अष्टसिद्धि व परम पद प्रदात्री देवी सिद्धिदात्री

0521_devi_siddhidatri

आठ दिनों तक भगवती के विभिन्न अष्ट स्वरूपों का पूजन करने के बाद नवरात्र के नौवें और अंतिम दिन नवदुर्गा के नवम स्वरूप माता सिद्धिदात्री की पूजा करने का विधान है। इनकी उपासना से प्राप्त होने वाली कृपा के बाद मनुष्य की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं, तथा उसमें अन्य किसी प्रकार की कोई भी इच्छा शेष नही रह जाती, जिसे वह पूर्ण करना चाहे। उसे असीम आनंद की अनुभूति होती है। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहा से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ भगवती के दिव्य लोक में विचरण करता हुआ उनके कृपारस पीयूष का निरन्तर पान करता हुआ, विषय भोग शून्य हो जाता है। माता भगवती का परम सान्निध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसलिए इनकी पूजा- अर्चना नवरात्र के अंतिम दिन करने की परिपाटी है।

 

इस वर्ष 2023 में शारदीय नवरात्र का नवम व अंतिम दिवस 23 अक्टूबर दिन सोमवार को पड़ने के कारण इस दिन माता सिद्धिदात्री की पूजा- उपासना की जाएगी। इनकी पूजा का उत्तम काल नवरात्र नवमी का प्रातः काल माना गया है। इनकी कृपा से ब्रह्मांड में सर्वश्रेष्ठ आठों सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती हैं। व्यक्ति अपने मन पर नियंत्रण पाता है। समस्त मोहमाया समाप्त हो जाती हैं। सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली होने के कारण माता के अंतिम रूप सिद्धिदात्री की पूजा करने का विशेष महत्व है। इनका स्वरुप मनोहारी, मंद मुस्कान युक्त अत्यंत सुखदायी है। यह शरीर में लाल रंग की साड़ी और सिर पर बड़ा सा मुकुट धारण किए हुए कमल पुष्प के आसन पर विराजमान हैं। इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमेंसे दाहिनी ओर की ऊपर वाली भुजा में गदा तथा नीचे वाली भुजा में चक्र हैं। बाईं ओर की ऊपर वाली भुजा में कमल पुष्प तथा नीचे वाली भुजा में शंख हैं।



पौराणिक मान्यतानुसार ब्रह्मांड की रचना होने पर भगवान शिव ने देवी सिद्धिदात्री की उपासना करके ही सभी सिद्धियों की प्राप्ति की थी। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व व वशित्व- नामक अष्ट सिद्धियाँ हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्री कृष्ण जन्म खण्ड में अष्ट सिद्धियों की संख्या अठारह बताई गई है- अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, परकायप्रवेशन, वासिद्धि, कल्पवृक्षत्व, सृष्टि, संहारकरणसामर्थ्य, अमरत्व, सर्वन्यायकत्व, भावना और सिद्धि। देवी भागवत पुराण के अनुसार इन अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के पश्चात ही भगवान शिव का रूप आधा पुरुष व आधा नारी का हो गया था। इस रूप में उनके दाहिनी ओर का आधा शरीर स्वयं का तथा बाईं ओर का आधा शरीर देवी का था। उनके इसी रूप को अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है।


मान्यतानुसार भगवती का नवम स्वरूप सिद्धिदात्री ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म -जन्मान्तर की साधना से पाया जा सकता है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे सिद्धिदात्री कहा है। इसमें शक्ति स्वयं शिव हो जाती है, पार्वती स्वयं शंकर हो जाती है और राधा स्वयं कृष्ण हो जाती है। आत्मा अर्थात जीवात्मा अपने परम स्थिति में परमात्मा हो जाती है। शक्ति, पार्वती, राधा व जीवात्मा एक है। शिव, शंकर, कृष्ण व परमात्मा एक है। भगवान अर्धनारीश्वर है। सब उनमें ही ओत-प्रोत है, सब कुछ वही है, अलग कोई नहीं।

उल्लेखनीय है कि जहां नवरात्र की अष्टम देवी महागौरी भौतिक जगत में प्रगति के लिए आशीर्वाद प्रदान और मनोकामना पूर्ण करती हैं, जिससे संतुष्ट होकर मनुष्य अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ता है। वहीं नवरात्र की नवम देवी सिद्धिदात्री जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्रदान करती हैं, जिससे मनुष्य सब कुछ पूर्णता के साथ कर सकता है। सिद्धि को सम्पूर्णता भी कहा जाता है। सिद्धि अर्थात विचार आने से पूर्व ही कार्य का सम्पन्न हो जाना। अर्थात विचारमात्र से ही बिना कोई कार्य किये इच्छा का पूर्ण हो जाना ही सिद्धि है। वचन का सत्य हो जाना, जो सबके कल्याण, सबकी भलाई के लिए हों। किसी भी कार्य को हाथ लगाने से सम्पूर्ण हो जाना ही सिद्धि है। सिद्धि जीवन के हर स्तर में सम्पूर्णता प्रदान करती है। इससे देवी सिद्धिदात्री की महत्ता सिद्ध होती है। आयुर्वेदीय मान्यतानुसार ब्रह्मा के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा के नौ विशिष्ट औषधियों में से एक सिद्धिदात्री भी है, जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।

शाक्त मान्यतानुसार भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्तोत्र व कवच का पाठ करने से निर्वाण चक्र जाग्रत हो जाता है। सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली माता हैं। मान्यता है कि विधि-विधान से नवरात्र के नौंवे दिन इस देवी सिद्धिदात्री की उपासना करने से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता। ब्रह्माण्ड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है। इसलिए जानकार मनुष्य माता सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरंतर प्रयत्न करते ही रहते हैं। उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो ही जाते हैं। इनकी कृपा से अनन्त दुःख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं, और अमृत पद की ओर ले जाते हैं। इनकी पूजा करने से ही शेष अन्य देवियों की उपासना भी स्वंय हो जाती है। यही कारण है कि शाक्तगण माता सिद्धिदात्री के चरणों में शरणागत होकर निरन्तर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करते हैं। इनकी उपासना से स्वर्गलोक निवासी गन्धर्व, यक्ष, इत्यादि आद्य उपदेवता गण और असुर, अमर देवगण तथा यज्ञों के विधान जानने वालों की भी सेवा स्वयं ही हो जाती है। माता सिद्धिदात्री बीज मंत्र है- ओम देवी सिद्धिदात्र्यै नमः। सिद्धिदात्री का मूल मंत्र है-
सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।


नवरात्र की नवमी तिथि को महानवमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन माता सिद्धि दात्री की पूजा के साथ ही कन्या पूजन होता है। कुछ स्थानों पर अष्टमी के दिन तो कुछ नवमी के दिन कन्या पूजन करते हैं। कन्या पूजन में दो से दस वर्ष की नौ कन्याओं की पूजा होती है, जो अभी तक यौवन की अवस्था तक नहीं पहुँची है। इन नौ कन्याओं को देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक माना जाता है। कन्याओं का सम्मान तथा स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाते हैं। पूजा के अंत में भोजन ग्रहण कराकर कन्याओं को उपहार के रूप में नए कपड़े प्रदान किए जाते हैं। नवरात्रि की नवमी को गुलाबी रंग के कपड़े पहनना चाहिए। गुलाबी रंग प्यार, स्नेह और एकता का प्रतीक है।