विश्व की प्रमुख समस्या के रुप में पर्यावरण प्रदूषण सामने आया है जिससे जलवायु में गम्भीर परिवर्तन हो रहे है। इसके लिए विश्व के सभी देशों को एक मंच पर आकर सामूहिक व सम्मिलित प्रयास करने होंगे। इस दिशा में अभी तक किये गये प्रयास नाकाफी है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के कारण ही वर्ष 2001 के बाद से ही 10 सबसे गर्म वर्ष सामने आये है जो गत 100 वर्ष का रिकार्ड़ है। नेचर क्लाइमेट चेंज शोध पत्रिका में समय समय पर प्रकाशित शोध पत्रों के अनुसार यदि अभी प्रभावपूर्ण प्रयास नहीं किये गये तो वर्ष 2080 तक ग्लोबल वार्मिंग के कारण पौधों की आधी तथा जीवों की तिहाई प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी। ग्लोबल वार्मिंग से ही प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, अकाल व चक्रवातों की आवृतियों में बढ़ावा हो रहा है तथा मनुष्य को सभी आपदाएं बार बार झेलनी पड़ रही है। ग्लेशियर घट रहे है तथा बर्फ पिघल रही है। समुन्द्र का जल स्तर बढ़ रहा है। समुन्द्री जीवों की प्रजातियों पर गम्भीर खतरा बढ़ गया है तथा विश्व के कई तटीय नगरों के ड़ूबने का खतरा हो गया है। विश्व के विभिन्न देशों में खाद्यान्न संकट भी निरन्तर गम्भीर होता जा रहा है तथा कृषि व खेती व्यापक रुप से प्रभावित हो रही है।
वर्तमान में बढ़ते इस जलवायु परिवर्तन की वैश्विक संकट की सूचना वर्ष 1896 में रसायनविद् स्वांते आर्हनियस के द्वारा दी गई थी। उन्होंने कहा था कि कोयला जलाने से ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ जाता है। औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त से ही विश्व के औसत तापमान में निरन्तर बृद्धि देखी जा रही है। 1992 में विभिन्न देशों में एक संधि भी हुई जिसको यूनाटेड़ नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाईमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का नाम दिया गया था। इस संधि में जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने हेतु कई नियमों पर सहमति हुई थी। इसी के अंतर्गत 1995 में कांफ्रेंस आॅफ पार्टिज (सीओपी) के नाम से एक वार्षिक सम्मेलन भी बुलाया गया था जिसमंे लक्ष्य तय करके प्रयास शुरु करने पर सहमति हुई परन्तु 28 वर्षों में भी कोई अपेक्षित प्रयास नहीं हो पाये है।
विश्व में जलवायु में जो अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई दे रहे है वह सब मनुष्य के द्वारा विकास के लिए प्रकृति की अनदेखी करने के कारण ही है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन का खतरा अब प्रत्येक देश की दहलीज तक पंहुच गया है। अमीर देशों ने औद्योगिकरण के कारण बहुत धन एकत्र कर लिया है, अब उन सब का कर्तव्य है कि वे विकासशील (गरीब) देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता देकर पर्यावरण के दुष्परिणामों से छुटकारा दिलाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपेार्ट के अनुसार 2030 तक वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की जरुरतों को विद्युत के द्वारा पूरा करना होगा। सीमेंट उद्योग में होने वाले कार्बन उत्र्सजन को भी कम करने का लक्ष्य है। इसके लिए एक निश्चित प्रतिबद्धता होनी चाहिए। वर्तमान में विश्व में कोयला से 26.7 प्रतिशत, प्राकृतिक गैस से 24.1 प्रतिशत, तरल ईंधन से 25.6 प्रतिशत, बिजली से 15 प्रतिशत तथा नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत से 8.9 प्रतिशत के ऊर्जा स्त्रोत उद्योगों में काम में लाये जाते हैं।
कोयला व जीवाश्म ईंधन ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े कारण है। जलवायु परिवर्तन की जड़ में इन्हीं ग्रीनहाउस गैसों का योगदान है। इन गैसों से पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ गया है जो विश्व भर में संकट को निरन्तर गहरा कर रहा है। यूएनईपी के अनुसार 2030 तक विद्युत उत्पादन में कोयले का प्रयोग एकदम से समाप्त करना होगा तथा प्राकृतिक गैंस की हिस्सेदारी भी 2030-2040 तक 17 प्रतिशत पर व 2040-2050 के बीच शून्य तक लानी पड़ेगी। यह लक्ष्य प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
परिवहन क्षेत्र में सार्वजनिक परिवहन व सायकल को बढ़ावा देना होगा तथा छोटे व निजी वाहनों की हिस्सेदारी भी कम करनी पड़ेगी। विश्व यातायात में छोटे वाहनों की हिस्सेदारी 54 प्रतिशत है जिसको 4-14 प्रतिशत तक लाना होगा। इलैक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की हिस्सेदारी 2021 में 8 प्रतिशत थी जिसको 2030 तक 35-95 प्रतिशत तक पंहुचाना होगा। भारत में 2021 में कारों की बिक्री में ईवी की हिस्सेदारी मात्र 0.7 प्रतिशत थी। भारत में विद्युत उत्पादन के कोयला, तेल, गैस, परमाणु, जल विद्युत, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा तथा अन्य स्त्रोत है जिसमें कोयला, तेल, गैस को कम किया जाना आवश्यक है तथा पवन व सौर ऊर्जा को बढ़ाया जाना चाहिए।
विश्व में जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों की सूचना गत कई दशकों से सामने आने लगी है परन्तु इससे निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये थे जिससे पृथ्वी पर 20वीं सदी में औसत रुप से एक ड़िग्री सेल्सियस तापमान बढ़ गया है। अब समय आ गया है जब विश्व स्तर पर एक आंदोलन खड़ा किया जाय जिससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या थोड़ी कम हो सके। समस्या यह है कि औद्योगिक क्रान्ति से पूर्व की तुलना में पृथ्वी का अब तक का तापमान एक ड़िग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। समुन्द्र का जल स्तर बर्फ पिघलने से बढ़ गया है। गर्मी के कारण एक वर्ष से कम आयु के बच्चों तथा 65 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों की मौत का आंकड़ा 2000-04 की तुलना में 2017-21 में 68 प्रतिशत बढ़ चुका है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इतना बढ़ गया है कि यदि विश्व के देश 2030 तक के अपने लक्ष्य प्राप्त भी कर लें तब भी औसत तापमान में 2.5 ड़िग्री सेल्सियस तक की बृद्धि होगी। प्रतिवर्ष औसत तापमान में 0.2 ड़िग्री सेल्सियस की बृद्धि लोगों की लापरवाही के कारण ही हो रही है।
अतः ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए तत्काल कठोर कदम उठाने चाहिए। अब जलवायु परिवर्तन से होने वाले मनुष्य के कष्टों को टाला नहीं जाना चाहिए और इन उपायों में विकसित अमीर देशों को गरीब देशों को आर्थिक मदद देनी होगी क्योंकि उन्होंने ही विकास के नाम पर प्रकृति का अधिक दोहन किया है। एक अनुमान के अनुसार गत 20 वर्षों में ही विश्व में विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण 79 अरब डॅालर का नुकसान विभिन्न देशांे को हो चुका है। यदि अब भी विश्व समुदाय के द्वारा इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो गरीब देश भंयकर रुप से गरीब हो जायेंगे जिनका अप्रत्यक्ष प्रभाव अमीर देशों के आर्थिक हालात पर भी जरुर पड़ेगा।