बचपन में ही महिला हितों एवं उनके उज्जवल भविष्य के लक्ष्य के साथ 2011में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘प्लान इंटरनेशनल’ प्रोजेक्ट के रूप में “क्योंकि मैं एक लड़की हूँ” अभियान शुरू किया गया था। बाद में अभियान का अंतरराष्ट्रीय विस्तार हेतु संयुक्त राष्ट्र ने 19 दिसंबर, 2011 को इस प्रस्ताव को पारित कर 11 अक्टूबर का दिन चुना अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में चुना इस प्रकार पहला अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया गया और उस समय इसकी थीम थी “बाल विवाह को समाप्त करना”।
समानता में युग में लड़की
समानता के इस युग में भी आज भी बहुत से देश ऐसे हैं जिनमें लड़के लड़की में भेदभाव किया जाता है । जबकि वैश्विक समृद्धि हेतु बालिकाओं का भी कदम से कदम मिलाकर चलना आवश्यक है । अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस इसी और उठाया गया एक सार्थक कदम है।
तकनीक भी बनी हत्यारिन :
देखें तो आज भी पूरी ही दुनिया बालिकाओं की हालत खराब है । गरीब अफ्रीकी व एशियाई व दक्षिणी एशियाई मुल्कों में तो लिंग भेद से बालिकाओं का हाल बेहाल है । एक सर्वे के मुताबिक अकेले भारत में 2022 में करीब 8 लाख कन्याओं की भ्रूण हत्या हुई । इनमें भी चिकित्सीय कारणों से ऐसा कदम बहुत कम उठाया गया । पूर्ण प्रतिबंध के बाद भी उन्हे केवल इस लिए मार डाला गया क्येंकि वें लड़कियां थी और तकनीक के जरिए उनके जन्म से पहले ही यह जान लिया गया था ।
डराते आंकड़े
अगर भविष्य में भी हाल रहा तो लिंगानुपात बिगड़ना तय है और जैसे जैसे लिंग दर में अंतर आएगा अनेक समस्याएं पैदा होंगी । भारत में ही लिंगानुपात असंतुलन के आंकड़ें भय पैदा करने वाले हैं । जनगणना आंक़डों के मुताबिक 1991 में देश में प्रति एक हजार बालकों पर 972 बालिकाएं थीं । जबकि 2001 की जनगणना में एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या 933 मात्र रही , । वहीं 2011 में 861 बालिकाएं प्रति एक हजार लड़़कों पर दर्ज की गईं थी और वर्तमान में यह आठ सौ से भी कम आंकी जा रही हैं । राजधानी दिल्ली समेत भारत के उत्तरी राज्य कहीं ज्यादा भयावह स्थिति में हैं । मगर केरल जैसे राज्य जहां शिक्षा की दर उच्च है वहां बलिकाओं का जन्म प्रतिशत और रोजगार व शिक्षा का प्रतिशत लड़कों सें ऊपर है ।
क्यों अवांछित है लड़कियां ? :
आखिर हम बच्चियां क्यों नहीं चाहते ? या उन्हे गर्भ में ही क्यों मार डालने पर उतारु हैं । आइए, एक नज़र उन परिस्थितियों पर डालें जिन की वजह से हर मां बाप बेटे को बेटियों पर वरीयता देते हैं । गरीबों में बेटी जन्म इसलिए ज्यादा डर पैदा करता है क्योंकि उसके शादी ब्याह बेहद महंगे हो गए हैं , पढ़े लिखे रोजगार में लगे वर व अच्छे घर नहीं मिलते हैं , मिलते भी हैं तो दहेज की भारी मांग जान निकालने की हद तक जा रही है । उत्तर व मध्य भारत में खासतौर पर दहेज , छेड़छाड़ की घटनाएं , बलात्कार , शिक्षा व पालन पोषण पर बढ़ता बेतहशा खर्च , बेटे बेटी का भेदभाव व समाज की दकियानूसी सोच मुख्य वजह है । दुखद यह भी है कि समाज दहेजरहित शादियों के लिए आगे नहीं आ रहा है और प्रेम विवाह व सामूहिक विवाह या कोर्ट मैरिज करना अपमान का द्योतक है आद भी समाज में ।
