स्वास्थ्य के लिए घातक है जूठा भोजन

साथ-साथ एक ही थाली में खाना या फिर छोड़े गये भोजन की जूठी थाली में भोजन करने से पैंक्रियाटाइटिस नामक खतरनाक बीमारी हो सकती है जो जानलेवा भी होती है। घर की महिलाएं व बच्चे अपने पति, पिता, दादा-दादी के साथ एक ही थाली में बैठकर खाना खाते हैं या फिर उनके द्वारा छोड़े गए जूठन की थाली में बैठकर खाना-खाना शुरू कर देते हैं। पिकनिक, स्कूल या कार्यालयों में भी किसी के लंच बाक्स में साथ-साथ खाते देखा जा सकता है।
अगर देखा जाए तो आजकल साथ-साथ खाना या जूठा खाना एक फैशन-सा बनता जा रहा है। पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका या छोटे बच्चे अपने मां-बाप के साथ प्रेम से बैठकर एक साथ खाना खाते हैं या फिर जूठे हाथ से ही लंच-बाक्स से निकाल-निकालकर एक-दूसरे को परोसते रहते हैं। फल, आइसक्रीम आदि कई ऐसी वस्तु हैं  जिन्हें एक बार प्रेमी चाटता है तो दूसरी बार प्रेमिका। इसे प्रगाढ़ प्रेम का प्रतीक समझा जाता है जबकि इस प्रकार से खाना स्वास्थ्य संबंधी व्याधियों को न्यौता देना ही होता है।


इस प्रकार का प्रेम जानलेवा भी साबित हो सकता है क्योंकि इससे पाचन तंत्रा की अनेक बीमारियां हो जाती हैं। इस प्रकार साथ-साथ खाने से या जूठा खाने से ‘हेलिकोवैक्टर पाइलोराइड’ नामक बैक्टीरिया संक्रमित व्यक्ति के मुंह से भोजन द्वारा दूसरे व्यक्ति के पाचनतंत्रा में प्रवेश पा जाता है। इस बैक्टीरिया के प्रवेश करने के चौबीस घंटे के अंदर एसिडिटी एवं पेट में जलन का अनुभव होने लगता है।


एक ही गिलास में बिना धोए पानी-पीना, एक ही प्याले से दोनों तरफ होंठ लगाकर शराब पीना या दुकानों पर कांच के गिलास में पानी पीना या होटलों के बर्तनों में खाना खाने से भी यह बीमारी हो जाती है क्योंकि दुकान वाले गिलास व अन्य बर्तनों की सफाई अच्छी तरह नहीं करते और उन बर्तनों पर हेलिकोवैक्टर पाइलोराइड नामक जीवाणु चिपके रह जाते हैं।
ये बैक्टीरिया पेट के अन्दर जाकर अम्लता के साथ आमाशय में घाव पैदा कर देते हैं और दिल की बीमारी को उत्पन्न कर सकते हैं। इसके साथ ही ये गैस्ट्राइटिस एवं इसोफेजाइटिस भी पैदा कर सकते हैं। पैंक्रियाज को संक्रमित कर उसमें सूजन भी उत्पन्न कर देते हैं। इसके प्रभाव से अल्सर, कैंसर के अतिरिक्त भोजन एवं पौष्टिक तत्वों की पाचन शक्ति भी धीमी हो जाती है। शरीर में विटामिन एवं पोषक तत्वों की कमी होने लग जाती है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन की पत्रिका ‘वर्ल्ड हैल्थ‘  के अनुसार पैंक्रियाज के संक्रमण से अधिकतर युवक-युवतियां ही संक्रमित होती हैं और उनकी सेहत पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। युवक पाचन शक्ति को क्षीण करता हुआ दमा, बहुमूत्रा, लिंग शिथिलता, स्वप्नदोष, धातुक्षीणता के साथ ही नपुंसकता का शिकार भी हो सकता है जबकि इस जीवाणु के प्रभाव में आकर नवयुवतियों के  रूप और सौन्दर्य के बिगड़ने के साथ ही स्वास्थ्य पर भी ग्रहण की छाया पड़ने लगती है। कब्ज, अम्लपित्त, गर्भाशय शोथ, मासिक की अनियमितता, ल्यूकोरिया का प्रकोप, स्तन शिथिलता, योनिदग्ध, कमर दर्द, आलस्य, बांझपन आदि को प्राप्त करने की काफी उम्मीद रहती है।


