो अवसरानुकूल। अमूर्त कलाकृतियाँ बिल्कुल नहीं होनी चाहिएँ। प्रकृति के सुरम्य चित्रा अथवा फूलों के पौधे इत्यादि हों तो बहुत अच्छा है।


आस-पास किसी प्रकार की दुर्गंध अथवा तेज़ कृत्रिम गंध नहीं होनी चाहिए। प्राकृतिक गंध जो मनोनुकूल हो, साधना में सहायक होती है। ताज़े फूलों अथवा वनस्पतियों की गंध अच्छी होती है। धूप, अगरबत्ती तथा कपूर आदि का प्रयोग किया जा सकता है। बंद स्थान या कमरा हो तो धूप जलाने से परेशानी हो सकती है। कपूर का प्रयोग करना चाहिए लेकिन जलाकर नहीं अपितु वाष्पित करके। इसके लिए मच्छर भगाने वाली मैट मशीन का प्रयोग करें।
साधना में गंध का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि साधना के समय आप नियमित रूप से किसी गंध का प्रयोग करते हैं तो किसी समय साधना का मन न हो तो भी उस गंध को सूंघने के बाद आप साधना के लिए स्वतः एकदम तैयार हो जाएँगे। गंध आपको साधना के लिए प्रेरित करेगी।


साधना के समय शरीर स्वच्छ होना चाहिये। पसीने की बदबू आपके ध्यान को एकाग्र होने मे बाधा उत्पन्न करेगी। अधिक गर्मी, पसीना, चिपचिपाहट, तेज़ लू, हवा की सरसराहट तथा तेज़ सर्दी भी आपका ध्यान अपनी ओर खींचेंगे। इसलिए अनुकूल स्थान का चयन आवश्यक होने के साथ-साथ तेज़ सर्दी से बचाव के लिए पर्याप्त लेकिन अनुकूल वस्त्रों का चुनाव भी अनिवार्य है। साधना के समय मल-मूत्रा आदि का दबाव भी नहीं होना चाहिए। एक बार आपको ध्यान-साधना की आदत पड़ जाए तो कम सुविधाजनक स्थितियों में भी आप बख़ूबी अभ्यास कर लेंगे।


साधना नियमित रूप से की जानी चाहिए लेकिन किसी कारण से व्यवधान उत्पन्न होने पर यदि साधना में व्यवधान या रुकावट आ जाए तो इसका अर्थ यह नहीं कि आप साधना दोबारा प्रारंभ ही नहीं कर सकते। जितनी बार व्यवधान उत्पन्न हो हर अगली बार ज़्यादा गंभीरता से साधना शुरू कर दें। प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करें तो उसका प्रभाव अपेक्षाकृत ज़्यादा अच्छा होता है।


यदि आप अभ्यास के लिए एक स्थान विशेष का चुनाव करने के बाद प्रतिदिन उसी स्थान पर अभ्यास करते हैं तो बहुत अच्छी बात है लेकिन उससे भी अच्छी बात यह है कि आप करें अवश्य, कहीं भी करें, किसी समय भी करें। जब आपको आनंद आएगा तो आप नियमित रूप से एक ही स्थान पर, एक नियत समय पर अभ्यास करना शुरू कर देंगे।
साधना के समय पहने हुए वस्त्रा आरामदायक हों जो न तो ज़्यादा ढीले-ढाले हों और न ज़्यादा टाइट ही हों। कमर में बैल्ट, टाइट अंतःवस्त्रा, अंगूठी, घड़ी तथा अन्य आभूषणादि न पहने हों तो ठीक है। शरीर पर कोई वस्त्राभूषणादि यदि किसी भी तरह आपका ध्यान आकर्षित करते हैं अथवा परेशान करते हैं तो उनको धारण करने से ध्यान में बाधा उत्पन्न होगी ही। सरसराहट पैदा करने वाले, खुजली पैदा करने वाले, सिंथेटिक अथवा रेशमी या अन्य प्रकार के वस्त्रों की अपेक्षा सूती वस्त्रा साधना के लिए उत्तम हैं।


यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यदि उपयुक्त स्थितियाँ न हों तो क्या साधना संभव ही नहीं है? साधना के लिए उपरोक्त उपयुक्त स्थितियाँ अनिवार्य हैं विशेषकर साधना शुरू करने के प्रारंभ के दिनों में।


इसके लिए ज़रूरी है कि जब हम सीखना शुरू करें तो सही स्थितियों में ही प्रारंभ करें। इसके लिए कोलाहल से दूर शांत स्थानों पर चले जाएँ। पार्कों में या शहर से बाहर भी जा सकते हैं, आश्रमों में या साधनालयों में। एक बार ध्यान लगाने का अभ्यास प्रारंभ हो गया तो अपेक्षाकृत कम अनुकूल परिस्थितियों में भी अभ्यास करना संभव हो सकेगा।