मॉं, माटी, जगत-कल्याण और लोक आस्था का महापर्व है छठ!!

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लोक आस्था का यह महापर्व छठ पूर्णतः प्रकृति की पूजा के रूप में मनाया जाता है जहां दिखावेपन की कोई गुंजाइश नहीं है। यह पूजा मॉं, माटी और लोक आस्था से जुड़े होने के कारण न केवल आत्मीय है अपितु अपने अंदर जगत कल्याण को भी समेटे हुए है। दीपावली के ठीक छः दिन बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को “सूर्य षष्ठी का व्रत” करने का विधान है। छठे दिन होने के कारण इसे आम बोलचाल में ‘छठ पर्व’ कहा जाने लगा । इस दिन भगवान सूर्य व षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि दुनिया उगते सूरज को हमेशा पहले नमन करती है, लेकिन पूर्वांचल के लोगो के लिए ऐसा नहीं हैं। पूर्वांचल के लोग लोक आस्था से जुड़े पर्व “छठ” का पहला अर्घ्य डूबते हुए सूरज को देते हैं। इस पर्व की खास परंपरा यह है कि इस दिन सभी लोग डुबते हुए सूर्य को पहले प्रणाम करते हैं और उगे हुए सूर्य को बाद में। यह व्रत एक प्रकार का तप है तभी तो व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।व्याकरण के अनुसार छठ शब्द स्त्रीलिंग हैं इस वजह से इसे छठी मैया कहते हैं। वैसे इस पर्व को लेकर कई किवदंती हैं। कुछ लोग इसे भगवान सूर्य की बहन मानते हैं तो कुछ लोग भगवान सूर्य की माँ भी मानते हैं, खैर जो भी हो आस्था का यह पर्व हमारे रोम रोम में बसा हुआ है। इस पर्व का नाम सुनते ही हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता हैं और हम गाँव की याद में डूब जाते हैं।
चार दिनों तक चलने वाला यह व्रत दुनिया का सबसे कठिन त्योहारों में से एक हैं। यह व्रत बड़े नियम तथा निष्ठा से किया जाता है। पवित्रता की इतनी मिशाल की व्रती अपने हाथ से ही सारा काम करते हैं। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अर्घ्य तक व्रती पूरे निष्ठा से इसके विधान का पालन करते हैं। भगवान भास्कर के लिए किए गए 36 घंटो के निर्जला व्रत से जहां स्त्रियों के सुहाग और संतान की रक्षा होती है, वही भगवान् सूर्य धन, धान्य, समृद्धि आदि भी प्रदान करते हैं। सूर्यषष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवी का आवाहन एवं पूजन किया जाता है। फिर अगले दिन प्रातः अर्घ्य के पूर्व षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस पर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के ‘नहाय-खाय’ से शुरू हो जाती है। इस दिन छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। इस दिन व्रती कद्दू/लौकी/दूधी की सब्जी, चने की दाल, और अरवा चावल का भात खाते हैं।दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को व्रती गन्ने के रस की खीर बनाकर, उसी से हवन करते हैं। इस दिन को ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसके बाद 36 घंटे का निर्जला (बिना अन्न-जल) उपवास रखा जाता है।

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी या खजूर भी कहते हैं (ठेकुआ पर लकडी के साँचे से सूर्यभगवान्‌ के रथ का चक्र भी अंकित करना आवश्यक माना जाता है), के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा सभी प्रकार के मौसमी फल — ईंख, केला, पानी-फल, शरीफ़ा, नारियल, मूली, सुथनी, अदरक, गागल नींबू, अखरोट, बादाम, इलायची, लौंग, पान, सुपारी एवं अन्य समान अर्घपात (लाल रंग का), आदि छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की पूजा प्रसाद से भरे सूप से की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।छठ पूजा में कोशी भरने की भी मान्यता है।अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठी मां से मनौती करता है तो वह उसे पूरा करने के लिए कोशी भरता है। नदी किनारे गन्नों का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। इस प्रकार भगवान् सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है । इसीलिए लोक में यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’ के नाम से विख्यात है।

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर लोक आस्था का महापर्व छठ का समापन करते हैं। धार्मिक आस्था से प्रारंभ हुआ यह महापर्व कैसे प्रवासियों को अपने मिट्टी से जोड़ने का महापर्व बन गया पता ही ना चला। छठ ना होता तो लोग साल में एक बार वापस अपने गांव भी नही लौटते। रोजी-रोजगार की तलाश में देश दुनिया में अपना श्रमदान करने वाले बिहार, यूपी के लोगों ने छठ के बहाने अपनी एकजुटता को भी प्रदर्शित किया है । पूर्वांचल के लोग जहां भी गए हैं वहां छठ के बहाने समूहों का निर्माण भी किया है। आज छठ केवल धार्मिकता के संदर्भ को नहीं बताता अपितु आपसी सामाजिक और सांस्कृतिक सामंजस्य को भी दर्शाता है। आज छठ महापर्व सामाजिक समरसता के लिए; उच्च-नीच, अमीरी-गरीबी का भेदभाव मिटाने के लिए; अपनी जड़ों से दूर हो रही पीढ़ी को वापस अपने संस्कार की तरफ लाने के लिए; सभी में सामूहिकता का निर्माण करने; आस्था के साथ ही साथ जीवन में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए; डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए; जीवन में आगे बढ़ने के लिए; परिवार को एक सूत्र में बांधने के लिए; घर, परिवार और समाज को संगठित करने के लिए ; अपने अहंकार को त्यागने के लिए; समाज के हर एक तबके से पूजन सामग्री एकत्रित कर एक नए समाज का निर्माण करने के लिए छठ जरुरी है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है की,लोक आस्था का यह महापर्व छठ केवल धार्मिक रूप से ही जरुरी न होकर सांस्कृतिक और सामाजिक समानता को भी साथ लाता है।साथ ही यह महापर्व भारतीय सांस्कृतिक विरासत और आस्था को बनाए रखने के लिए,परिवार तथा समाज में एकता एवं एकरूपता के लिए , संयमित एवं संतुलित व्यवहार और सुखमय जीवन के आधार के लिए बहुत आवश्यक है। पूर्वांचलवासी छठ के दिन भले ही अपने परिवार वालों से दूर हों, वे मन-मस्तिष्क से अपने परिवार के साथ आस्था के इस महापर्व छठ के ही साथ होते हैं।

डॉ. आलोक रंजन पांडेय
रामानुजन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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