इस जीवाणु का प्राकृतिक स्रोत मनुष्य मात्रा ही होता है। यह जीवाणु वातावरण के हवा, मिट्टी और मल में प्रवेश करके जिन्दा नहीं रह पाता, अतः वातावरण से इसके फैलने का डर नहीं रहता। यह जीवाणु मुंह से मुंह, हाथ से मुंह और लार के माध्यम से ही फैलता है। भीड़-भाड़ की जगह जहां गंदगी अधिक होती है वहां इसके फैलने की अधिक गुंजाइश रहती है।
दांतों की अनियमित पंक्तियां, पायरिया युक्त मसूड़े, दांत की गंदगियों के कारण ये जीवाणु दांत की सेहत पर लगे खाद्य पदार्थों के साथ जाकर छिप जाते हैं तथा साथ-साथ भोजन करने वालों के मुंह में जाकर अपना स्थान बना लेते हैं। तम्बाकू, गुटका, पान, पान-मसाला खाने वालों के मुंह में जाकर ये आसानी से छिपकर अपना काम करते रहते हैं।


पेट में जलन, खट्टी डकारों से परेशानी, रात में नींद न आना, दिन में भी बैचेनी, दवाओं का अल्पकालीन प्रभाव, भूख का न लगना, पेट का हरदम फूला रहना, सम्पूर्ण सुस्ती, कमजोरी का बढ़ते जाना आदि लक्षण इस संक्रमण के होते ही दिखने लगते हैं। इसके प्रभाव से पाचनतंत्रा की श्लेष्मा झिल्ली नष्ट होने लगती है। इसके कारणों से ही अमोनिया स्वतंत्रा आक्सीजन से पाचनतंत्रा की श्लेष्मा को नष्ट करते हुए अनेक उपद्रवों को शुरू कर देता है।
यह बैक्टीरिया पित्ताशय एवं पित्तवाहिनी को संक्रमित कर देता है और पित्त के प्रवाह को पैंक्रियाज में कर देता है जिससे पैंक्रियाइसिस नामक भयंकर बीमारी हो जाती है। इस बैक्टीरिया के कारण शरीर की प्रतिरक्षण क्षमता काफी कम हो जाती है। एलर्जी पैदा हो जाती है जिससे कोशिका समूह नष्ट होने लगते हैं और घाव तक पैदा हो जाते हैं।


स्त्रियों और युवतियों को यह रोग अधिक पकड़ता है क्योंकि जूठा खाने में स्त्रियां बालपन से ही आगे होती हैं। यह बीमारी बच्चियों को सहज पकड़ लेती है और इसके जीवाणु उसके मुख में अपना स्थान बनाए रखते हैं। जिस समय मासिक स्राव होना प्रारम्भ होता है उस समय इसके जीवाणु तीव्रता से गर्भाशय की ओर बढ़ते हैं तथा उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। मासिक की अनियमितता, स्तनों का अविकसित रह जाना, योनि में जलन होना आदि प्रारम्भ हो जाता है परन्तु उसके द्वारा इन कारणों को अभिव्यक्त  न करने से समय पर उपचार नहीं हो पाता और रोग बढ़ता जाता है।


इस जीवाणु के उपद्रव के कारणों से ही स्त्रा या बालिका, धीरे-धीरे अपने स्वास्थ्य को क्षीण करती चली जाती हैं, अतः जूठन खाने और साथ-साथ खाने की प्रवृत्ति को त्यागने का प्रयास करके इस रोग से बचने के बारे में सोचना चाहिए। इस बीमारी का कोई सटीक उपचार नहीं है। इसके लक्षणों का ही अलग-अलग उपचार होता है। सतर्कता ही इस बीमारी से बचाव का मुख्य उपाय है।