इजराइल और फिलीस्तीन के बीच चल रहे युद्ध ने भारत में पांच राज्यों के चुनावों का रंग फीका कर दिया है। चुनाव बेमजा और बेरंग हो गए है । टीवी के परदे का एक बड़ा समय इस युद्ध की भेंट चढ़ गया है। युद्ध होता ही ऐसा है जिसमें सब कुछ भेंट चढ़ जाता है। मानवता तक नहीं बचती। पहले पंद्रह दिन पितृपक्ष ले गया और आने वाले नौ दिन देवी के नाम आरक्षित हैं। कांग्रेस ने पितृपक्ष में अपने प्रत्याशियों की सूची का ऐलान न कर इस रंग को और बेरंग कर दिया।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा ने दो महीने पहले ही अपने प्रत्याशियों की पहली सूची मध्यप्रदेश में जारी कर दी थी । फिर छत्तीसगढ़ का नंबर आया । राजस्थान की बारी बाद में आयी। तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनाव में भाजपा की ज्यादा दिलचस्पी है नहीं क्योंकि इन दोनों राज्यों में भाजपा के लिए कोई ज्यादा गुंजाइश है भी नहीं। पैर रखने की जगह ही मिल जाये ये ही बहुत है। स्थिति ये है कि मिजोरम की और तो अब तक प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने झांका तक नहीं है। इन विधानसभा चुनावों में रंग उभरने से पहले ही इजराइल और फिलीस्तीन के बीच जंग छिड़ गयी। भारत सरकार अब इस जंग में व्यस्त है ,चुनावों के लिए समय निकलना कठिन हो रहा है।
सत्तारूढ़ भाजपा के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मध्यप्रदेश और राजस्थान में ‘ सिंधिया फेक्टर ‘ गले की फांस बन या है। राजस्थान में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया को विधानसभा चुनाव से अलग रखना चाहती है ,लेकिन वे हैं कि अलग हो ही नहीं रही । भाजपा ने रानी का विकल्प रानी को चुना लेकिन मुकाबला सध नहीं रहा। जयपुर राजघराने की रानी धौलपुर की महारानी के समाने टिक नहीं पा रहीं। प्रदेश भाजपा का एक बड़ा धड़ा वसुंधरा राजे के साथ खड़ा है। वसुंधरा राजे से भाजपा की विरक्ति की वजह क्या है ये कोई नहीं जानता ,जबकि भाजपा की जड़ों में सिंधिया खानदान का बहुत खून-पसीना लगा हुआ है।
मध्य्प्रदेश में वसुंधरा राजे सिंधिया की बहन यशोधरा राजे ने भाजपा हाईकमान के तेवर देखकर मैदान छोड़ दिया है। वे विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ रहीं है। वैसे भी उन्हें टिकिट न मिलना तय था। भनक समय पर पड़ गयी सो यशोधरा ने खुद ही मना कर दिया। वसुंधरा और यशोधरा के भाई माधवराव सिंधिया के इकलौते पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया हालाँकि मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए एक बड़ी जरूरत हैं लेकिन वे भी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए राजी नहीं है। वे चुनाव लड़वाने वाले नेता हैं हालाँकि भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें अभिमन्यु की तरह घेरकर चुनाव हरा चुकी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने आपको चुनाव प्रचार के लिए तैयार कर रखा है जबकि उनके विरोधी चाहते हैं कि जब भाजपा के 7 सांसद चुनाव लड़ रहे हैं तो सिंधिया को भी विधानसभा का चुनाव लड़ाया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास कोई सिंधिया है नहीं ,इसलिए वहां सिंधियाशाही को लेकर कोई संकट नहीं है। छग में भाजपा अपने वजूद के लिए चुनाव लड़ रही है,सत्ता हासिल करने के लिए नहीं। यहां भाजपा ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ उनके ही भतीजे को चुनाव मैदान में उतारा है। भाजपा के पास कोई और पुरोधा है ही नहीं। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह पहले ही निराश कर चुके है। 2018 के विधानसभा चुनाव में डॉ रमन सिंह की कथित लोकप्रियता की कलई खुल चुकी है।पिछले पांच साल में छग में भाजपा का चर्चित ‘ आपरेशन लोटस’ भी कामयाब नहीं हुआ । भाजपा को छग कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कोई विभीषण नहीं मिला। राजस्थान ने भी इस मामले में भाजपा को निराश किया।
इन बेमजा विधानसभा चुनाव में जितनी बेफिक्री इस बार कांग्रेस में दिखाई दे रही है उतनी पहले कभी नहीं देखी गयी । कांग्रेस की महासचिव श्रीमती प्रियंका बाड्रा अपनी चुनाव रैलियों में अपने समर्थकों के बीच आंखमिचौली करते दिखाई दे रहीं हैं। उनके चेहरे पर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के चेहरों पर चस्पा तनाव रत्ती भर नहीं है। राहुल गाँधी की चुनावी रैलियां भी बिना तनाव के हो रहीं हैं। आम आदमी पार्टी की चुनावी रैलियों पर जरूर सांसद संजय सिंह की गिरफ्तारी का असर पड़ा है। आम आदमी पार्टी को भाजपा से दिल्ली में भी लड़ना पड़ रहा है और दिल्ली के बाहर भी। आप के तीन नेता जेल में हैं और इनमें से दो तो स्टार प्रचारक है। मनीष सिसौदिया और संजय सिंह की कमी आम आदमी को खल रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान उतने प्रभावी साबित नहीं हो रहे। इसलिए इन तीनों राज्यों में आप न गुजरात दोहरा पाएगी और न पंजाब।
भाजपा में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान के ‘ फीनिक्स ‘ अवतार ने भी भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दीं हैं। भाजपा हाईकमान शिवराज सिंह चौहान से मुक्ति पाना चाहता हैं लेकिन शिवराज सिंह हैं कि फीनिक्स की तरह बार-बार जन्म ले लेते हैं। 2018 में जनता ने उन्हें ख़ारिज कर दिया लेकिन 2020 में उनका पुनर्जन्म हो गया और वे एक बार फिर जन्म लेने का ऐलान कर चुके हैं। इतना आत्मविश्वास तो महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया भी प्रकट नहीं कर सकीं अपने आप पर। मजे की बात ये हैं कि चौहान हों या वसुंधरा राजे सिंधिया या ज्योतिरादित्य सिंधिया तीनों संसदीय ज्ञान में अपनी पार्टी के वर्तमान भाग्यविधाताओं से ज्यादा अनुभवी हैं। शिवराज सिंह चौहान 1991 में संसद की सीढियाँ चढ़ चुके थे। वसुंधरा ने संसद की सीढियाँ 1989 में चढ़ीं थी जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी 2002 में सांसद पहुँच चुके थ। संसद पहुँचने वाले नरेंद्र मोदी इन सबमें जूनियर है। वे 2014 में संसद की सीढियाँ चढ़े। मोदी विधानसभा में भी वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह के बाद पहुंचे।
बहरहाल युद्ध की छाया में हो रहे बेरंग विधानसभा चुनावों में रंग भरने की पुरजोर कोशिशें की जा रहीं हैं। मतदाताओं को रिझाने की इन कोशिशों को कितनी कामयाबी मिलती हैं ये कह पाना अभी कठिन हैं। यद्यपि प्रधामंत्री जी कैलाश में डमरू बजा रहे हैं। उनका तांडव कब शुरू होगा ये नहीं बताया जा सकता। वे ही हैं जो इन चुनावों को बेरंग होने से बचा सकते हैं ।