कथनी करनी में अंतर :
करने व कहने में दोहरापन है , लड़कियों की शादी के बाद भी सुरक्षा की गारंटी नहीं रह गई है , दहेज हत्याएं व प्रताड़नाओं की दर लगातार बढ़ रही है विवाह को दो आत्माओं का मिलन मानने वाले हिन्दू समाज में भी तलाक की दर बहुत उच्च हो गई हैं । सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी मुसलमानों में आज भी तीन तलाक की कुप्रथा रुकने का नाम नहीं ले रही है । कानून तो है पर बेअसर व अव्यावहारिक हैं । तलाक की दर 34 प्रतिशत तक जा पंहुची है जो भयावह है । पुनर्विवाह में दिक्कतें होती हैं, दूसरी शादी करने वाली लड़की को आज भी समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता , विवश होकर समझौता ही करना ही पड़ता है लड़की को ।
ख़तरे में लड़की :
आज लड़की ख़तरे में है। उसे उस सभ्य समाज से अपने अस्तित्व के लिए लडना पड रहा है जो उसे कभी पूजता है तो कभी मारता दुत्कारता है । पाखंडी व आडंबरी समाज अपनी जननी को ही जडों से उखाड़ फेंकने पर आमादा है। बेटी के नाम पर सौ – सौ कसमें खाने वाले ही उसे पीड़ा दे रहे हैं। बेटी को पराई कहने वालों ने कभी उसे हृदय से स्वीकार किया ही नहीं। दुखद पहलू यह है कि बेटी के शोषण की शुरुआत हमारे घरों से होती हुई समाज में फैल गई है।
बेटियां आज भी बेचारी :
आज कस्बों व शहरों में ‘बालिका बचाओ ’ व ‘महिला सशक्तिकरण’ विषयों पर चर्चाएं व सेमीनार तो बहुत होते हैं पर यथार्थ में बेटियां आज भी ‘बेचारी’ हैं। उनके खान-पान से लेकर शिक्षा व कार्य में उनसे भेदभाव हमारे समाज में आम बात है। दुखद तो पहलू ये है कि इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी है। आज डरी हुई लड़कियों को घर में रहने के लिए मजबूर होना पड रहा है। घर से शुरू होने वाले शोषण की वे बाद में इतनी आदी हो जाती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को भी वे हँस कर सहन लेती ।
प्रयास तो हुए मगर… :
लगातार घटती बेटियां की संख्या भारी चिंता का सबब होना चहिए पर है नहीं । हालांकि केरल जैसे कुछ राज्यों ने इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक प्रभावकारी कदम उठाए हैं । गुजरात में भी ‘‘डीकरी बचाओ ’’ अभियान चला है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में लिंगानुपात में सुधार और कन्या भ्रूण हत्याएं रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगों के बारे में जानकारी देने वाले को 10 हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है। कन्या धन योजना व गांधी बालिका सुरक्षा योजना कं अंतर्गत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को 25 हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को 20 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं।
जन चेतना जरूरी
आज ‘बालिका बचाओ, ‘बालिका बचाओ, बालिका पढ़ाओ’ जैसे अभियान’ को सफल बनाने के लिए सबकी सक्रिय भागीदारी बहुत जरूरी है। कन्या भ्रूण हत्या रोकने हेतु सामाजिक जागरूकता बढाने के साथ-साथ हमें बालिकाओं को बेटे से बढ़कर मानना होगा कुरीतियों व दहेज लेने – देने से बचना होगा उसका विरोध किए बगैर यह संभव नहीं है ।