भारत में कितने ही साधु हैं जो लगातार कई कई माह खड़े ही रहते हैं एक ही स्थल पर। पैर सूज जाते हैं मगर वे खड़े ही रहते हैं। भोजन-भजन-शयन सभी कुछ खड़े ही खड़े। कुछ जल में तपस्या करते हैं, लगातार जल में ही रहते हैं तो कुछ अग्नि कुंड में वास करते हैं। शायद इसी को हठयोग भी कहते हैं। हठ योगी को साधना में सफलता मिलती अवश्य है वरना इतना कष्ट उठाकर साधना क्यों करते?
ऐसे ही एक हठयोगी के दृढ़ निश्चय का फल मैंने भी देखा है। शायद शूद्र परिवार में जन्म लिया था उस संत ने। परिस्थितियों ने उसे संन्यास धारण करने पर मजबूर कर दिया था लेकिन उसके हठयोग ने समाज को एक नई राह दिखा दी। उसकी तपस्या से पूरे समाज को लाभ प्राप्त हुआ।
1977 या 78 की घटना है। भयंकर सूखा पड़ रहा था, जिला हरदोई में। यूं तो पूरे प्रदेश में हाहाकार मचा था लेकिन उस ऊसर भूमि वाले क्षेत्रा में विशेष कष्ट था। पूरे समाज में लोग तरह-तरह के उपाय कर रहे थे-कहीं यज्ञ, कभी रामायण, कहीं भोजन बांटा जा रहा था। मस्जिदों में विशेष दुआयें की जा रही थी।
इसी दौरान वातामऊ रेलवे स्टेशन के पास, पीपल वृक्ष के नीचे, वही संत आ कर टिक गया। यूं तो वहां नित्य ही कितने ही साधु-संत आया करते हैं, नीमसार तीर्थ के लिए ट्रेन पकड़ते हैं लेकिन उस युवा संत ने, उस पीपल पर एक रस्सी बांधकर झूला सा डाल लिया और पास पड़े पत्थर पर लिख दिया-’जब तक बरसात नहीं होगी, तब तक यहीं खड़ा रहूंगा और कुछ बोलूंगा भी नहीं, मौन ही रहूंगा।’
कुछ लोगों ने इसे नाटक बताया, कुछ ने उपेक्षा की दृष्टि से देखा, कुछ गांजा-चरस-भांग-चिलम प्रेमी वहां एकत्रा होने लगे। लगभग चार दिन बाद समाज में उत्सुकता बढ़ने लगी। इधर बाबा का शरीर शिथिल होने लगा, पैर सूजने प्रारंभ हो गये। भक्तगण बढ़ने लगे। ढोलक-मंजीरे बजने लगे। भजन कीर्तन प्रारंभ हुआ तो चढ़ावा भी आने लगा। नोट चढ़ने लगे।
खड़े हुए साधनारत संत ने, लिखकर आदेश दिया कि इस धन से, पीपल के नीचे छोटा सा मंदिर बना दिया जाय। मंदिर निर्माण प्रारंभ हो गया।
बाबा को खड़े-खड़े दस दिन गुजर गये। मंदिर की दीवार बन कर तैयार हो गई। एकत्रित लोगों की संख्या बढ़ने लगी। बाबा की दशा दयनीय होने लगी-बाबा ने भोजन का भी त्याग कर दिया था।
उधर पुलिस प्रशासन, रेलवे प्रशासन बाबा को वहां से हटाने पर आमादा, मंदिर निर्माण रोकने को प्रयत्नशील लेकिन एकत्र भीड़ के आगे संभव न हो सका।
संत तमाम धूप अपने शरीर पर सहन करते रहे। भीषण गर्मी का प्रकोप कम होने को तैयार नहीं। लगता था इंद्रदेव रास्ता भूल कर कहीं और चले गये। दूर-दूर तक कहीं भी बारिश के आसार नहीं। पंद्रह दिन हो गये, अब संत ने पानी का भी त्याग कर दिया। मंदिर निर्माण का कार्य भी बंद हो गया। बाबा की हालत बदतर होने लगी।
अब संत ने एक भक्त को पास बुलाकर, लिखकर दिया-’जल्दी से मंदिर की छत पर लिंटर डाल लो, आज शाम को भीषण बरसात होगी।‘
हालांकि दूर-दूर तक कहीं भी पूरे प्रदेश में बरसात का कोई लक्षण नहीं था लेकिन संत के आदेश का पालन किया गया। तमाम स्वयंसेवक जुट गये और मंदिर की छत पर लिंटर डाला गया। पीपल के नीचे शिवमूर्ति तो स्थापित थी ही। प्रशासन देखता रहा, मंदिर पर लिंटर पड़ने लगा।
शाम होने लगी, बादलों का दूर-दूर तक कोई पता नहीं। बाबा अपने निश्चय पर दृढ़-’या तो आज बरसात होगी या मैं शरीर त्याग दूंगा।‘ बाबा का शरीर शिथिल पड़ने लगा, आंखें बंद होने लगी। भक्तों की बेचैनी बढ़ने लगी। सैकड़ों की भीड़ वहां एकत्रा थी। प्रभु शायद अपने भक्त की परीक्षा ले रहे थे।
लिंटर का काम समाप्त होने ही वाला था। मात्रा कुछ तसले बजरी डालनी बाकी थी। यकायक आकाश में घने बादल छाने लगे। बिजली चमकने लगी। लोगों का विस्मय बढ़ा, संत के प्रति श्रद्धा-सम्मान बढ़ा। कीर्तन की ध्वनि तेज होती गई। कस्बे के लोग बढ़ने लगे। बाबा की जय बोली जाने लगी। बाबा अर्धचेतन अवस्था में थे।
अचानक घनघोर बारिश होने लगी। लिंटर डालने वाले सामान उठाकर भागे। कीर्तन वाले वहीं डटे रहे। लगभग दो घंटे जमकर बरसात हुई। बाबा की जय जयकर हुई। साधना सफल हुई। बाबा कुछ ही दिन बाद स्वस्थ होकर कहीं और चले गये।